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ग्राउंड रिपोर्ट : अपनों से उपेक्षित बुज़ुर्ग महिलाओं का वृद्धाश्रम ही है सहारा

"सोचती हूं कि हमने क्या ग़लती कि जो अपनी ही संतानों ने हमें यहां फेकवा दिया। आश्रम में आने के बाद एहसास हुआ कि रिश्ते सिर्फ़ मतलब के हो गए हैं। अब हमने सोच लिया है कि वृद्धाश्रम ही हमारा घर है।"
Old age homes

मुन्नी देवी अपना पेट भरने के लिए पहले मिर्जापुर के रेलवे स्टेशन पर भटकती थीं, अब विंध्याचल के वृद्धाश्रम में रह रही हैं। बूढ़ी और कमजोर हो गईं तो अपनों ने ही इन्हें घर से निकाल दिया। लेकिन इसे वह अपनी तकदीर का हिस्सा मानती हैं। उम्र 70 बरस के पार, लेकिन उनके ज़ेहन में बहुत सी बातें उमड़ती-घुमड़ती रहती हैं। वह कहती हैं, "मेरे पास जो कुछ था, अपने इकलौते बेटे को दे दिया। शादी के बाद बहू आई तो दोनों ने यह कहकर हमें घर से निकाल दिया कि तुम बेकार हो गई हो। बेटे-बहू ने लंबे समय से हमारी खोज-ख़बर नहीं ली। फिर भी त्योहार आता है तो बहू-बेटे के लिए हमारी आंखें गीली हो जाती हैं।"

यूपी सरकार ने वृद्ध माता-पिता की देखरेख अनिवार्य कर दिया है, वरना उनके बच्चों को अब गुज़ारा भत्ता देना होगा। इस पर मुन्नी देवी कहती हैं,''मैं सरकार को यह लिखकर दे दूंगी कि उससे पैसा न वसूला जाए। आखिर वो कहां से पैसा भरेगा?'' मुन्नी देवी ने अपनी जिंदगी में इतना ज्यादा दर्द झेला है, जिसका कोई ओर-छोर नहीं है। वह बताती हैं, "शादी के साथ ही पति ने दहेज के लिए हमें सताना शुरू कर दिया। मां-बाप पास जब तक पैसे थे, वो देते गए। एक वक्त वह भी आया जब दहेज के लिए उनके पास भी पैसे नहीं रहे। तब मेरे पति ने धतूरा खाकर जान दे दी। उस वक्त हमारी उम्र 30 बरस थी और मेरे पति की उम्र 40 बरस थी। पति की मौत के बाद बेटा और दो बेटियों की परवरिश आसान नहीं थी। किसी तरह उन्हें बड़ा किया। रिश्तेदारों ने उनकी शादियां कराई। हमें घर से भगाने के बाद हमारा इकलौता बेटा अपनी पत्नी और बच्चों को लेकर ससुराल चला गया। हमारी तरह बेटियों की जिंदगी भी दर्दनाक है। ससुराल वाले उन्हें भी दहेज के लिए सताते हैं और मारते-पीटते हैं। उनकी चिंता हमारी जिंदगी छोटी करती जा रही है। हमें रातों में नींद तक नहीं आती।" यह कहते हुए मुन्नी देवी की आंखों के कोर भीग जाती हैं और बाद में वह रोने लगती हैं।

वाराणसी के ग्रामीण उद्यमिता संस्थान के अधीन संचालित वृद्ध महिला आश्रम साल 2012 में मिर्जापुर के विंध्याचल स्थित पटेगरा नाले के पास खोला गया था। यह आश्रम परोपकार के लिए खोला गया है, ताकि उपेक्षित, निराश्रित और बेसहारा वृद्ध महिलाओं की जिंदगी आसान हो सके। हालांकि यहां रहने वाली हर औरत की जिंदगी झंझावातों से भरी है। जो लोग इन्हें वृद्धाश्रम में छोड़कर जाते हैं, वो वादा तो करते हैं कि मिलने वापस आएंगे, लेकिन वो कभी मुड़कर इन्हें देखने नहीं आते। मरने के बाद भी नहीं। सभी की पीड़ा कमोबेश एक जैसी ही है।

