कल्याणकारी ख़र्चों को पलटता पूंजीवाद

विश्व युद्ध के फौरन बाद, जब पूंजीवाद के सामने गंभीर अस्तित्वगत संकट आ खड़ा हुआ था, उसने इस संकट से निपटने के लिए एक दुहरी रणनीति अपनायी थी। इस रणनीति का पहला पक्ष यह था कि ‘‘लाल रंग का डर’’ (red scare) फैलाया गया, जिसका कोई औचित्य था ही नहीं। इसका मकसद घरेलू मजदूर वर्ग को आतंकित करना था, ताकि पूंजीवादी व्यवस्था के लिए उससे हामी भरवायी जा सके।
दूसरा पक्ष यह था कि उसे अपनी कार्यप्रणाली में समायोजन करने पड़े थे, जिनमें से चार खासतौर पर ध्यान देने वाले हैं।
ये हैं– औपचारिक राजनीतिक निरुपनिवेशीकरण (formal political decolonisation,), सार्वभौम वयस्क मताधिकार पर आधारित जनतांत्रिक शासन लाना, आम बेरोजगारी को मिटाने के लिए केन्सवादी ‘‘मांग प्रबंधन’’ को स्वीकार करना और हर जगह तथा खासतौर पर पश्चिमी यूरोप में, कल्याणकारी राज्य के कदमों को अपनाना।
ये बदलाव इतने महत्वपूर्ण थे कि यह छवि ही बन गयी कि ‘‘पूंजीवाद बदल गया है’’, कि यह अब वह पुराना लुटेरा पूंजीवाद नहीं रहा है, जो पहले हुआ करता था बल्कि एक नया ‘‘कल्याणकारी पूंजीवाद’’ हो गया है।
इसके बाद आए लंबे युद्धोत्तर उछाल के दौरान जब वित्तीय पूंजी ने ताकत हासिल कर ली और जब वित्तीय पूंजी वैश्विक हो गयी, जिसने राष्ट्र-राज्य की स्वायत्तता का क्षय होने का और हर जगह नव-उदारवादी निजाम थोपे जाने का रास्ता तैयार कर दिया, उक्त युद्धोत्तर कदमों को वैसे भी पलटा जा रहा था।
बहरहाल, इस पलटे जाने ने अब एक अभूतपूर्व गति हासिल कर ली है। महानगरीय पूंजीवाद की मदद से, फिलिस्तीनियों पर जिस तरह का खुल्लमखुल्ला नरसंहार हो रहा है, अपनी नृशंसता में अगर औपनिवेशिक दौर से ज्यादा नहीं भी है, तब कम भी नहीं है। नव-फासीवाद के उभार और पूंजीवादी तानाशाही के उभार ने, जनता को उपलब्ध जनतांत्रिक अवकाश को सिकोड़ दिया है।
वैश्वीकृत वित्त के वर्चस्व के चलते, विश्व पूंजीवाद के आर्थिक संकट का अब केन्सवादी मांग प्रबंधन से उपचार नहीं किया जा सकता है। और अब मुसलसल इसकी कोशिश और हो रही है कि हर जगह कल्याणकारी खर्चों को पलटा जाए और इससे बचने वाले संसाधनों का उपयोग, पूंजीपतियों के हक में वित्तीय हस्तांतरण करने के लिए और सैन्य खर्चे बढ़ाने के लिए किया जाए।
कल्याणकारी ख़र्चों पर हमला
डोनाल्ड ट्रंप का ‘‘बिग ब्यूटीफुल बिल’’, जो अमेरिका में दोनों सदनों में पारित हो चुका है और अब कानून बन गया है, कल्याणकारी खर्चों पर बहुत भारी हमला है। कांग्रेसियोनल बजट ऑफिस के अनुसार, जो अमेरिकी सरकार से स्वतंत्र रूप से आकलन करता है, यह विधेयक अगले दस वर्षों में कुल मिलाकर 4.5 ट्रिलियन डालर (45 खरब डालर) मूल्य की कर रियायतें देने जा रहा है। और इन कर रियायतों के मुख्य