भारत का कल्याणकारी राज्य : गोल क़ैदख़ाने में नागरिकों की रेटिंग

''तकनीक द्वारा सुरक्षा'' और ''सुरक्षा के लिए तकनीक'' के युग में अब राज्य की प्रवृत्ति बदलती जा रही है। राज्य अपने लिए अहम नागरिकों की पहचान करने में लगा है। ''पुलिस राज्य(पुलिस स्टेट)'' की तरह व्यवहार दिखाते हुए राज्य लोकतंत्र में रहते हुए भी अपनी मर्जी नागरिकों पर थोप रहे हैं। यह राज्य के लिए गिरावट की बात है। लेखक इस लेख में आज की परिस्थितियों में राज्य के कल्याणकारी चरित्र का परीक्षण कर रहा है। आखिर राज्य कहां तक नागरिकों को अहमियत देता है? क्या नागरिक राज्य के लिए अहमियत रखते भी हैं या नहीं?
बेंथम द्वारा सुझाए गए ''गोल कैदखाने (Panoption)'' के पीछे यह अवधारणा थी कि सभी कैदियों को एक ऐसे संस्थान में रखा जाए, जहां एक ही सुरक्षा गार्ड उन पर नज़र रखे। कैदी यह तय न कर पाएं कि उन पर कहां और किस वक़्त नज़र रखी जा रही है। फोकॉउल्ट ने एक कदम आगे बढ़ते हुए सलाह दी कि आधुनिक समाज इसी गोल कैदखाने की तरह है। उसने कहा, ''जेल कोई अनोखी चीज नहीं है। यह एक अनुशासित समाज में स्थित है। हमारे द्वारा निवास करने वाला यह समाज सामान्यत: निगरानी में होता है।'' फोकॉउल्ट आगे कहते हैं, ''हमारी जेल- फ़ैक्टरियों, स्कूल, मिलिट्री बेस और हॉस्पिटल की तरह हैं। यह सारे संस्थान भी जेल की तरह हैं। इसमें बहुत अचरज करने वाली बात क्या है?''
''सोशल कांट्रेक्ट थ्योरी'' के मुताबिक़, समाज कई तरह के समझौतों पर आधारित होता है, जहां लोग एक नागरिक समाज बनाने के लिए एक-दूसरे के साथ समझौतों में आबद्ध रहते हैं। इन समझौतों से आगे ''संप्रभु सत्ता'' का निर्माण होता है, जिसे ''राज्य'' कहते हैं। लेकिन जब हम ''राज्य'' शब्द के बारे में सोचते हैं, तब हमारे दिमाग में क्या आता है? इस शब्द के तीन मतलब हैं- पहला, सरकार (S1), दूसरा- राष्ट्र की जनता (S2), तीसरा- राज्य और व्यवस्था (S3)। S3 में उल्लेखित राज्य, लातिन शब्द ''स्टेटस'' से निकला है, इसलिए यह स्थितियों और शर्तों का प्रतिनिधित्व करता है। सरकार, राज्य और चीजों की वस्तुस्थिति को नियंत्रित करती है, इसलिए इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि S1 और S3 पर्यायवाची हैं।
एक तबाह देश अब वास्तविकता बन चुका है?
ब्लैक मिरर के एक एपिसोड में एक ऐसी दुनिया है, जहां सभी की सोशल रेटिंग होती है, जहां सभी एक-दूसरे को रेट करते हैं। रेटिंग किसी व्यक्ति की साख पर आधारित होती है। इसी रेटिंग के हिसाब से संबंधित शख़्स राज्य से फायदे उठा सकते हैं। इस पूरे ढांचे में से तबाही भरे अंश (जिसके होने के बारे में तय तौर पर वक़्त ही बता सकता है) हटा दिए जाएं, तो वैसी दुनिया अब चीन में सच्चाई बन चुकी है।
इस साल की शुरुआत से चीन के नागरिकों को सरकार रेटिंग देगी। यह रेटिंग एक नागरिक के तौर पर उनकी साख के आधार पर होगी। डेटिंग, स्वास्थ्य सेवाओं से लेकर शिक्षा तक, बेहतर रेटिंग वाले नागरिक ज़्यादा बेहतर फायदे उठा सकेंगे। यह सुना-सुना सा नहीं लगता?
