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COP29 और जलवायु संकट: अमीरों के लालच बनाम लोगों की ज़रूरतें

जलवायु परिवर्तन की वह संभावना बढ़ती जा रही है जिसे वापस पटरी पर लाना कठिन होगा, लेकिन यह अमीर देशों की प्राथमिकता नहीं है, जो दुनिया में अपना प्रभुत्व बढ़ाने के लिए युद्धों/टकरावों में निवेश कर रहे हैं और हमारे भविष्य का बलिदान करने को तैयार बैठे हैं।
Cop 29
फ़ोटो साभार : Flickr

COP29, संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन, 11 नवंबर को बाकू, अज़रबैजान में शुरू हुआ और 22 नवंबर को समाप्त हो जाएगा। यह सम्मेलन दुनिया भर में इस गर्मी के तापमान में उल्लेखनीय वृद्धि के बीच हो रहा है, और यह साफ चेतावनी दे रहा है कि इसका हमारे लिए क्या मतलब होगा। यह ऐसे समय में हो रहा है जब अमेरिका ने डोनाल्ड ट्रम्प नामक एक ऐसे राष्ट्रपति को चुना है, जो अन्य बातों के अलावा जलवायु परिवर्तन को नकारने वाला भी है और COP29 में किसी भी वैश्विक सहमति को स्वीकार करने की कोई संभावना नहीं है।

ग्लोबल वार्मिंग, यहां तक कि उत्तरी छोर के बर्फीले देश भी जो बर्फीली छाया चादर से ढ़के रहते हैं, अब वैज्ञानिक बहस के दायरे में नहीं है। अब जलवायु वैज्ञानिकों का समूह नहीं है जो हम सभी पर ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव के बारे में चेतावनी दे रहा है। चेतावनियां हक़ीक़त में बदल रही हैं और इसके परिणाम पहले से ही दिखाई दे रहे हैं, इस गर्मी में उत्तर भारत में तापमान के रिकॉर्ड टूट गए हैं। यूरोप में भी ऐसा ही हुआ है।

आज पूरी दुनिया में तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने का लक्ष्य विफल हो रहा है, क्योंकि दुनिया भर के कई इलाकों में इस साल पहले ही 1.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि देखी जा चुकी है। हम यह नहीं कहते कि हमने 1.5 डिग्री सेल्सियस के निशान को पार कर लिया है, क्योंकि तकनीकी रूप से, जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (आईपीसीसी) के अनुसार, तापमान वृद्धि की गणना 20 साल के औसत पर की जाती है। हालांकि, 20 साल बाद यह तय करना कि हमने 2024 में 1.5 डिग्री सेल्सियस का निशान पार कर लिया था, आज हमारे लिए बहुत मददगार नहीं है।

इसलिए, हमें आज ही कदम उठाने होंगे, क्योंकि हम अपरिवर्तनीय जलवायु परिवर्तन के कगार पर खड़े हैं, जो दुनिया के बड़े हिस्से यानी धरती को रहने लायक नहीं रहने देगा। यह न केवल निचले इलाकों को बल्कि बढ़ती संकटपूर्ण मौसम की घटनाओं के ज़रिए दुनिया के बाकी हिस्सों को भी भारी नुकसान पहुंचाएगा।

इसे परिप्रेक्ष्य में रखने के लिए यह जानना जरूरी है कि, दुनिया को इस पैमाने के तापमान का केवल 125,000 साल पहले ही पता चला था, जब आधुनिक होमो सेपियंस अफ्रीका छोड़कर यूरेशिया में प्रवेश कर रहे थे। इसका मतलब है कि दुनिया की जलवायु अब पूरी तरह से अज्ञात क्षेत्र में प्रवेश कर रही है।

गर्मियों में ऊंचे तापमान का असर कृषि, लोगों की आजीविका और खेतों, कारखानों या ऐसे व्यवसायों में काम करने वाले मजबूर लोगों पर अधिक पड़ता है, जहां लोग गर्मी के संपर्क में ज्यादा रहते हैं। समस्या तब भी कम गंभीर नहीं होती जब सर्दियों के सामान्य तापमान से बहुत अधिक तापमान आर्कटिक और अंटार्कटिक बर्फ के पिघलने का कारण बनता है, जिससे समुद्र का स्तर तेज़ी से बढ़ता है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में चौंकाने वाली बात यह रही है कि बढ़ते तापमान के साथ-साथ उग्र मौसमी घटनाएं भी हुई हैं।

