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ग्रामीण बिहार में लॉकडाउन: सोशल डिस्टेंसिंग तो नहीं, मगर सामाजिक दरार ज़रूर बढ़ गयी है

COVID-19 से त्रस्त ग्रामीण, मुसलमानों के ख़िलाफ़ अपना ग़ुस्सा निकाल रहे हैं। इन सबके बीच, हमेशा की तरह सरकार की मौजूदगी कहीं नहीं दिख रही।
ग्रामीण बिहार

दो हफ़्ते के राष्ट्रीय लॉकडाउन के दौरान बिहार के मुज़फ़्फ़ररपुर ज़िले के तुरकौलिया गांव में अजीब और दुखद घटनाओं की एक श्रृंखला चल पड़ी है। यहां के लोग बाहरी लोगों को देखकर, यहां तक कि उनकी खांसी और छींक का पता लगते ही अपना होश खो बैठते हैं। उन्हें यह तो पता है कि उन्हें सोशल डिस्टेंसिंग बनाये रखने की ज़रूरत है, लेकिन यह नहीं पता कि इस शब्द के मायने क्या हैं, क्योंकि वे जैसे ही सब्ज़ी बाज़ार में दाखिल होते हैं, उन पर पुलिस लाठीचार्ज करने लगती है। बिहार के इन हिस्सों में इस तरह जो कुछ हो रहा है, यहां की ज़िंदगी में इससे पहले ऐसा कभी नहीं था। लेकिन , COVID-19 और लॉकडाउन के बाद से टीवी पर तब्लीग़ी जमात की घातक वायरस को फैलाने की भूमिका को लेकर जैसे-जैसे ख़बरें आने लगीं हैं, उनमें से कई के लिए इस कोरोनवायरस का चेहरा मुस्लिम बन गया है।

चूंकि कुछ लोगों के पास ही मास्क और सैनिटाइटर हैं, इसलिए इस वायरस के ख़िलाफ़ उनकी सुरक्षा का एकमात्र रूप पागलपन भरा संदेह है। जैसे ही बुखार के साथ कोई खांसता, छींकता या बीमार जैसा दिखाई देता है, वैसे ही ग्रामीण "कोरोनोवायरस-संक्रमित रोगियों" की चेतावनी देने के लिए अपने मुखिया या दूसरे अधिकारियों को फ़ोन करना शुरू कर देते हैं। चिकित्सा सेवा के अभाव में मुखिया को भी पता नहीं होता है कि आख़िर क्या किया जाये।

यह साल का वह समय है, जब ठंड और बुखार आम तौर लोगों को हो ही जाता है। लेकिन, ये दिन कोरोनोवायरस के भी हैं, इसलिए ये लक्षण कोरोनावायरस के ग्रस्त होने के सुबूत भी बना दिये जाते हैं, जिसे रोके जाने की ज़रूरत है। ऐसे में वे सीधे मेडिकल स्टोर का रूख़ कर लेते हैं। यही वजह है कि खांसी की दवाई और पैरासिटामोल इस समय जितने बिक रहे हैं, इससे पहले इस तरह कभी नहीं बिके।

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तुरकौलिया में उस समय अफ़रा-तफ़री मच गयी, जब लगभग 250 प्रवासी श्रमिक शहरों से इस गांव में पहुंचे। इस गांव में असल में मुज़फ़्फ़ररपुर की तीन पंचायतें हैं। लोगों को लगा कि ये लोग अपने साथ ख़तरनाक वायरस भी ले आये हैं। तुरकौलिया गांव के एक हिस्से में पड़ने वाली कमालपुरा पंचायत समिति के सदस्य असग़र अली कहते हैं, '' मेरी पंचायत में COVID-19 के कोई पुष्ट मामले नहीं हैं” । वह आगे कहते हैं, "लेकिन ऐसा इसलिए भी है, क्योंकि कोरोना के लिए शायद ही किसी प्रवासी का परीक्षण किया गया हो। जब कोई परीक्षण ही नहीं हुआ है, तो हम कैसे जान सकते हैं कि कौन बीमार है और कौन नहीं है।”