अपनों के इंतजार में टूट गई हैं ये महिलाएं

वृद्धाश्रम में रहने वाली फुलदेयी देवी भावुक होते हुए कहती हैं, "मेरे दो बेटे थे। एक की पत्नी जलकर मर गई। दूसरा बेटा हमें अपने साथ रखना नहीं चाहता। बेटे ने कह दिया घर छोटा है। तुम यहां नहीं रह सकती। तभी से वृद्धाश्रम में रह रही हूं। शायद पिछले जन्म के कुछ बुरे कर्म होंगे, जिसका नतीजा इस जन्म में झेलना पड़ रहा है। अब मैं आश्रम में रहने वाले लोगों को ही अपना परिवार मानती हूं। फिर भी बेटे-बहू और उनके बच्चे हमें बहुत याद आते हैं। मंदिर जाती हूं तो उनकी खुशी के लिए कामना करती हूं। मां हूं, आखिर अपने बेटे-बहू का बुरा कैसे सोच सकती हूं।"

62 वर्षीया हीरावती के पांच बच्चे हैं। तीन बेटे और दो बेटियां। बेटियां ससुराल में हैं। वह कहती हैं, "बेटे बेरोजगार हैं और उसके पास अपना पेट पालने तक के पैसे नहीं हैं, तो वो मुझे क्या रखेंगे? हम इतना जानते हैं कि मेरा नसीब ही खराब है। मेरी जिंदगी के सारे दुख मेरे अपने हैं। हम बेटों को दोषी क्यों मानें? वो हमसे भले ही मिलने नहीं आते, मगर हम हमेशा उनके सुखी जीवन के लिए प्रार्थना करते रहते हैं। आश्रम की महिलाओं को ही हमने अपना परिवार मान लिया है। बाकी जिंदगी यहीं रहते हुए कट जाएगी।"

इलाहाबाद के मांडा इलाके की मुन्नी के दो बेटे हैं और उन्होंने उन्हें घर से निकाल दिया है। उनके दोनों बेटे गिट्टी तोड़वाने का ठेका लेते हैं। काफी कुरेदने पर मुन्नी ने बेटों का नाम बताया। बड़ा बेटा ललित और दूसरा नान्हक। उनके मन का दर्द उनकी की आंखों से झलक पड़ता है। सिसकते हुए मुन्नी बोलीं, "बेटों ने हमारे साथ बुरा किया, लेकिन वो अपने ही तो हैं। अपने बेटों का नाम बताती फिरूंगी तो वो बदनाम हो जाएंगे। इसीलिए मैं उनका नाम बताना नहीं चाहती। आश्रम के कमरे में बैठकर बेटों का बचपन याद कर मुस्कुरा लेती हूं। फिर मौजूदा जिंदगी के बारे में सोचती हूं तो हकीकत खौफनाक नजर आता है।

बेटे बदनाम हो जाएंगे, नाम नहीं बताऊंगी

कुछ इसी तरह की दर्दनाक कहानी लक्ष्मी देवी की भी है। इनके तीन बेटे हैं, लेकिन कोई भी इन्हें अपने साथ रखने के लिए तैयार नहीं है। बेटों का अहित होने की आशंका पर वह पीड़ा से भर जाती हैं। उनकी आंखों में अपनों के साथ नहीं होने का दर्द साफ झलकता है। वह काफी मुश्किल से बात करने के लिए तैयार हुईं। इनकी नजर हमेशा गेट पर लगी रहती है कि बच्चे उनको लेने आएंगे। बेटों के इंतजार में लक्ष्मी बुरी तरह टूट गई हैं। बेटों के बारे में पूछने पर उन्होंने हाथ जोड़ लिए और बोलीं, "मैं अपनी जिंदगी की दर्द भरी दास्तां नहीं सुनाना चाहती। बेटों का नाम लूंगी तो वो बदनाम हो जाएंगे।" बातचीत के दौरान लक्ष्मी की पीड़ा होठों पर आ गई। बोलीं, "बेटों और बहुओं ने कई बार हमारी पिटाई की। अब आश्रम में हूं। यहां अच्छी देखभाल हो रही है। बेघर होने से तो अच्छा है कि जिंदगी यहीं कट जाए।" इतना कहकर लक्ष्मी अपना मुंह दूसरी तरफ फेर लेती हैं और चुप्पी साध लेती हैं।