लाभार्थी धनिक वर्ग के लोग होंगे। इसके अलावा, सैन्य खर्चे कुल मिलाकर 150 अरब डालर बढ़ जाने वाले हैं और ‘‘सीमा सुरक्षा’’ (यानी प्रवासियों को देश की सीमाओं से बाहर ही रखने) पर खर्चों में 129 अरब डालर की बढ़ोतरी होने जा रही है। इन सारे खर्चों की पूर्ति की जाएगी, मेडिकएड में 930 अरब डालर की कटौती से, हरित ऊर्जा में 488 अरब डालर की कटौती से और भोजन सहायता में 287 अरब डालर की कटौती से।
मेडिकएड वह कार्यक्रम है, जो अमेरिकी समाज के सबसे कमजोर तबकों की मदद के लिए है, जैसे बुजुर्ग, गरीब और विकलांग। इस कार्यक्रम में कटौती करना, जो कि यह बिल करता है, समाज के सबसे लाचार तबकों पर चोट करना है। ट्रंप का ‘‘बिग ब्यूटीफुल बिल’’ बड़ी नंगई के साथ, सबसे कमजोर तबकों से लाभ छीनकर, सबसे धनी तबकों के हाथों में हस्तांतरित कर देता है।
बेशक, जो कर रियायतें दी जा रही हैं, खर्चों में पीछे जिन कटौतियों का जिक्र किया गया है, उनसे भी कहीं बड़ी हैं। इसके चलते, अमेरिका में राजकोषीय घाटा अगले एक दशक में सब मिलाकर 3.4 ट्रिलियन (34 खरब) डालर बढ़ने जा रहा है। संक्षेप में यह कि अमेरिकी सरकार, खुद कर्जा भी ले रही होगी और अपने कल्याणकारी खर्चों में कटौतियां भी कर रही होगी, और यह सब सिर्फ इसलिए ताकि अमेरिकी धनिकों के हाथों में और संपदा दे सके। इसे अर्थव्यवस्था में नयी जान डालने के नाम पर सही ठहराने की कोशिश की जा रही है। लेकिन, अगर अर्थव्यवस्था में नये प्राण फूंकना ही मकसद होता, तो सरकार को कर्ज ली जाने वाली रकम सीधे खुद ही खर्च करनी चाहिए थी। लेकिन, ऐसा करने के बजाए वह तो यह सारी क्रय शक्ति अमीरों के ही हाथों में देने जा रही है। अर्थव्यवस्था को उत्पे्ररित करने के लिहाज से इसका असर बहुत ही मामूली होगा। यह तो धनिकों की संपदा में मुफ्त में इजाफा करने जैसा ही है।
राजकोषीय घाटे के मामले में अमेरिका अपवाद क्यों है?
यहां एक सवाल उठ खड़ा होता है। वित्तीय पूंजी, राजकोषीय घाटे के बढ़ने को नापसंद करती है। जब अमीरों के हाथों में हस्तांतरणों की वित्त व्यवस्था के लिए ही राजकोषीय घाटे बढ़ाए जा रहे हों, तब भी वित्तीय पूंजी इन राजकोषीय घाटों को पसंद नहीं करती है। वास्तव में ब्रिटेन की प्रधानमंत्री रहीं लिज ट्रस ने यही तो करने की कोशिश की थी। लेकिन, उनके कार्यक्रम के लिए वित्त व्यवस्था पर विरोध इतना ज्यादा था कि पाउंड स्टर्लिंग का मूल्य गिर गया और लिज ट्रस को इस्तीफा ही देना पड़ गया। इस प्रक्रिया में वह ब्रिटेन के पूरे इतिहास की सबसे कम अवधि की प्रधानमंत्री बन गयीं, जिनका कार्यकाल 50 दिन से ज्यादा का नहीं रहा था। तब वित्तीय पूंजी ने डोनाल्ड ट्रंप को इसकी इजाजत कैसे दे दी कि अमीरों के लिए हस्तांतरण बढ़ाने के लिए, ज्यादा कर्ज उठा लें?