इस सिस्टम का एक ग़ौर करने वाला पहलू ''घूमने-फिरने की आज़ादी'' है। इस सिस्टम में ''विश्वासपात्र नागरिकों'' को सभी जगह निर्विवाद तौर पर घूमने की आज़ादी होगी। जिनकी साख कमज़ोर होगी, उनके लिए एक कदम भी बाहर रखना मुश्किल होगा।'' इस तरह किसी शख्स की आवागमन की स्वतंत्रता उनकी सरकार द्वारा दी गई क्रेडिट-रेटिंग पर निर्भर करेगी। इन चीजों को अंजाम देने के लिए पूरे देश में 20 करोड़ सीसीटीवी कैमरे लगाए गए हैं।
होमो डॉयस में हरारी कहते हैं कि इंसानियत ने भुखमरी को खत्म करने का लक्ष्य साधा था और एक प्रजाति के तौर पर इसमें सफलता भी पाई है। इसके बाद इंसानियत बीमारियों को पूरी तरह खत्म करने को अपना लक्ष्य बनाएगी, ताकि जिंदगी की उम्र को लंबा किया जा सके। जैसा हॉब्स ने लिवाइथन में बताया है, ''प्रकृति के नियम'' अब जिंदा रहने पर निर्भर करता है। हरारी यह भी कहते हैं कि जब हम इन दोनों काम को कर लेंगे, तब इंसानियत ''खुशी (जो अपनी प्रकृति में सकारात्मक होती है)'' को बढ़ाने के उद्देश्य से काम करेगी।
''यह सकारात्मक क़ानून लोगों की सबसे बड़ी संख्या को सबसे ज़्यादा ख़ुशी देने की कोशिश करेगा।''
इंसान भी प्रकृति है और राष्ट्रों को इंसान ने बनाया है। इस तरह इंसान के नियम, जैसा हॉब्स कहते हैं, वह भी प्राकृतिक नियम हैं और राष्ट्र के नियम-कानून, प्रकृति के नियम हैं। जिस तरह वायुमंडल को छोड़ने वाली स्पेसशिप में अलग-अलग हिस्से होते हैं, जो अंतरिक्ष में प्रवेश लेने के दौरान अलग-अलग वक़्त पर स्पेसशिप से दूर होते हैं, वैसे ही यहां प्राकृतिक नियम वाला हिस्सा स्पेसशिप को पहले छोड़ता है, इसके बाद ''सकारात्मक नियम'' (जो प्राकृतिक कानून का दूसरा हिस्सा होता है) आगे बढ़ने के लिए जोर लगाते हैं। यह सकारात्मक कानून किसी आबादी की सबसे बड़ी संख्या के लिए सबसे ज़्यादा खुशी को हासिल करने की कोशिश करता है।
राज़ी न होने वाले नागरिकों की कल्याण के लिए निगरानी
कुछ साल पहले दिल्ली उच्च न्यायालय ने दिल्ली पुलिस को गुमशुदा बच्चों की तलाशी के लिए फेशियल रिकग्नीशन तकनीक के इस्तेमाल की अनुमति दी थी। लेकिन, जैसा दिल्ली पुलिस की वेबसाइट पर उल्लेखित है, अब यह तकनीक ''उन व्यक्तियों की खोज और निगरानी के लिए इस्तेमाल होता है, जिन पर पुलिस को शक है''। यह चीज गुमशुदा बच्चों को खोजने से लेकर आरोपियों की खोज तक लंबा रास्ता तय कर चुकी है। लेकिन अब यह चीज और आगे बढ़ रही है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) ने ऑटोमेटेड फेशियल रिकॉग्नीशन सिस्टम का प्रस्ताव देते हुए एक अपील सरकार को दी है।
यह सब जनव्यवस्था और राष्ट्र की सुरक्षा के नाम पर निजता में क्षरण कर रहा है। ऐसी तकनीकों से जनता की सहमति की कोई जगह ही नहीं रह जाती, क्योंकि इनका इस्तेमाल राष्ट्र की सुरक्षा के नाम पर किया जाता है। लोगों को CCTV की निगरानी में रखना एकतरफ़ा है, क्योंकि इससे निकलने का कोई रास्ता नहीं होता। यहां तक पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन बिल की धारा 35 में भी सरकार जनव्यवस्था और राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर खुद को दायित्वों से अलग करने की मंशा बना रही है।
लेकिन तब क्या होता है, जब राज्य नागरिकों को नागरिकों के भले के लिए सोचने की आज़ादी नहीं देता? तब यह स्वनियमित हो जाता है?