मिर्जापुर की भगवानी देवी के तीन बेटे-बबलू, दिनेश और महेश हैं। वह कहती हैं, "मेरे पति राजकिशोर चौरसिया पान पकाने के अलावा फेरी लगाकर सामान बेचा करते थे। सात साल पहले उनकी मौत हो गई तो बेटों का नजरिया बदल गया।" आंखों में भर आए आंसू पोंछते हुए भगवानी ने कहा, "मेरे बेटे-बहू रोज मेरी पिटाई करते थे। फिर भी आज हमें उनका इंतजार है। एक बेटे की बहू हमें बहुत मारती-पीटती थी। वह अक्सर कहा करती थी कि तुम्हारे कपड़ों से बदबू आती है। हम आश्रम में आकर रहने लगे तो पता चला कि वो अपने प्रेमी के साथ चली गई और उससे शादी रचा ली। मैं रोज मंदिर जाती हूं और हर पल अपनी मुक्ति की प्रार्थना करती हूं। चाहती हूं कि यहीं खाक होकर गंगा में मिल जाऊं। मैं उन सभी बेटों से गुजारिश करना चाहती हूं कि अगर किसी मां से कोई बड़ी गलती भी हो जाए, तो उनका बेटा उन्हें वो सजा न दे, जो आज हमें मिल रही है।"

पानकली का दर्द भी वृद्धा आश्रम में रहने वाली दूसरी औरतों जैसा ही है। इनके बेटे भी उन्हें अपने साथ नहीं रखना चाहते हैं। बेटों ने कहा दिया है कि घर बहुत छोटा है और तुम नहीं रह सकती। अपने बच्चों की करतूत पर भी उनका कभी भी बुरा नही सोच सकती। वह कहती हैं, "सोचती हूं कि हमने क्या गलती कि जो उन्होंने हमें यहां फेकवा दिया। आश्रम में आने के बाद एहसास हुआ कि रिश्ते सिर्फ मतलब के हो गए हैं। अब हमने सोच लिया है कि वृद्धाश्रम ही हमारा घर है।"

पानकली के पास बैठी एक अन्य वृद्धा रन्नो ने बात काटते हुए कहा,"हम अपने मां-बाप की कितनी इज्जत किया करते थे। उनके सामने बैठने और सवाल-जवाब करने तक की हिम्मत नहीं होती थी। अब बूढ़ों को भला कौन पूछता है? हमारे बेटे तो यह तक कहते हैं, "तुम्हारे घर आने से हम मियां-बीवी में झगड़ा होने लगता है। अब वो साफ-साफ कहते हैं कि मां बेकार हो गई है। बुजुर्ग हो रहे लोगों से हम इतना जरूर कहना चाहेंगे कि अपने मां-बाप को गैर न समझो। इस उम्र में हम कहां जाएंगे? पैसों से ज्यादा हमें अपनों के प्यार और उनके आसपास रहने की दरकार है।"