बेशक, यह अब भी साफ नहीं है कि क्या ट्रंप वाकई राजकोषीय घाटे में बढ़ोतरी को चलाने कामयाब हो गया है? यानी यह प्रश्न अब भी अपनी जगह है कि क्या वित्तीय पूंजी उसे, राजकोषीय घाटे में और कटौती करने के लिए मजबूर नहीं कर देगी और कोई जरूरी नहीं है कि वह ऐसा अमीरों की ओर हस्तांतरणों में कमी करने के जरिए करे बल्कि वित्तीय पूंजी, कल्याणकारी खर्चों में और ज्यादा कटौतियां कराने के जरिए भी तो ऐसा कर सकती है। वैसे भी ट्रंप के पास कुछ गुंजाइश है, जो इस तथ्य से जुड़ी हुई है कि आज अमेरिकी डालर की जो हैसियत है, ब्रिटिश पाउंड स्टर्लिंग की हैसियत से काफी भिन्न है। दुनिया के संपत्तिधारी अब भी डालर को करीब-करीब ‘सोने जैसा खरा’ मानते हैं और इसकी संभावना नहीं है कि ट्रंप के राजकोषीय घाटा बढ़ाने से, वे डालर को छोडक़र और किसी मुद्रा को अपना लेंगे। यह ऐसी गुंजाइश है जो लिज ट्रस को उस समय उपलब्ध नहीं थी, जब उन्होंने ब्रिटिश अमीरों के पक्ष में घाटे की वित्त व्यवस्था के बल पर हस्तांतरण करने की अपनी कुख्यात योजना को लागू करना चाहा था।
बढ़ते सैन्य ख़र्चे और कल्याणकारी खर्चों में कटौती
कल्याणकारी खर्चों में इस समय अमेरिका में जो कटौती हो रही है, उसका जल्द ही पूरी विकसित पूंजीवादी दुनिया में ऐसी ही कटौतियों से अनुसरण किया जाएगा। 24-25 जून को हेग में हुए नाटो के शिखर सम्मेलन में यह फैसला लिया गया था कि नाटो के सभी सदस्य देश 2035 तक सैन्य खर्चा बढ़ाकर जीडीपी का 5 फीसद कर देंगे। वर्तमान खर्चा जीडीपी के 2 फीसद के करीब है और कई देशों में तो उतना भी नहीं है।
दूसरे शब्दों में नाटो के देश, खासतौर पर यूरोप के देश, एक दशक के अंदर अपने सैन्य खर्च को 2 फीसद से बढ़ाकर 5 फीसद करने की योजना बना रहे हैं।
अब, नाटो के अन्य देशों की मुद्राओं की हैसियत, अमेरिकी डालर की जैसी तो है नहीं। इसलिए, वे वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी की इच्छा के खिलाफ जाकर, अपने जीडीपी के अनुपात के रूप में राजकोषीय घाटा बढ़ा नहीं सकते हैं। इसके अलावा नाटो के ज्यादातर यूरोपीय सदस्य, जो कि यूरोपीय यूनियन के सदस्य हैं, वैधानिक रूप से इस शर्त से बंधे हुए हैं कि वे अपने राजकोषीय घाटे को अपने जीडीपी के 3 फीसद से ऊपर नहीं ले जा सकते हैं और राजकोषीय घाटे इस समय वैसे भी कमोबेश इसी स्तर पर हैं। अब, वित्तीय पूंजी की इच्छाओं की ही खातिर अमीरों पर कर लगाने का रास्ता बंद है, इसका अर्थ यह हुआ कि सैन्य खर्चों में उक्त बढ़ोतरी इन देशों के मेहनतकशों की कीमत पर ही की जाएगी। यह या तो मजदूरों पर ज्यादा कर लादने के जरिए किया जा सकता है या फिर कल्याणकारी खर्चों में कटौतियों के जरिए किया जाएगा।
