किसान आंदोलन: इस ग़ुस्से और असंतोष को समझने की ज़रूरत है

गणतंत्र दिवस पर देश की राजधानी में होने वाली नाटकीय घटनाओं से तो ऐसा ही लगता है कि किसानों के प्रदर्शन से जो बड़ा संदेश लोगों के साथ-साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में केंद्र सरकार बीच जाना चाहिए था, उसे कम करके आंका जा रहा है। इसकी ख़ास वजह यह है कि 'गोदी' मीडिया ने लाल क़िले के कथित तौर पर 'नापाक' किये जाने और यह बताकर कि 'ट्रैक्टर परेड' के लिए पूर्व-सहमति वाले रास्ते से हज़ारों किसानों ने किनाराकशी की और आख़िरकार लगाये गये बैरिकेड को तोड़ते हुए महानगर के बीचोबीच चले गए, उनकी नाराज़गी को हवा दे दी है।
इसमें कोई शक नहीं कि जिस तरह किसानों के हज़ारों दूसरे साथियों ने तय किए गए तरीक़ों और रूट का अनुसरण किया था, किसानों के इस दस्ते को भी उसी तय रास्ते पर चलना चाहिए था। और बेशक, लाल क़िले में ज़बरदस्ती घुसने या झंडे फहराने की ज़रूरत नहीं थी।
लेकिन, अगर आप ज़रा पीछे मुड़कर देखें और इसके बारे में सोचें,तो सवाल पैदा होता है कि जो कथित "हिंसा" मीडिया और आधिकारिक मशीनरी के ख़िलाफ़ हुई, वह आख़िर थी क्या? यही कि उन्होंने पत्थर-कंक्रीट और धातु से बने बैरिकेड को तोड़ दिया? यही कि उन्होंने कंटेनरों को पलट दिया और डंपरों को हटा दिया? फिर तो यही कहा जा सकता है कि यह सब ज़रूरी नहीं था, और न ही इन हरक़तों पर सहमत हुआ जा सकता है,क्योंकि यह सब हिंसा थी। बाधाओं के तौर पर खड़ी की गयीं कुछ बसें भी क्षतिग्रस्त हो गयीं। झड़पों में पुलिस कर्मी घायल हो गये।
लेकिन, सवाल पैदा होता है कि क्या यह सब करने वाले प्रदर्शनकारी थे।
दरअस्ल, उनमें से एक की आईटीओ क्रॉसिंग पर मौत हो गयी, क्योंकि कथित तौर पर उसका ट्रैक्टर इसलिए पलट गया था कि उसने और कुछ दूसरे लोगों ने क्रॉसिंग से पुलिसकर्मियों को ख़ाली कराने के लिए अपने वाहनों को गोल-गोल घुमाया था।
संयुक्त किसान मोर्चा (दिल्ली विरोध प्रदर्शन में शामिल सभी किसान संगठनों की एक छतरी संस्था) ने इस हिंसा की आलोचना की है और उन समूहों से ख़ुद को अलग कर लिया है,जो मुख्य ‘ट्रैक्टर परेड’ से अलग थे। उन्होंने कहा कि किसानों के कुछ संगठन ऐसे थे, जो पूर्व-व्यवस्थित मार्ग से सहमत नहीं थे और सीधे शहर के बीचोबीच आना चाहते थे।
इस बात पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि मौजूदा हालात इसलिए पैदा हुए हैं, क्योंकि मोदी सरकार का उन कृषि क़ानूनों को लेकर सख़्त नज़रिया है,जो स्पष्ट रूप से खेती-किसानी की समस्या समझने इंकार करता है और यही इन क़ानूनों का अलोकप्रिय पहलू भी है। यह मोदी सरकार ही है,जिसने इन काले कानूनों को पहले अध्यादेशों के रूप में और फिर संसद में अपने प्रचंड बहुमत के दम पर बिना किसी चर्चा, बिना किसी प्रक्रिया को अपनाये हुए देश के गले में ज़बरदस्ती डाल दिया है।
मोदी सरकार ने उन ग़ुस्से और नाराज़गी को समझने से इनकार कर दिया है,जो किसान संगठनों के रूप में सामने आये हैं। इन संगठनों ने उन 11 दौर की वार्ताओं से गुज़रते हुए अपना सब्र दिखाया है,जिनमें से आधे का इस्तेमाल तो सरकार की तरफ़ से यह जताने के लिए किया गया है कि ये कानून कितने अच्छे हैं। सत्तारूढ़ दल भारतीय जनता पार्टी के पास अपने प्रधानमंत्री को यह बताने का साहस नहीं है कि ज़मीन पर ज़बरदस्त ग़ुस्सा है। नौकरशाह तो और भी बुज़दिल हैं। लेकिन,दुर्भाग्य से प्रधानमंत्री को लगता कि देश के लिए यही सबसे अच्छा इसलिए है, क्योंकि पश्चिमी देशों से जुड़े नवउदारवादी अर्थशास्त्रियों ने इसकी सिफ़ारिश की है।