असग़र अली की यह बात COVID-19 पर अनगिनत तादाद में चल रहे किसी टॉक शो की कोई लाइन की तरह लगती है। यहां तक कि केंद्र सरकार को भी संदेह है, यहां संदेह जताया जा रहा है कि जो शहरों से पलायन करके यहां आ गये हैं, उनमें से एक तिहाई इस वायरस के वाहक हो सकते हैं।

तुरकौलिया गांव के उत्तरी भाग की दातापुर पंचायत समिति के मुखिया, चितानंद द्विवेदी कहते हैं, "हम सिर्फ नहीं जानने के तनाव से छुटकारा चाहते हैं। अगर परीक्षण में कोई पॉज़िटिव पाया जाता है, तो सरकार को उसका इलाज करवाना चाहिए, और यदि कोई निगेटिव पाया जाता है, तो सब ठीक हो जायेगा।”  क्योंकि प्रवासियों का परीक्षण नहीं किया गया है, इसलिए लोगों में इस बात का डर है कि आने वाला समय उनके लिए भयानक है। द्विवेदी कहते हैं, "यह शक लॉकडाउन से सौ गुना बदतर है।" कोरोनोवायरस को फैलने से रोकने के दबाव में आकर द्विवेदी बाहर से आये लोगों या प्रवासियों के ख़िलाफ़ अपना ग़ुस्सा निकालते हैं।

द्विवेदी कहते हैं, "जो लोग बाहर से आये हैं, उन्हें अपने परिवार से भी दूर रहना चाहिए, लेकिन कई लोग इस सोशल डिस्टेंसिंग का उल्लंघन कर रहे हैं।"

पड़ोसी पंचायतों के मुखिया “माइक से ऐलान कर रहे हैं।” वे लाउडस्पीकरों के साथ घूम रहे हैं और हाथ धोने के बारे में लोगों को जानकारी दे रहे हैं कि कैसे रूमाल में छींकना चाहिए और आसपास भीड़ इकट्ठा नहीं होना चाहिए।

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द्विवेदी कहते हैं, “मैं अपनी हथेली पर अपनी जान लेकर घूम रहा हूं। हमारे पास एक छोटा सा स्वास्थ्य केंद्र है, लेकिन इसमें डॉक्टर नहीं हैं। उन्होंने वास्तव में एक डॉक्टर की नियुक्ति तो की थी, लेकिन क्या इस समय कोई उन्हें काम करने के लिए मजबूर कर सकता है ?” यह मुखिया मास्क तो नहीं पहनते हैं, लेकिन वह अपने चेहरे को ढंकने के लिए अपने गमछा का उपयोग ज़रूर करते हैं।

बहादुरी के साथ सरहद की हिफ़ाज़त में लगे किसी सैनिक की तरह वे बताते है: “अगर मैं डर के मारे दम तोड़ दूं, तो अराजकता फैल जायेगी। लेकिन अराजकता तो पहले से ही है, फ़र्क इतना ही है कि राज्य सरकार और केंद्र ने इसे अभी तक स्वीकार नहीं किया है। मिसाल के लिए, एक प्रवासी श्रमिक 28 मार्च को गुजरात से अपने गांव दातापुर लौटा। उसने ख़ुद को छह लोगों वाले परिवार के साथ घर के अंदर बंद कर लिया। चिंतित पड़ोसियों ने बार-बार उसके दरवाज़े पर दस्तक दी, लेकिन छह में से किसी ने भी जवाब नहीं दिया। पड़ोसियों ने द्विवेदी को उनके बीच एक संभावित COVID-19 रोगी के बारे में सूचना दी थी।

दो दिनों के तक द्विवेदी ने ज़िला और राज्य के उस हर अधिकारी से बात की, जिसके बारे में वह सोच सकते थे, लेकिन कोई मदद नहीं मिली। फिर उन्होंने एक वीडियो एसओएस संदेश रिकॉर्ड किया, जिसे उन्होंने ऑनलाइन फैलाया। निश्चित रूप से,  इसने मीडिया का ध्यान अपनी ओर खींचा।