बुजुर्ग माता-पिता की अनदेखी न करें

15 अगस्त का दिन भले ही देशवासियों के लिए खुशी का राष्ट्रीय पर्व था, लेकिन मिर्जापुर के विंध्याचल स्थित वृद्ध महिला आश्रम में रहने वाली बुजुर्ग औरतों के लिए इस आजादी का कोई मतलब नहीं था। हालांकि आश्रम की सभी औरतों ने झंडा फहराया और राष्ट्रगान भी गाया। इस दौरान बुजुर्ग औरतों की आंखें अपने बच्चों की राह निहारती नजर आईं। स्वतंत्रता दिवस, कार्यक्रम में शरीक होने मिर्जापुर की मुख्य कोषागार अधिकारी अर्चना त्रिपाठी और जिला प्रोवेशन अधिकारी शक्ति त्रिपाठी पहुंची थी। कोषागार महकमे के अफसर और कर्मचारी बुजुर्ग महिलाओं के लिए फल, मिठाई और साड़ियां लेकर आए थे। महिला अफसरों ने एक अच्छी बेटी की तरह आश्रम में रहने वाली बुजुर्ग औरतों के साथ गीत-गवनई की। उनके साथ खाना खाया और उनके साथ काफी वक्त भी गुजारा। आश्रम की औरतें काफी खुश नजर आई।

यूपी का मिर्जापुर ऐसा जिला है जहां कलेक्टर दिव्या मित्तल, मुख्य विकास अधिकारी टी.लक्ष्मी, मुख्य कोषाधिकारी अर्चना त्रिपाठी, डीपीओ शक्ति त्रिपाठी समेत कई अफसर महिलाएं हैं। ये महिलाएं बुजुर्ग औरतों का दर्द अच्छी तरह समझती हैं। इन्हें जब भी मौका मिलता है, उनसे मिलने विंध्याचल चली आती हैं।

वृद्ध महिला आश्रम से लौटते वक्त मुख्य कोषागार अधिकारी अर्चना त्रिपाठी की आंखें भर आईं। वो काफी देर तक बुजुर्ग औरतों के साथ रहीं और उन्हें ढांढस दिलाती रहीं। उन्होंने आश्रम में रहने वाली औरतों को भरोसा दिलाया कि जब भी वक्त मिलेगा वह उनसे मिलने जरूर आएंगी। ‘न्यूजक्लिक’से बातचीत में अर्चना ने कहा, "भारतीय संस्कृति सिखाती है कि अपने से बड़ों की इज्जत करो और उनका कहना मानो। किसी अच्छे कार्य को करने से पहले अथवा बाहर सफर करने से पहले बुजुर्गों का आशीर्वाद लेना हमारी परंपरा रही है। अब सब कुछ बदलता जा रहा है। बहुत सारी संतानें अपने बूढ़े माता-पिता को अपने साथ रखने की जगह वृद्धाश्रम भेज रहे हैं। हालांकि भारतीय समाज में इस कुरीति की हमेशा निंदा की गई है। बहुत से लोगों के पास अपने बूढ़े मां-बाप के लिए समय नहीं है। वो अपने फैसले खुद लेने में ज्यादा यकीन रखते हैं, जिसके चलते रिश्ते दरकते जा रहे हैं। आज़ादी के नाम पर मां-बाप के साथ रहना बहुत से लोगों को बुरा लगने लगा है।"

"प्राइवेसी और ‘मेरी लाइफ’ के नाम पर माता-पिता उन्हीं बच्चों की आंखों में खटकने लगते हैं जो कभी उनकी आंखों के तारा हुआ करते थे। कितनी गैरत की बात है कि बुजुर्ग माता-पिता को जब ख्याल रखने वाले अपनों की जरूरत होती है तो उन्हें अकेला छोड़ देते हैं। अनजान लोगों के बीच रहना और उनके साथ नए रिश्ते बनाना किसी चुनौती से कम नहीं होता। अपनों के बगैर जीवन गुजारना कितना कठिन होता है, यह इस वृद्ध महिला आश्रम में आने के बाद पता चलता है। सिर्फ कलयुगी बेटे ही नहीं, कुछ बेटियां भी अपने माता-पिता को अब बोझ समझने लगी हैं।"

