तिरछी नज़र: 'रगों में सिंदूर बहता है’

संपादक महोदय का फोन आया, मुझे भी लगा कि देश में इतना कुछ हो रहा है और मैं हूं कि अपनी विदेश यात्रा पर ही लिखे जा रहा हूं। बात ठीक है। अब देखो, ऑपरेशन सिंदूर हुआ, हुआ क्या, अभी तक हो ही रहा है। सेना का तो बीस दिन पहले ही खत्म हो गया, पर भाजपाइयों का अभी तक चल रहा है। हर तरफ सिंदूर की बातें हैं। चारों ओर सिंदूर ही सिंदूर छाया हुआ है। और यह तब तक चलेगा जब जनता ही ना नकार दे।
सरकार जी भी कह रहे हैं कि उनकी रगों में गर्म सिंदूर बह रहा है। पहले कभी गर्म खून बहा करता था, अब गर्म सिंदूर बह रहा है। पहले कभी, पैंतीस-चालीस साल पानी भी बहता रहा होगा। जब भिक्षा पर गुजारा करते थे, तब पानी ही तो बहा होगा। इसीलिए कभी यह नारा भी बहुत चला था, 'जिस हिन्दू का खून ना खौले, खून नहीं वो पानी है'। हो सकता है अब सरकार जी एक नया नारा दे दें, बिहार चुनाव में दें। यह नारा दें कि 'जिस हिन्दू का सिंदूर ना उबले, सिंदूर नहीं वह खून है'।
यह ट्रांसफार्मेशन बहुत ही मजेदार है। यह सिर्फ नॉन-बायोलॉजिकल में ही हो सकता है कि रगो में, नसों में सिंदूर बहे। बायोलॉजिकल लोगों की रगों में तो सिर्फ खून ही बह सकता है। ना सिंदूर, ना पानी। लगता है, सरकार जी को पहले से ही पता था कि एक दिन ऐसा आएगा कि उनकी रगों में खून नहीं, सिंदूर बहेगा इसीलिए उन्होंने अपने को समय रहते ही नॉन-बायोलॉजिकल घोषित कर दिया। इससे हम वैज्ञानिक सोच वालों को भी कोई चिंता नहीं है। अब नॉन-बायोलॉजिकल हो तो पानी बहे, खून बहे या फिर सिंदूर। कुछ भी बह सकता है। कल को तेज़ाब कहो तो वह भी बह सकता है।
मैं डॉक्टर हूँ। मुझे तो बस एक ही चिंता है। आपातकाल की। मतलब अगर कल को सरकार जी को किसी वजह से ब्लड चढ़ाने की, मतलब सिंदूर ट्रांसन्फूज़न की जरूरत पड़ गई तो ऐसा दूसरा व्यक्ति कहाँ से लाओगे जिसकी रगों में भी सिंदूर बहता हो। और हाँ, उसका सिंदूर का ग्रुप भी सेम हो। मतलब रगो में सिंदूर तो बहता ही हो पर एक चुटकी सिंदूर की कीमत ना जानता हो। मुझे तो लगता है सरकार जी को कुछ और लोगों को अपनी तरह नॉन-बायोलॉजिकल बना, उनकी रगों में सिंदूर बहा, अपने आस पास रखना चाहिए। इमरजेंसी में बहुत काम आएंगे।
मेरी बात एक रसायन शास्त्री से हुई। सुबह मार्निंग वाक के समय मिल गए। एक विश्वविद्यालय में रसायन शास्त्र के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं। मैंने उनसे पूछा, "भाई साहब, ये सिंदूर वास्तव में है क्या बला"।
उन्होंने बताया, "भाई साहब, रासायनिक रूप से तो यह पारे और सल्फर का यौगिक है, मरक्यूरिक सल्फाइड। माथे पर लगाने या फिर मांग भरने के काम आता है। रंग की तरह भी इस्तेमाल किया जाता है"।
"और शरीर के अंदर चला जाये तो"? मेरा अगला प्रश्न था।
"तो जहर है, जहर", उन्होंने बताया।
"और उसको गर्म कर दो तो? खौला दो तो"?
"फिर तो वह और जहरीला हो जायेगा। पारा अलग और सल्फर अलग। दोनों ही बहुत जहरीले हैं", उन्होंने जवाब दिया। "पर आप यह सब कुछ मुझसे पूछ क्यों रहे हो"।
"वैसे ही। सुना था, किसी की रगो में खौलता सिंदूर बहता है इसलिए सोचा आपसे जानकारी ले लूं" मैंने बताया।
वे कुछ समझे और हड़बड़ा उठे। बोले, "मैंने कुछ नहीं कहा। मैंने कुछ नहीं बताया। मेरी और आपकी तो बात ही नहीं हुई। मैं तो आपसे मिला तक नहीं हूँ। मैं तो आपको जनता भी नहीं"।
मैंने उनका हाथ पकड़ा और लगभग खींचते हुए पास पड़ी बेंच पर ले गया। थैले में से निकाल कर पानी की बोतल पकड़ाई। इस गर्मी के माहौल और मौसम में, मैं पानी की बोतल हमेशा अपने साथ रखता हूँ। मैंने उन्हें सांत्वना दी, "आप तो सच ही बोल रहे हैं। वैज्ञानिक तथ्य ही रख रहे हैं। तो घबराना कैसा? वैसे भी रगो में, नसों में तो सबकी खून ही बहता है। बाकी जो कुछ बहता है ना, दिमाग़ में बहता है। और मानव हो या महामानव, रगो में बहने वाला खून सबका एक ही रंग का होता है, लाल। यह कहना कि रगो में सिंदूर बहता है, तो जनता को बेबकूफ बनाने के लिए है। उत्तेजित करने के लिए है, वोट बटोरने के लिए है। यह बोलने वाले को भी पता है और जनता को भी पता है"।
प्रोफेसर साहब को तो मैंने शांत कर दिया पर मेरे दिमाग़ में खलबली मच रही थी। अगर भविष्य में किसी को लगे कि वोट तो ज़हर से अधिक मिल सकते हैं और वह यह कह दे कि उसकी रगों में ज़हर बह रहा है, नफ़रत का ज़हर बह रहा है, कोबरा से अधिक ज़हरीला ज़हर बह रहा है तो? तो डॉक्टरी हिसाब से कहूं तो ट्रांसफ्यूजन की तो कोई चिंता नहीं रहेगी। ऐसे तो लाखों लोग हमारे समाज में मौजूद हैं जिनकी रगो में ज़हर बह रहा है। पहले से ही मौजूद हैं और मौजूदा समय में बढ़ ही रहे हैं। पर तब देश का क्या होगा। उस जनता का क्या होगा, जो सरकार को खुदा माने बैठी है।
(लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)
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