एम्बुलेंस से एक मेडिकल टीम, जिसमें एक डॉक्टर, एक कंपाउंडर और एक ड्राइवर शामिल थे, गांव में दाखिल हुई और युवा प्रवासी को घर से बाहर निकल आने का अनुरोध किया। जब तक वह आदमी बाहर नहीं निकल आया, द्विवेदी और टीम की नज़र उस घर पर टिकी रही। साफ़ था कि वह बीमार था। उसका बीमार लगना ही उसका "चिकित्सा" परीक्षण था। इस मेडिकल टीम के पास न तो टेस्ट किट था, और न ही सुरक्षात्मक उपकरण थे। डॉक्टर ने द्विवेदी को बताया, 'अगर हम ख़ुद बीमार नहीं पड़ते हैं, तो ही हम जनता की मदद कर सकते हैं।' हालांकि वह आदमी भागा नहीं, जैसी कि आशंका जतायी गयी थी। इस चिकित्सा टीम ने उसे कुछ दवायें दीं और उसे घर के अंदर ही रहने के लिए कहा। हालांकि द्विवेदी मानते हैं कि जिस दिन मेडिकल टीम आयी थी, उस दिन वह प्रवासी "अस्वस्थ होने से कहीं ज़्यादा भयभीत" दिख रहा था, जहां तक उसका सवाल है, अब वह ठीक हो गया है। इस सब के बावजूद अब भी गांव वालों को उनके पागलपन को भरोसा के साथ तबतक थामना पड़ता है, जब तक कि कोई बीमार आदमी ठीक नहीं हो जाता।

बिहार के गांवों के इस संकट से निपटने को लेकर मिल रही सुविधाओं पर चर्चा करने के लिए ज़िला अधिकारी, मुखिया और पंचायत सदस्यों ने मुख्यमंत्री के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंस की है। द्विवेदी डरे हुए स्वर में कहते हैं, '' जब तक हर पंचायत को 10 लाख रुपये नहीं मिलेंगे, कोई भी कोरोनोवायरस को नहीं हरा सकता। हमारे यहां अब भी कम से कम 50 लोग, बहार से आये हुए लोग हैं, लेकिन उनमें से किसी का कोई परीक्षण नहीं हुआ है, क्योंकि हमारे पास टेस्ट किट ही नहीं है।”

पास के गांव कमलपुरा लौटने वाले प्रवासी घूमते हुए, स्टालों पर चाय की चुस्की लेते हुए, चौपालों पर बतकहीं करते हुए और तब्लीगी जमात को लेकर उन वीडियो का आपस में साझा करते हुए दिख रहे हैं, जिसमें मुसलमानों को भारत के कोरोनावायरस महामारी के लिए दोषी ठहराया जा रहा है। असग़र अली कहते हैं, "कोरोना एक हिंदू-मुस्लिम मुद्दा बन गया है और इन दोनों समुदायों के बीच की दरार बहुत बढ़ गई है। इसे रोकने के लिए हम कुछ भी करते हुए नहीं दिखते।”

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3 अप्रैल को मोदी के 9 बजे के भाषण के बाद, मुज़फ़्फ़रपुर के सरैया ब्लॉक के तुरकौलिया गांव के ही एक पंचायत कमलपुरा के एक बैंक कर्मचारी, नाहिद के पास एक दोस्त का फ़ोन आया था, उस फ़ोन में कहा गया, “आप लोग ग़लत काम किए, आप सभी मस्जिद में छुपे हुए थे " नाहिद गांव में निहित एक पूर्वाग्रह और मीडिया की ओर इशारा करते हुए कहते हैं: “मुसलमान तब्लीग़ी जमाती मस्जिद में ‘छिपे’ हुए थे, लेकिन हिंदू वैष्णो देवी में ‘फंसे’ हुए थे।”  क्या कनिका कपूर (कोरोनोवायरस के परीक्षण में पॉज़िटिव पायी जाने वाली गायिका) तब्लीग़ की कोई सदस्य हैं ? ” लेकिन द्विवेदी को भी लगता है कि मुस्लिम दोषी हैं। वह कहते हैं कि अपनी पंचायत के प्रत्येक सदस्य की जाति या सामुदायिक पहचान की परवाह किये बिना सबके लिए सरकारी सहायता की मांग कर रहे हैं, लेकिन, उसी सांस में वह जमात के सदस्यों को "आतंकवादी" भी बता जाते हैं।