मिर्जापुर की जिला प्रोवेशन अधिकारी शक्ति त्रिपाठी ने ‘न्यूजक्लिक’ से कहा, "यूनाइटेड नेशन वर्ल्ड पापुलेशन एजिंग की रिपोर्ट के अनुसार आगामी कुछ सालों में भारत में बुजुर्गें की तादाद बहुत तेजी से बढ़ेगी। अभी इनकी कुल आबादी का आठ फीसदी है जो साल 2050 में बढ़कर30 फीसदी होने का अनुमान है। बुजुर्ग लोगों की तादाद चाहे जितनी भी बढ़ जाए, वो समाज के लिए कीमती संपत्ति की तरह हैं, बोझ की तरह नहीं। इस संपत्ति का लाभ उठाने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि उन्हें वृद्धाश्रमों की बजाय मुख्यधारा में आत्मसात किया जाए ताकि समाज और नई पीढ़ी उनके अनुभवों का लाभ उठा सके।"

आश्रम में सिर्फ दलित-पिछड़ी महिलाएं

विंध्याचल के महिला वृद्ध आश्रम के प्रबंधक शकल नारायण मौर्य वृद्ध महिलाओं के साथ बैठकर उनका दुख-दर्द सुनते और समझते मिले। विंध्याचल का यह आश्रम गैर-सरकारी है। दो बड़े हाल में बुजुर्ग माताएं एक साथ रहती हैं और एक-दूसरे का दुख-दर्द बांटती हैं। शकल नारायण कहते हैं, "जिंदगी के आखिरी पड़ाव पर पहुंच चुकी 44 माताएं यहां रह रही हैं, जिनमें अधिसंख्य पिछड़ी और दलित जातियों की हैं। यहां 11 बुजुर्ग माताएं कोल और मुसहर समुदाय की हैं। हमने थोड़ी कोशिश की तो 40 औरतों को वृद्धावस्था पेंशन मिलने लगी। आश्रम की बाकी औरतों के लिए पाकेट मनी का इंतजाम भी हम करते हैं। हाल के दिनों में उन 16 महिलाओं की आंखों का मोतियाबिंद आपरेशन कराया, जो कुछ भी देख पाने की स्थिति में नहीं थीं। हम वृद्ध माताओं को घर जैसा वातावरण देने का प्रयास करते हैं। उनके लिए डॉक्टर की व्यवस्था है। इनके मनोरंजन का भी खयाल रखते हैं। जब वृद्ध महिलाओं की जिंदगी की डोर टूट जाती है तो बेटे की तरह हमीं उन्हें कंधा देते हैं और गंगा के किनारे उनका अंतिम संस्कार भी करते हैं।"

एक्टिविस्ट मौर्य यह भी कहते हैं, "हमारी कोशिश रहती है कि हम बुजुर्ग माताओं को कुछ वक्त के लिए उनके चेहरों पर मुस्कान ला सकें और उनकी तकलीफों से मिटा सकें। घर में एक मां ही होती है जो कभी प्यार करती है तो कभी डांटती है। इस आश्रम में न जाने कितनी मां हैं जो कभी डांटती नहीं। इस डर से कि कहीं हम आना बंद न कर दें। मिर्जापुर में सभी को पता है कि विंध्याचल के इस वृद्धाश्रम में वो औरतें रहती हैं जिनका इस दुनिया में कोई नहीं है। यहां बहुत से ऐसे लोग आते हैं जिनकी जिंदगी में किसी बड़े-बूढ़े का साया नहीं होता। बुजुर्गों का प्यार ढूंढ रहे लोग यहां इनके पास आ जाते हैं, ताकि इन माताओं में अपने बड़ों को ढूंढ सकें। साथ ही अपनी और उनकी जिंदगी का अधूरापन दूर कर सकें।"