ग्लोबल नॉर्थ, जिसका मतलब है अमेरिका, कनाडा और यूरोप, हमेशा से यह मानते आए हैं कि ग्लोबल वार्मिंग अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका की वजह से है और लैटिन अमेरिका तो इस मामले में एक बड़ी समस्या है। मेरे साथ काम करने वाले एक कनाडाई ने एक बार मुझसे कहा था कि, "कनाडा को थोड़ी ग्लोबल वार्मिंग की ज़रूरत है।"

यह दुर्भाग्य है कि ग्लोबल नॉर्थ के लोगों को, ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन पर कोई कदम न उठाने के मामले में इस आशावाद ने दिखा दिया है कि अमीर लोग भी जलवायु परिवर्तन से अछूते नहीं हैं। जलवायु बदलाव से इनकार करने वालों का गढ़, यानी अमेरिका में 1980 से अब तक 400 जलवायु आपदाएं हुई हैं, जिनमें से प्रत्येक घटना में 1 बिलियन डॉलर से अधिक का नुकसान हुआ है।

भारी बारिश, बाढ़, उच्च तापमान और जंगल की आग जैसी सभी घटनाएं बढ़ रही हैं क्योंकि हम तापमान में ऐसे बदलावों का सामना कर रहे हैं जो केवल हज़ारों साल पहले हुआ करते थे। हमें ध्रुवीय इलाकों में पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने, भारी मात्रा में मीथेन छोड़ने और जिस बात की हमें जानकारी नहीं वह कि इन परिणामों की वजह से समुद्री धाराओं के उलटने का भी खतरा है।

COP29 की शुरुआत कार्बन क्रेडिट पर एक समझौते की घोषणा और इस उम्मीद के साथ हुई थी कि इससे कार्बन बाज़ारों में नई जान आएगी। हालांकि जब दुनिया हरित ऊर्जा रणनीतियों को वित्तपोषित करने के बारे में बहस कर रही थी, तब इस रास्ते पर कुछ चल रहा था, लेकिन आज इसका बहुत कम महत्व है। हम इस बात को पहले से ही जानते हैं कि ज़्यादातर कार्बन क्रेडिट परियोजनाएं सिर्फ़ कागज़ों पर हैं और ये ज़्यादा से ज़्यादा वन क्षेत्र वाले गरीब देशों के लिए कुछ आय उत्पन्न करने में मदद करती हैं। उदाहरण के लिए, कार्बन क्रेडिट के दुनिया के सबसे बड़े प्रमाणनकर्ता वेरा द्वारा बेचे गए 90 फीसदी कार्बन क्रेडिट ने किसी भी उत्सर्जन को कम नहीं किया, लेकिन वेरा के लिए इसने बहुत सारा पैसा कमाया।

वापस उस पर आते हैं जिसके बारे में हम जानते हैं, जो वास्तव में काम करता है। वह है कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस की जगह हरित ऊर्जा का इस्तेमाल करना। इसका मतलब है कि, सौर और पवन ऊर्जा से ग्रिड के लिए बिजली का उत्पादन करना, जिसके लिए पिछले दशकों में लागत में नाटकीय रूप से कमी आई है। साथ ही, परिवहन, विशेष रूप से कारों में बैटरी भंडारण क्षमता में तेजी से वृद्धि हुई है और बैटरी की कीमतें कम हुई हैं, जिससे इलेक्ट्रिक वाहन पेट्रोल से चलने वाले वाहनों के साथ प्रतिस्पर्धी बन गए हैं। हमें अभी भी सड़क मार्ग से लंबी दूरी के माल परिवहन और कुछ औद्योगिक प्रक्रियाओं, जैसे कि स्टील, सीमेंट और उर्वरक उत्पादन में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन करने वाली प्रक्रियाओं को बदलने में समस्या है।