लेकिन, मुख्यधारा के मीडिया की तरफ़ से इसे लेकर जिस तरह की अवधारणा बनाने की कोशिश की जा रही है, उसे पढ़ना और समझना ज़रूरी है।
विरोध की अभूतपूर्व लहर
अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति (सभी राज्यों के 500 से अधिक किसान संगठनों का एक मोर्चा) के आह्वान पर देश के सभी राज्यों में ट्रैक्टर परेड, धरना प्रदर्शन, धरने, आदि का आयोजन किया गया। ये कोई छोटे-मोटे आयोजन नहीं थे- केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना के सभी ज़िलों में इस तरह के बड़े विरोध प्रदर्शन किये गये।
महाराष्ट्र के ज़िलों में इस तरह के ज़िलावार विरोध प्रदर्शन गणतंत्र दिवस के पहले ही हो चुके थे और 15,000 से ज़्यादा किसानों ने मुंबई तक मार्च किया था और 25 जनवरी को शहर के बीचोबीच एक रैली का आयोजन किया गया था। मध्य प्रदेश, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश के कई ज़िलों में ट्रैक्टर परेड और अन्य विरोध प्रदर्शन हुए।
गणतंत्र दिवस के विरोध के सिलसिले में पश्चिमी और मध्य उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, हरियाणा के किसान पहले ही राजधानी की सीमाओं पर जुट गये थे। ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान, पश्चिम बंगाल और अन्य राज्यों सहित सभी राज्यों के छोटे-बड़े दस्तों के रूप में किसान यहां शामिल हुए थे। पश्चिम बंगाल में 72 घंटे का महापड़ाव का आयोजन पहले ही हो चुका था और बर्दवान, 24-परगना सहित दूसरे ज़िलों में ट्रैक्टर परेड आयोजित किये गये थे। राजधानी से दूर असम में भी विरोध प्रदर्शन हुए। गुजरात में भी छोटे-छोटे विरोध प्रदर्शन किये जा सके, हालांकि भाजपा की अगुवाई वाली राज्य सरकार ने नवंबर से ही किसानों के विरोध प्रदर्शन के ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई करना शुरू कर दिया था।
ये सब क्या दिखाते हैं ? निस्संदेह, अगर ये विरोध प्रदर्शन इस तरह से जारी हैं, तो इससे तो यही लगता है कि इन तीनों कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ गुस्से की लहर अभूतपूर्व है। देश का कोई भी हिस्सा इस ग़ुस्से से अछूता नहीं है। चूंकि मुख्यधारा का मीडिया इस सब को नजरअंदाज करता है,और सरकार भी इसकी अनदेखी करती है, ऐसे में ये दोनों ही ग़ुस्से की इस गहराई को नहीं समझ सकते,जो देश में इन कानूनों के ख़िलाफ़ इस समय मौजूद है। इसलिए, कुछ लोग इस तरह की बचकानी अटकलें लगाते रहे हैं कि 26 जनवरी को दिल्ली में होने वाले कार्यक्रम इस आंदोलन की हवा निकाल देंगे।
बढ़ती भागीदारी का स्तर