हेल्पलाइन-4567 पर दें जानकारी

उत्तर प्रदेश के समाज कल्याण राज्य मंत्री असीम अरुण ने सूबे की जनता से निराश्रित बुजुर्गों की सहायता करने की अपील की है। साथ ही यह भी कहा है कि यदि किसी की नजर में ऐसे बुजुर्ग हैं तो समाज कल्याण विभाग के हेल्पलाइन नंबर4567 पर जानकारी दे सकते हैं। ऐसे लोगों की देखभाल सरकार करेगी। वह कहते हैं, "आए दिन हमारे पास शिकायतें आती हैं कि बेटे-बहू, मां-बाप की अनदेखी कर रहे हैं तो बहुत तक़लीफ़ होती है। बेसहारा बुजुर्गों की सुरक्षा, स्वास्थ्य और सम्मान के लिए सूबे में 75 वृद्धाश्रम खोले गए हैं,जहां 11,250निराश्रित बुजुर्गों के रहने की व्यवस्था है। वहां लाचार बुजुर्गों को छत, भोजन, कपड़ा,औषधि के अलावा समाज में सम्मानजनक जीवन देने की कोशिश की जा रही है। सरकार का यह कदम न सिर्फ संवेदना का सशक्त पुल साबित हो रहा है, बल्कि इससे जुड़कर सूचना देने वाले सचेत नागरिक खुशियां साझा कर रहे हैं।''

बुजुर्ग महिलाओं की जिंदगी में खुशहाली का रंग भरने वाले डा.आरपी सिंह अक्सर विंध्याचल जाते हैं। वह रेलवे अस्पताल के मुख्य चिकित्साधिकारी के पद से रिटायर हुए हैं। वह न्यूजक्लिक से बातचीत में कहते हैं, "वृद्धाश्रम का अस्तित्व हमारे लिए बेहद शर्मनाक है। यह हमारे संस्कारों में चूक का नतीजा है लेकिन इसके अस्तित्व को स्वीकार करना हमारी विवशता है। आज तिरस्कार, घृणा, बैर, लालच का बोलबाला है। जिन्होंने ऊंगली पकड़कर बच्चों को चलना सिखाया उनका ही तिरस्कार हो रहा है। बुजुर्गों के गरिमा भरे जीवन को सुनिश्चित करने के लिए तमाम कानूनी प्रावधान किए गए हैं। कभी-कभार लोकलाज के भय और कभी जागरुकता की कमी की वजह से बुजुर्ग अपने ही संतान की प्रताड़ना सहने को मजबूर होते हैं। अगर आप बुजुर्ग हैं और आपकी संतान आपकी देखभाल नहीं कर रही तो आपको कानून का सहारा लेना चाहिए। अगर आप अपने आस-पास किसी बुजुर्ग को प्रताड़ित होते देख रहे हैं तो इन कानूनी रास्तों से उसे इंसाफ दिला सकते हैं।"

मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में बुजुर्गों की आबादी लगातार बढ़ती जा रही है। साल 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में बुजुर्गों की तादाद 7.7 करोड़ थी, जो कुल आबादी की करीब 7.5 फीसद थी। इनकी तादाद समय के साथ और बढ़ी है। मिनिस्ट्री ऑफ सोशल जस्टिस एंड एंपावरमेंट के एनुअल एक्शन प्लान (2022-23) के अनुसार,2021 में देश में बुजुर्गों की आबादी करीब 14 करोड़ थी, यानी आबादी में उनकी हिस्सेदारी 10 फीसदी से ज्यादा है।

बुजुर्गों की उपेक्षा पर सजा

मिर्जापुर के वरिष्ठ अधिवक्ता अमित कुमार जायसवाल कहते हैं, "मैंटिनेंस ऐंड वेल्फेयर ऑफ पैरेंट्स ऐंड सीनियर सिटिजंस एक्ट के मुताबिक, बेटों अथवा रिश्तेदारों के लिए बुजुर्गों की देखभाल, उनकी सेहत, इलाज, रहने-खाने जैसी बुनियादी जरूरतों की व्यवस्था करना अनिवार्य किया गया है। अगर बच्चे या रिश्तेदार अपनी ये जिम्मेदारी नहीं निभा रहे हैं तो उनके लिए सजा का भी प्रावधान है। दोषियों को तीन महीने की जेल अथवा 5000 रुपये तक का जुर्माना या दोनों सजा हो सकती है। आमतौर पर देखा जाता है कि संपत्ति हस्तांतरित होते ही रिश्तेदारों का रवैया बदल जाता है। लेकिन अगर कोई बुजुर्ग अपनी संपत्ति बच्चों या रिश्तेदार के नाम ट्रांसफर कर चुका हो और वो अब उसकी देखभाल नहीं कर रहे तो प्रॉपर्टी का ट्रांसफर भी रद्द हो सकता है। यानी संपत्ति फिर से उसी बुजुर्ग के नाम हो जाएगी, जिसने उसे ट्रांसफर किया था। इसके बाद वह चाहे तो अपने बेटे, बेटियों को संपत्ति से बेदखल भी कर सकता है।"

