भूले हुए फ़िलिस्तीनी बंदी — समान मान्यता और न्याय की पुकार

नई दिल्ली: “पिछले लगभग दो वर्षों से पूरी दुनिया में एक ही शब्द छाया हुआ है — बंधक। सुर्खियाँ, भाषण, राजनयिक वक्तव्य — सब कुछ लगभग पूरी तरह से इज़रायली बंधकों के इर्द-गिर्द घूमता रहा है। उनका दुःख वास्तविक है, उनके परिजनों की पीड़ा असंदिग्ध है, और राष्ट्रपति महमूद अब्बास ने शुरुआत से ही स्पष्ट रूप से सभी बंधकों की तत्काल रिहाई की माँग की है — और आज भी उसी आग्रह पर कायम हैं।
लेकिन यह एकतरफ़ा ध्यान फ़िलिस्तीनी जनता के लिए असहनीय मूल्य पर आया है। बंधकों की यह कथा एक ऐसा पवित्र वर्जित प्रसंग बन गई है, जिसका प्रयोग बमबारी, घेराबंदी, भूख और पूरी-की-पूरी बस्तियों को तबाह करने को जायज़ ठहराने में किया गया है।
इस वैश्विक विमर्श से जो एक साधारण लेकिन निर्णायक सच ग़ायब है, वह यह है: हज़ारों फ़िलिस्तीनी बंधक — पुरुष, महिलाएँ और बच्चे — इज़रायली जेलों और सैन्य शिविरों में सड़ रहे हैं, और दुनिया की अंतरात्मा से उनका अस्तित्व लगभग मिटा दिया गया है।”
यह बयान है दिल्ली में स्थित फ़िलिस्तीनी दूतावास का। 3 अगस्त को जारी इस बयान में कहा गया है कि “जून 1967 से अब तक, क़रीब साढ़े सात लाख फ़िलिस्तीनियों को सिर्फ एक "अपराध" के लिए गिरफ़्तार किया गया है — कब्ज़े के ख़िलाफ़ संघर्ष करना, जो मानवता का एक बुनियादी अधिकार है और स्वतंत्रता की स्वाभाविक लड़ाई भी।
जुलाई 2025 तक, 10,800 फ़िलिस्तीनी कैद में हैं — इसमें वे शामिल नहीं हैं जो सैन्य शिविरों में बंद हैं। इनमें 50 महिलाएँ, 450 बच्चे, और 3,629 प्रशासनिक बंदी हैं — जिन्हें बिना किसी आरोप या मुक़दमे के अनिश्चितकाल के लिए हिरासत में रखा गया है।
सिर्फ पिछले 22 महीनों में, 73 बंदियों की इज़रायली हिरासत में मौत हो चुकी है, और दर्जनों की मौत बिना किसी सार्वजनिक स्वीकारोक्ति के हो गई है।
मानवाधिकार संगठनों और यहाँ तक कि इज़रायली मीडिया ने भी इस बात की पुष्टि की है कि बंदियों के साथ व्यवस्थित रूप से दुर्व्यवहार किया जाता है — शारीरिक हिंसा, भूखा रखना, चिकित्सकीय उपेक्षा और यौन उत्पीड़न तक।
एक भयावह मामला तब सामने आया जब एक वीडियो वायरल हुआ जिसमें इज़रायली सैनिकों को स्डे तेमान सैन्य शिविर (Sde Teiman military camp) में एक फ़िलिस्तीनी बंदी के साथ यौन हिंसा करते हुए दिखाया गया — जिससे उसे जानलेवा चोटें आईं।
इज़रायल ने इस अपराध से इनकार नहीं किया, और दोषी सैनिक ने बाद में इस पर ऑनलाइन शेख़ी भी बघारी। और भी चौंकाने वाली बात यह रही कि इज़रायली संसद (Knesset) में इस हमले की नैतिकता पर बाक़ायदा बहस हुई — जहाँ कई सांसदों ने ऐसे कृत्यों को जायज़ ठहराने की कोशिश की, जैसे फ़िलिस्तीनियों के साथ अमानवीयता को किसी राजनीतिक तर्क में समेटा जा सकता हो।
बंदीगृहों की स्थितियाँ पीड़ा को और गहरा कर देती हैं: खुजली रोग (scabies) का फैलाव, जानबूझकर की गई उपेक्षा, और लगातार अपमानजनक व्यवहार। ये हादसे नहीं हैं — ये दमन के औज़ार हैं।
जिस तरह की नैतिकता और अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों का दावा दुनिया इज़रायली बंधकों के लिए करती है, वही सिद्धांत फ़िलिस्तीनी बंदियों पर भी लागू होने चाहिए। हर इंसानी जान की कीमत बराबर होनी चाहिए।
किसी को भी निम्नतर या अधम मानकर बर्ताव नहीं किया जाना चाहिए।
फ़िलिस्तीनी बंदी हमेशा से फ़िलिस्तीनी समाज के केंद्र में रहे हैं — उनके बलिदान को सम्मान मिला है, भले ही इज़रायल और उसके सहयोगी उन्हें "आतंकवादी" कहते रहे हों।
यह कोई नया चलन नहीं है — दशकों पहले, भारत में उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ लड़ने वाले क्रांतिकारियों को भी ब्रिटिश हुकूमत ने "आतंकवादी", "अराजकतावादी" और "अशांति फैलाने वाले" करार दिया था।
इस वर्ष, 3 अगस्त को पहली बार एक अंतरराष्ट्रीय दिवस के रूप में घोषित किया गया है, ताकि फ़िलिस्तीनी बंदियों की पीड़ा को उजागर किया जा सके — यह याद दिलाने के लिए कि उनकी यातना को अब और नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
हम सम्मानपूर्वक उन सभी राष्ट्रों से अपील करते हैं, जिनका इतिहास उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्ष और नैतिक नेतृत्व से जुड़ा रहा है — कि वे सभी बंधकों के लिए समान रूप से आवाज़ उठाएँ, चाहे उनकी राष्ट्रीयता जो भी हो।
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