लुटेरे पूंजीवाद के दिनों की वापसी
मजदूरों पर बोझ बढ़ाने के उक्त दो वैकल्पिक रास्तों में से, जाहिर है कि कल्याणकारी खर्चों में कटौती का उपाय कहीं ज्यादा आसानी से आजमाया जा सकता है। वैसे इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता है कि इनमें से कौन सा उपाय अपनाया जाता है क्योंकि दोनों ही सूरतों में मजदूरों के जीवन स्तर में गिरावट हो रही होगी। मजदूरों पर जीडीपी के 3 फीसद के बराबर अतिरिक्त बोझ डाला जाना, बहुत भारी बोझ डाला जाना होगा। संक्षेप में यह कि नाटो देशों ने साफ-साफ शब्दों में इसका नोटिस दे दिया है कि आधिकारिक रूप से भी, तथाकथित ‘‘कल्याणकारी पूंजीवाद’’ के दिन अब जा चुके हैं और दुनिया ‘‘लुटेरे पूंजीवाद’’ के दिनों पर लौट आयी है।
नाटो देशों ने अपने सैन्य खर्चे बढ़ाना क्यों तय किया है? जाहिर है कि इसके संबंध में पश्चिमी यूरोप के लिए, रूसी खतरे की जानी-पहचानी दुहाई का सहारा लिया जाएगा। लेकिन, जब तथाकथित सोवियत खतरा अपने शीर्ष पर था, जिसका सहारा शीत युद्ध को सही ठहराने के लिए किया जाता था, तब भी कभी इतने ज्यादा सैन्य खर्चे नहीं देखे गए थे। इसके अलावा, आज भी रूस का सालाना सैन्य खर्चा, नाटो के यूरोपीय सदस्यों के ही कुल सालाना सैन्य खर्च के तिहाई से भी कम है, अमेरिका खर्च तो इसमें शामिल भी नहीं है। इसलिए, ‘‘रूसी खतरे’’ की बात तो बस एक आवरण है। नाटो के देशों ने जो उल्लेखनीय रूप से बढ़े हुए सैन्य खर्चों की वचनबद्धता अपनायी है, इसकी आकांक्षा से प्रेरित है कि ढहती हुई पश्चिमी सामराजी व्यवस्था को, ऐसे सभी देशों के खिलाफ ताकत का इस्तेमाल करने के जरिए बचाया जाए, जो उसकी नजरों में इस व्यवस्था के लिए चुनौती पेश कर सकते हैं। ईरान पर बमबारी, इसी इच्छा से संचालित थी। आने वाले वर्षों में ऐसे आक्रमण की अनेक मिसालें देखने को मिलने की संभावना है।
इस तरह की आक्रामकता की तैयारी करने के लिए ही, विकसित देशों के मजदूरों को, अब तक उन्हें जो भी कल्याणकारी उपाय हासिल रहे थे, उनका त्याग करने के लिए मजबूर किया जा रहा है। बहरहाल, ढहता हुआ साम्राज्यवाद बहुत ही खतरनाक होता है क्योंकि यह दुनिया को सर्वनाश में धकेलने में पूरी तरह से समर्थ होता है। ईरान के नाभिकीय ठिकानों पर बमबारी का अंधाधुंधपना, इसी की गवाही देता है। इसलिए, साम्राज्यवाद की इस अंधाधुंधी का प्रतिरोध करने के लिए दुनिया भर में जनता की जागरूकता बढ़ाना, एकदम अपरिहार्य हो जाता है।
(लेखक दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आर्थिक अध्ययन एवं योजना केंद्र में प्रोफ़ेसर एमेरिटस हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें–
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।