लॉकडाउन के चौदहवें दिन, 7 अप्रैल को सरैया ब्लॉक में ही पड़ने वाले बसंतपुर पट्टी गांव की एक तंग सड़क के किनारे लगने वाले स्थानीय हाट में सब्ज़ियों की ख़रीदारी करने के लिए भारी संख्या में लोग इकट्ठे हुए। उनमें से क़रीब-क़रीब किसी ने भी मास्क नहीं पहना था, न ही वे एक दूसरे से छह की फीट दूरी बनाकर खड़े थे। वे एक दूसरे से रगड़ भी खा रहे थे, और सब्ज़ी बेचने वालों के साथ बहुत नज़दीक से ख़रीदारी भी कर रहे थे।

बेतरतीब बसे गांव के बनिस्पत दरवाज़े लगे शहरी कॉलोनियों में सोशल डिस्टेंसिंग को बनाये रखना आसान है। कम से कम हर दिन के भोजन के लिए संघर्ष करने वालों के लिए घर पर रहना तो मुश्किल ही है। मुज़फ़्फ़रपुर के पारो ब्लॉक के तुरकौलिया गांव की एक पंचायत, कमलपुरा के मुखिया ललन कुमार कहते हैं, '' हमें राशन की ज़रूरत है”। कुमार ने दस से बारह प्रवासी श्रमिकों वाले एक "कोरोना ग्रुप" के आवास के लिए एक स्कूल को आइसोलेशन सेंटर में बदल दिया है। वे कहते हैं, “हम सोशल डिस्टेंसिंग बनाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं और लोग हमारी बात भी सुन रहे हैं। लेकिन, कम से कम 1,000 ग़रीबों के पास राशन नहीं है और इस समय उनकी मदद की ज़रूरत है ”। यह ऐसी ज़रूरत है, जिस पर सभी मुखिया और पंचायत के निवासी एकमत हैं कि उनकी पंचायतों में ग़रीब लोग ज़रूरी सामनों को लेकर परेशान हैं, विशेष रूप से वे लोग ज़्यादा परेशान हैं, जो रोज़-रोज़ काम करते हैं और यही उनकी कमाई का इकलौता ज़रिया है।

सोशल डिस्टेंसिंग को उस समय झटका तब लगा, जब सरकार ने पिछले सप्ताह जन धन बैंक खातों में 500 रुपये स्थानांतरित किये। नाहिद कहते हैं, “इससे पहले, क़रीब 20 लोग प्रतिदिन बैंक में यह देखने के लिए आ जाते थे कि उनका पैसा आ गया है या नहीं। लेकिन, अब तो वे तीन बार रोज़ाना पैसे निकालने के लिए आते हैं ”। ग्रामीणों को एक-दूसरे से कुछ दूरी पर खड़े होने को लेकर मनाने की तमाम कोशिशें नाकाम रही हैं। बैंक ने अपने कर्मचारियों को मास्क और सैनिटाइज़र का इस्तेमाल करने के लिए कहा है, जिसके लिए उन्हें 1,500 रुपये दिये जायेंगे। नाहिद सवाल करते हैं, "मगर,जब यहां कोई मास्क ही उपलब्ध नहीं हैं, तो हम उन्हें कहां से लायेंगे ?" वह डेटॉल हैंड-वॉश की 750 मिलीलीटर वाली बोतल से हर चार दिन तक काम चलाते हैं, क्योंकि उन्हें अपने ग्राहक से निर्धारित 20 सेकंड तक उनके हाथ धुलवाना होता है। इसके अलावा, तुरकौलिया के सभी लोग 150 मिलीलीटर की बोतल सैनिटाइटर नहीं ख़रीद सकते, भले ही वह बोतल 150 रुपये की कम क़ीमत पर ही क्यों न बेची जा रही हों।