तब सवाल उठता है- अगर राज्य लोगों को नियंत्रित कर रहा है, तो राज्य को नियंत्रित कौन करता है? इसका स्वाभाविक सा जवाब होगा- नागरिक। लेकिन तब क्या होगा, जब राज्य नागरिकों को यह फ़ैसला लेने की ही आजादी न दे कि उनके हित में क्या बेहतर है? तब यह स्वनियमित हो जात है। भारत एक कल्याणकारी राज्य है। लेकिन सवाल उठता है कि क्या कल्याण को थोपा जा सकता है? अगर तकनीक जनहित में है तो क्या इसे नागरिकों की सहमति के बिना उनपर थोपा जा सकता है? राज्य निश्चित ऐसा कर सकता है। क्योंकि सरकार ही ''जनकल्याण'' की परिभाषा और इसे पहुंचाने का तरीका तय करती है। यह बिलकुल ऐसा है, जैसे कोई नागरिक मरने तक उपवास कर रहा हो, पर राज्य उसे जबरदस्ती खाना खिला रहा हो।
जब तकनीक जनहित में हो, तो उसे नागरिकों की सहमति के बिना उन पर थोपा जा सकता है, निश्चित तौर पर राज्य ऐसा कर सकता है?
अच्छा और बुरा नागरिक
ऐसी तकनीक लागू करने से एक पुलिस राज्य का निर्माण होता है, जहां नागरिकों को उनकी आपराधिकता के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है। इस तरह उन्हें ''घूमने की आजादी'' जैसे उनके मौलिक अधिकारों से वंचित किया जाता है। राज्य के खिलाफ़ देशभर में हुए प्रदर्शनों में शामिल लोगों के खिलाफ UAPA के तहत थोपे गए मामलों से भी यह स्पष्ट हो जाता है। दरअसल इस वर्गीकरण से दूसरे नागरिकों के सामने ''अच्छे नागरिकों'' की परिभाषा तय हो जाती है और इसे तय करने का अधिकार भी राज्य के पास रहता है।
चीन का सिस्टम पहले से ही मौजूद सिस्टम को दिखाता है। अंतर सिर्फ़ इसकी गुणात्मक मात्रा का है। अब वहां हर किसी को एक सोशल रेटिंग दी जा रही है। इस तरह राज्य हर एक शख्स के ऊपर एक मूल्य रख रहा है। यहां राज्य और बाज़ार एक हो चुके हैं, दोनों का लक्ष्य अधिकतम उत्पादकता से ''मूल्य को पैदा करना'' है। इस तरह राज्य हर प्रतिक्रिया का मौद्रिकरण करना चाहता है और नागरिकों को उनकी उत्पादकता के आधार पर रेटिंग दे रहा है। मतलब हम एक नागरिक के तौर पर कितना उत्पादन करते हैं और सिस्टम में कितना मूल्य जोड़ते हैं।
अगर हम चीन के उदाहरण को मॉडल की तरह देखें, तो पाएंगे कि चीन एक किस्म का ''सोशल मीडिया'' बना रहा है, जहां हर कोई एक दूसरे की जानकारी हासिल कर सकता है। रेटिंग की तुलना कर सकता है। यहां ''आपराधिकता और उत्पादकता'' कम से कम दो ऐसे पैमाने हैं, जिनके आधार पर लोगों को वर्गीकृत किया जा रहा है। कोई कह सकता है कि दोनों पैमाने एक दूसरे के ऊपर से गुजरते हैं, आखिर एक अपराधी ''अच्छा'' नागरिक तो होता नहीं है। इसलिए उसकी कोई उत्पादकता भी नहीं होती और एक उत्पादक नागरिक अपराधी नहीं होता।
यह सब कुछ सोशल क्रेडिट पर जाकर थम जाता है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि भारत में ड्रोन सर्विलांस, सार्वजनिक जगहों पर CCTV कैमरा इंस्टालेशन और वीडियो कैमरा रिकॉर्डिंग की रिपोर्ट आ रही हैं। इन सबमें फेशियल रिकॉग्नीशन तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है। चीन की ही तरह हम भी नागरिकों का उनके क्रियाकलापों के आधार पर वर्गीकरण कर रहे हैं और उन्हें 'सामाजिक अपराधी' घोषित कर रहे हैं, इस तरह हम नागरिकों को गैर संख्यागत सोशल रेटिंग दे रहे हैं। यह क्रेडिट कार्ड कंपनियों द्वारा दिए जाने वाले अच्छे और बुरे क्रेडिट स्कोर की तरह है, जिसमें फेशियल रिकॉग्निशन जैसी तकनीक से सहायता दी जा रही है।
इससे नागरिकों के दो वर्ग बन रहे हैं, अच्छे नागरिक और बुरे नागरिक। इस विभाजन से ''औसत नागरिकों के लिए कोई जगह नहीं बचती।''