इस साल बड़े बदलाव देखने को मिले हैं। कार्बन उत्सर्जन का सबसे बड़ा उत्पादक चीन, 2023-24 में अपने चरम उत्सर्जन पर पहुंच गया है, हालांकि इस लक्ष्य को पूरा करने की उसकी प्रतिबद्धता 2030 बताई गई थी। चीन ने नवीकरणीय ऊर्जा में जो निवेश किया है, उसका परिमाण सौर ऊर्जा में उसके निवेश और सौर सेल और पैनलों के अग्रणी आपूर्तिकर्ता के रूप में उभरने में देखा जा सकता है। भारत ने भी अपने नवीकरणीय क्षेत्र का काफी विस्तार किया है और भविष्य के लिए महत्वाकांक्षी योजनाएं बनाई हैं।

पहले सवाल यह था कि अक्षय ऊर्जा से बिजली कैसे संग्रहित की जाए, क्योंकि उनका उत्पादन परिवर्तनशील है और हमारी दैनिक मांग भी स्थिर है। परिवर्तनशील अक्षय ऊर्जा के भंडारण के लिए पंप हाइड्रो स्टोरेज का निर्माण करके इस समस्या से निपटा गया है। पहले प्रस्तावित ग्रिड-स्तरीय बैटरियों की लागत बहुत अधिक थी और भंडारण अवधि सीमित थी। वाम मोर्चा सरकार के तहत पश्चिम बंगाल में पुरुलिया पंप स्टोरेज परियोजना भारत में इस तरह की पहली योजना थी।

बहुउद्देशीय जलविद्युत परियोजनाओं के उलट, जिनमें सिंचाई की मौसमी जरूरतों के लिए जल भंडारण हेतु भूमि का बड़ा हिस्सा पानी में डूब जाता है, ऊर्जा जरूरतों के दैनिक उतार-चढ़ाव को पूरा करने के लिए बहुत कम भंडारण की जरूरत होती है, और इसलिए वह बहुत कम पानी में डूबता है।

सौर ऊर्जा क्षेत्र, स्पष्ट रूप से दुनिया में ऊर्जा परिवर्तन का नेतृत्व कर रहा है। लेकिन आश्चर्य की बात यह नहीं है कि चीन अपने सौर ऊर्जा क्षेत्र का निर्माण किस पैमाने पर कर रहा है, बल्कि यह है कि अन्य क्षेत्र इसमें बहुत ही धीमी गति से काम कर रहे हैं। न्यूयॉर्क टाइम्स (16 सितंबर, 2024) के अनुसार चीन ने कुल 425 गीगावाट नई सौर ऊर्जा स्थापित की है। यदि चीन को छोड़ दें तो पूरी दुनिया ने केवल 162 गीगावाट की क्षमता स्थापित की है, जबकि दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अमेरिका ने मात्र 33 गीगावाट की क्षमता स्थापित की है!

भारत ने 500 गीगावाट नवीकरणीय ऊर्जा का महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किया है, जिसमें से 80 फीसदी 2030 तक सौर ऊर्जा से हासिल करने की योजना है, जो तभी संभव है जब हम न केवल सौर ऊर्जा में निवेश करें बल्कि सौर ऊर्जा के लिए संपूर्ण आपूर्ति श्रृंखला बनाने की अपनी क्षमता भी बढ़ाएं। इसमें सिर्फ़ सौर पैनल और सौर संयंत्र ही नहीं, बल्कि सिलिकॉन वेफ़र और सौर सेल का उत्पादन भी शामिल है।

अगर बिजली क्षेत्र, ग्रीनहाउस गैसों का सबसे बड़ा उत्सर्जक है, तो दूसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक परिवहन क्षेत्र है। इलेक्ट्रिक वाहन - ईवी या बैटरी इलेक्ट्रिक वाहन या बीईवी - आज निजी परिवहन और पेट्रोल या डीज़ल जलाने से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन से निपटने में सबसे आगे हैं।

फिर से, चीन, बुनियादी प्रौद्योगिकियों, इस मामले में बैटरी प्रौद्योगिकी पर अपने फोकस के साथ, वैश्विक नेता के रूप में उभरा है। सीएटीएल (CATL), जो टेस्ला को अपनी बैटरियां सप्लाई करती है, और बीवाईडी (BYD), चीन की दूसरी प्रमुख बैटरी निर्माता है, न केवल वैश्विक स्तर पर अग्रणी बैटरी निर्माता के रूप में उभरी है, बल्कि अब कार निर्माता के रूप में इलेक्ट्रिकल वेहिकल (EV) बाज़ार में भी प्रवेश कर रही है। बीवाईडी (BYD) एक प्रमुख कार निर्माता बन गई है, जबकि सीएटीएल (CATL) अन्य निर्माताओं के साथ साझेदारी कर रही है। सीएटीएल (CATL) चीन में ग्रिड-लेवल बैटरी स्टोरेज का प्रमुख आपूर्तिकर्ता भी है।