"मैंटिनेंस एंड वेल्फेयर ऑफ पैरेंट्स ऐंड सीनियर सिटिजंस एक्ट के तहत किसी बुजुर्ग ने अपनी जायदाद को बच्चों या रिश्तेदारों के नाम किया है, गिफ्ट के तौर पर या किसी भी अन्य वैध तरीके से तो जिनके नाम संपत्ति की गई है, उनकी जिम्मेदारी है कि वे बुजुर्ग की बुनियादी जरूरतों का खयाल रखें। उनकी देखभाल करें। अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो भी प्रॉपर्टी ट्रांसफर रद्द हो सकता है। बुजुर्गों के लिए कानून का यह प्रावधान बहुत ही राहत वाला है। वो बुजुर्ग माता-पिता जो अपनी आय या संपत्ति के जरिए अपना गुजारा करने में सक्षम नहीं हैं और उनके बच्चे या रिश्तेदार उनका ध्यान नहीं रख रहे तो वे भरण-पोषण का दावा कर सकते हैं।"

अधिवक्ता अमित यह भी कहते हैं, "भरण-पोषण के आदेश का एक महीने के भीतर पालन करना अनिवार्य है। साठ साल से अधिक उम्र के ऐसे बुजुर्ग जिनकी कोई संतान न हो, वे भी अपने अपनी संपत्ति के उत्तराधिकारियों से भरण-पोषण की मांग कर सकते हैं। कानून में ऐसे मामलों की सुनवाई के लिए मैंटिनेंस ट्राइब्यूनल और अपीलेट ट्राइब्यूनल का प्रावधान किया गया है। देश के ज्यादातर जिलों में ऐसे ट्राइब्यूनल हैं। बुजुर्ग से शिकायत मिलने के बाद ट्राइब्यूनल को 90 दिनों के भीतर उसका निपटारा करना होता है। ट्राइब्यूनल के फैसले से संतुष्ट नहीं होने पर बुजुर्ग उसे अपीलेट ट्राइब्यूनल में चुनौती भी दे सकता है।"

"बेटे-बेटी के साथ-साथ बालिग पोते-पोतियों की भी यह जिम्मेदारी है कि वो बुजुर्गों का खयाल रखें। ये बेटे-बेटी चाहें बुजुर्ग की जैविक संतान हों या फिर सौतेली या फिर गोद ली हुईं, उन सब पर ये लागू होता है। उनकी जिम्मेदारी बनती है कि वह माता-पिता के लिए उचित भोजन,कपड़े,आवास, इलाज आदि जैसी बुनियादी जरूरतों को पूरा करें। माता-पिता और वरिष्ठ नागरिक देखभाल एवं कल्याण कानून 2007'के अलावा सीआरपीसी में भी बुजुर्गों के अधिकारों की रक्षा के प्रावधान हैं। सीआरपीसी की धारा 125 (1) (डी) और हिंदू अडॉप्शन ऐंड मैंटिनेंस एक्ट 1956 की धारा 20 (1 और 3) के तहत भी मां-बाप अपनी संतान से भरण-पोषण के हकदार हैं। सीआरपीसी की धारा 125 (1) के मुताबिक अगर संतानें अपने माता-पिता की देखभाल नहीं कर रही हैं तो प्रथम श्रेणी का मजिस्ट्रेट उन्हें भरण-पोषण देने का आदेश दे सकता है।"

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