तो हमारे पास एक ऐसा निगरानी तंत्र है, जो वर्गीकरण को मजबूत करता है। यह तंत्र वर्गीकरण को ठोस करने वाली सत्ता की तरह काम करता है। यह दो तरह के नागरिकों का विभाजन करता है, अच्छे नागरिक और बुरे नागरिक। इस विभाजन से औसत नागरिकों के लिए कोई जगह नहीं बचती। आप अच्छी रेटिंग वाले अच्छे नागरिक हैं, जो उत्पादक हैं। या फिर आप एक बुरे नागरिक हैं, जो उत्पादक नहीं है, आप ''राष्ट्रविरोधी'' हैं। इससे आगे, अब विरोध प्रदर्शन को ''राष्ट्र विरोधी'' माना जाने लगा है। ''आदतन प्रदर्शनकारियों'' और ''दबंग तत्वों'' को उनकी आपराधिकता की वजह से निशाना बनाया जाने लगा है। ऐसा इसलिए है क्योंकि स्वनियंत्रित और स्वरूपांतरित राज्य ही अब यह तय करता है कि ''कल्याण'' किसे कहा जाता है। हमारे सामने एक ऐसा सामाजिक ढांचा है, जो एक स्पेसशिप की तरह है, जिसके हिस्से एक के बाद एक गिरते जाते हैं, ताकि हमारे सामने एक आदर्श और ''सबसे बेहतरीन'' नागरिक खड़ा किया जा सके।
''ऐसा इसलिए है क्योंकि स्वनियंत्रित और स्वरूपांतरित राज्य ही अब यह तय करता है कि ''कल्याण'' किसे कहा जाता है। हमारे सामने एक ऐसा सामाजिक ढांचा है, जो एक स्पेसशिप की तरह है, जिसके हिस्से एक के बाद एक गिरते जाते हैं, ताकि हमारे सामने एक आदर्श और ''सबसे बेहतरीन'' नागरिक खड़ा किया जा सके।''
अब हमारे पास प्रभावी तरीके से एक पुलिस राज्य है। अब हम प्रभावी ढंग से S3- राज्य (स्टेट) और व्यवस्था की पुलिसिंग कर रहे हैं। पूरे देश से आंकड़े इकट्ठा कर हम एक वास्तविक आंकड़ा का आधार बना सकते हैं। जिसका उपयोग किसी के सभ्य या खराब नागरिक होने को तय करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। इससे नागरिक के तौर पर हमारी साख को सूचीबद्ध करने का रास्ता तय होता है। इस तरह जनव्यवस्था को नियंत्रित कर सरकार का इस पर नियंत्रण रहता है। लेकिन सवाल अब भी बचा रहता है कि आखिर राज्य कौन है- सरकार या फिर नागरिक? क्या शासन करने वाला राज्य है या शासित होने वाला राज्य है? यह सवाल अब अप्रासंगिक होता नज़र आ रहा है क्योंकि दोनों आपस में मिल रहे हैं। यह एक विरोधभास जैसा दिखता है, लेकिन है नहीं।
कुछ नागरिक राज्य का किरदार अदा कर रहे हैं, इसके तहत वे राष्ट्रीय स्वास्थ्य ढांचा बनाने जैसा सार्वजनिक काम कर रहे हैं। लेकिन दूसरे नागरिकों का मत कोई अहमियत ही नहीं रखता। जैसे ही वे अपना नेता चुनते हैं, उनकी सहमति खत्म हो जाती है। लेकिन एक सवाल अब भी बचा है- क्या राज्य एक व्यक्ति है या फिर कोई निराकार संस्था? फ्रेंच कहावत- “L’État, c’est moi” इस बात का उदाहरण है कि कैसे एक व्यक्ति भी राज्य हो सकता है। राज्य एक व्यक्ति में भी परिवर्तित हो सकता है। जहां भी अधिनायकवाद होगा, वहां ऐसा हो सकता है। जैसा भारत के मामले में है, यहां शायद नरेंद्र मोदी राज्य हो सकते हैं।
तो अब हम कहां हैं? मुझे जॉर्ज ऑरवेल के ''एनीमल फॉर्म'' उपन्यास की याद आती है, जिसमें वे भेड़ों, सुअरों और कुत्तों में वर्गीकरण करते हैं। भेड़ एक खराब नागरिक साबित होगी, जो कुत्ते (राज्य) के पीछे लगी रहेगी। जबकि सुअर (अच्छे नागरिक) दावत खाते हैं और कुत्तों के साथ मजे में रहते हैं।
(लेखक राजीव गांधी नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ़ लॉ में अंतिम वर्ष के क़ानून के छात्र हैं। वे तकनीकी क़ानून, नीतिगत क़ानून और संवैधानिक क़ानून में रुझान रखते हैं)
यह उनके निजी विचार हैं।
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