मुज़फ़्फ़रपुर के सरैया ब्लॉक में आने वाले मधौल गांव के सोनू उन लोगों में से हैं, जो अपने घर के बाहर क़दम रखने से परहेज करते हैं, जबकि उनका घर सड़क किनारे स्थित मेडिकल स्टोर के उस पार है। सोनू कहते हैं, “मैं देख रहा हूं कि दुकान पर सैकड़ों की तादाद में लोगों का जमघट लगता है। कभी-कभी भीड़ को तितर-बितर करने के लिए स्टोर-कीपर शटर को गिरा देता है, लेकिन जब वह आधे घंटे में फिर से खुलता है, तो धक्का मुक्की करते हुए वे फिर वापस आ जाते हैं”।

लॉकडाउन के शुरू होने के बाद से मेडिकल स्टोर पर दवाओं की मांग के मुक़ाबले आपूर्ति कम पड़ गयी है। प्रतिदिन कम से कम आठ घंटे के लिए इस तरह के मेडिकल स्टोर पर लोगों की भीड़ जमा हो जाती है, जो COVID-19 के से मिलते-जुलते लक्षणों का मुक़ाबला करने वाली दवाइयों को इन काउंटर से ख़रीद रहे होते हैं।

नाहिद हंसते हुए कहते हैं, “अगर कोई बुखार वाला शख़्स उस मेडिकल स्टोर पर दिखायी दे जाता है, तो स्टोर मालिक उसे भीड़ से दूर खड़ा कर देता है। फिर वह ग्राहक की ओर घूरता है। ग्राहक भरोसा जताने के स्वर में बताता है कि उसे तो सिर्फ एक मौसमी फ्लू है। लेकिन, केमिस्ट सहित हर किसी को यही शक रहता है कि इसे खूंखार कोरोना है”।

मेडिकल स्टोर पर चलने वाले इस तरह के घटनाचक्र से सोनू को डर लगता है। वह चाहते हैं कि पुलिस भीड़ पर लाठीचार्ज करे। सोनू कहते हैं,“पुलिस को मुख्य सड़कों से गांव के भीतर आने और अंदर गश्त करने की ज़रूरत है। लोग सोशल डिस्टेंसिंग का पालन नहीं कर रहे हैं !"

विडंबना ही है कि इस गांव में अराजकता की असली वजह ख़ुद लॉकडाउन ही है। लॉकडाउन को लेकर सरकार से अचानक मिले निर्देश को मानने के लिए लोगों को सबकुछ ठप कर देना पड़ा है। मिसाल के तौर पर, इस इलाक़े के कई हिस्सों में दो को छोड़कर किराने की तमाम दुकानें बंद कर दी गयी हैं,  और सब्ज़ी बाज़ार अपने एक तिहाई हिस्से में सिमट गया है। नतीजतन, ज़रूरी वस्तुओं-भोजन, सब्ज़ियों, दवाओं आदि की उपलब्धता में गिरावट आयी है, लेकिन उपभोक्ताओं की संख्या में कोई कमी नहीं आयी है।

पंचायत सदस्य, अली कहते हैं, "यही वजह है कि लोगों को जो कुछ भी दिखायी पड़ता है,वे उसी पर टूट पड़ते हैं। नतीजतन, सोशल डिस्टेंसिंग तो है ही नही।” हताश स्वर में द्विवेदी कहते हैं, “कोई दूध नहीं, कोई दवा नहीं, कोई राशन नहीं, कोई गैस नहीं, बैंक खातों में पैसे भी नहीं हैं। वे कहते हैं, “हमेशा से प्रशासन, डॉक्टरों, नर्सों, पुलिस सेवाओं का अभाव रहा है...अब तो हम सरकार से सिर्फ़ खाद्य आपूर्ति और परीक्षण किट मंगवा देने की अपील कर रहे हैं"।

संक्षेप में, किसी को भी वास्तव में यह पता नहीं है कि आख़िर नोवल कोरोन वायरस से निपटा कैसे जाये। लेकिन, अपने डर के कारण लोगों ने इस वायरस के लिए जिस दोषी को ढूंढ लिया है,वह हैं-बेचारे मुसलमान !

अंग्रेजी में लिखे गए मूल आलेख को आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं

Lockdown in Rural Bihar: Social Rift Works, But Not Distancing

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