हर बीतते दिन के साथ किसानों का समर्थन इसलिए बढ़ रहा है,क्योंकि मोदी सरकार इन क़ानूनों को निरस्त नहीं करने की अपनी सख़्त रुख़ पर क़ायम है। यह कल राजधानी में स्पष्ट रूप से दिखा। किसानों और राजमार्गों पर क़तारों में खड़े उनके प्यारे ट्रैक्टरों की संख्या उम्मीद से कहीं ज़्यादा थी। संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) के नेतृत्व और पुलिस / गृह मंत्रालय,दोनों ही राजधानी के बीचोबीच दर्जनों किलोमीटर तक क़तारों में लगे ट्रैक्टरों के सैलाब से अचंभित थे। ये हालात इस तथ्य के बावजूद थे कि यूपी की भाजपा सरकार ने किसानों को अपने ट्रैक्टरों के लिए डीज़ल देने से मना कर दिया था,पंजीकरण संख्या की जांच की जा रही थी और बाद में उन्हें परेशान करने के लिए उनकी आवाजाही की रिकॉर्डिंग करके उनमें डर पैदा करने की हर चंद कोशिश की गयी थी। लेकिन, सही बात तो यह है कि हरियाणा और पंजाब के हर एक गांव, और पश्चिमी यूपी में लोग व्यापक तौर पर साज़-ओ-सामान सड़कों पर ले आये, अपने ट्रैक्टरों में भोजन और खाने की दूसरे चीज़ें पैक किये और बाहर निकल गये।
किसानों में ऊर्जा और उत्साह ग़ज़ब का था। इस बात को लेकर किसी तरह की हैरत नहीं थी कि ‘ट्रैक्टर परेड’ के लिए राजधानी के चारों ओर के जिन मार्गों को लेकर एसकेएम ने सहमति जतायी थी, वे रास्ते वास्तव में इस परेड में भाग लेने वालों की ज़बरदस्त तादाद के सामने कम पड़ गये।
इतनी बड़ी तादाद का अनुमान नहीं लगा पाना भी दरअस्ल सरकार की नाकामी ही थी। सरकार दूर-दूर तक किसी को भी दाखिल नहीं होने देने के सवाल से बहुत ज़्यादा रोमांचित थी। इसलिए, किसानों की किसी बेसब्र लहर के बढ़ने से बैरिकेड के टूटने का इंतज़ार किया जा रहा था। हक़ीक़त तो यही है कि पुलिस ने इस बात को बहुत हल्के से लिया था,यही वजह है कि दिल्ली के बहुत अंदर उन्होंने बैरिकेड लगाये थे। लेकिन,किसी को भी इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि इस पैमाने पर लोगों की भागीदारी होगी।
दूसरी जगहों पर भी ऐसा ही हुआ है। जैसा कि कई राज्यों से आने वाली न्यूज़क्लिक की रिपोर्ट दिखाती है कि किसानों की अभूतपूर्व संख्या ने विभिन्न राज्यों के विरोध प्रदर्शनों में भाग लिया और कई अन्य जगहों पर अप्रत्याशित विरोध प्रदर्शन हुए।
इसकी एक और उल्लेखनीय ख़ासियत यह है कि किसानों को अन्य सभी वर्गों के लोगों का समर्थन मिल रहा है। सभी राज्यों और दिल्ली में भी छात्रों, महिलाओं, मध्यम वर्गीय कर्मचारियों, श्रमिकों और अन्य लोगों ने दर्जनों जगहों पर किसानों का स्वागत किया। दिल्ली में तो सिर्फ परेड देखने के लिए लोग बड़ी संख्या में बाहर निकल आये।
मोदी सरकार को इस संदेश को पढ़ने की ज़रूरत
26 जनवरी, 2021 को हुए इन विरोध प्रदर्शनों ने मोदी सरकार को एक मजबूत और स्पष्ट संदेश दे दिया है और वह संदेश यह है कि जब तक आप किसानों की आवाज नहीं सुनते, तबतक यह विरोध आगे बढ़ता ही रहेगा। इस आंदोलन को लेकर फ़ैलाया गया यह मिथक कि यह आंदोलन कुछ राज्यों के किसानों का है या फिर इसे निहित स्वार्थों का समर्थन हासिल है,आज यह मिथक भी चिंदी-चिंदी हो गया है।
मंगलवार का वह पल एक ऐसा पल था, जैसा इससे पहले कभी नहीं देखा गया था और सरकार इसकी गहराई और व्यापकता को समझने में इसलिए नाकाम रही, क्योंकि वह मुक्त बाज़ार और कॉरपोरेट की अगुवाई वाली आर्थिक विकास की छोड़ी जा चुकी और बदनाम हो चुकी विचारधारा की वफ़ादार बनी हुई है। यह उनके लिए कानूनों को समझने और पूरी तरह निरस्त करने का वक़्त है, अन्यथा देश कभी भी व्यापक विरोध के हवाले हो जायेगा।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करे
https://www.newsclick.in/republic-day-farmers-storm-capital-big-protests-across-country
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