भारत में, हमारे पास अमर राजा बैटरी जैसे कुछ स्वदेशी बैटरी आपूर्तिकर्ता हैं। भारतीय कार निर्माता भी सक्रिय रूप से ईवी क्षेत्र में प्रवेश कर रहे हैं। फिर से, इसमें अमेरिका पिछड़ा हुआ नज़र आता है, जहां एलन मस्क के रहस्य ने उन्हें इस वास्तविकता से अंधा कर दिया कि इलेक्ट्रिक वाहन की लागत का 50 फीसदी अकेले बैटरी की लागत खा लेती है। मस्क की टेस्ला कंपनी का अभिजात वर्ग के बाजार पर ध्यान केंद्रित करने का मतलब यह था कि वह बड़े बाजार के हिस्से को भूल गई है, और यह विश्वास भी करना कि चीनी बैटरी निर्माता टेस्ला के मुक़ाबले में नहीं हैं उनकी बड़ी भूल है। इसका मतलब यह है कि टेस्ला बड़े बाजार में घुसने को तैयार नहीं है, जो कि अब तक का दुनिया का सबसे बड़ा हिस्सा/खंड है।

चीनी बैटरी निर्माताओं ने अपनी कारों जैसे बीवाईडी (BYD) या अन्य चीनी बैटरी निर्माताओं के साथ मिलकर यूरोपीय बाजार में भारी पैठ बनाई है। अमेरिका और यूरोपीयन यूनियन की प्रतिक्रिया जलवायु लक्ष्यों की बलि देने की कीमत पर अपने कार निर्माताओं की रक्षा के लिए टैरिफ बाधाएं रही हैं, भले ही उनके अपने कार निर्माता लागत या बैटरी की गुणवत्ता में चीनी माल से मेल नहीं खाते हों।

COP29 में नवीकरणीय बिजली उत्पादन को बढ़ाने और परिवहन तथा अन्य उद्योगों में इसके इस्तेमाल के वास्तविक मुद्दों में से किसी पर भी चर्चा होने की संभावना नहीं है। हम कार्बन इक्विटी और अमीर देशों द्वारा जलवायु के नुकसान के लिए कुछ जिम्मेदारी लेने के बारे में भी बात नहीं कर रहे हैं। हम बस इतना चाहते हैं कि वे भविष्य के लिए कुछ जिम्मेदारी लें। हम अब अमीर देशों को जलवायु वित्त के नाम पर कुछ पैसे खर्च करने की छूट देने को तैयार नहीं हैं।

आज दुनिया एक ऐसे मुहाने पर खड़ी है, जहां जलवायु परिवर्तन के संकट की ऐसी संभावना बढ़ती जा रही है जहां से लौटना नामुमकिन होगा। अमीर देशों की इस बारे में कोई प्राथमिकता नहीं है। उनका ध्यान सिर्फ इस बात पर है कि यूक्रेन में रूस को कैसे हराया जाए, चीन को आर्थिक रूप से कैसे घेरा जाए, तेल-समृद्ध पश्चिम एशिया को कैसे नियंत्रित किया जाए और इसके लिए इज़राइल का इस्तेमाल कैसे किया जाए, भले ही इसका मतलब फ़िलिस्तीन में नरसंहार ही क्यों न हो, और उनका शासन बाकी दुनिया पर जारी रहे। यह एक ऐसी वैश्विक "नियम-आधारित व्यवस्था" है, जहां केवल वे ही नियम बना सकते हैं!

ग्लोबल वार्मिंग के मामले में, जी-7 देश न केवल अन्य देशों की इच्छाओं के विरुद्ध काम करते हैं, बल्कि कुदरत के नियमों के भी खिलाफ़ काम कर रहे हैं। आज हमारी सबसे बड़ी चुनौती यही है कि, उन मुट्ठी भर अमीर देशों के बावजूद, एक बेहतर दुनिया का निर्माण कैसे किया जाए और ऐसी व्यवस्था से बचा जाए जो हमारे भविष्य का बलिदान करने को तैयार हैं क्योंकि मुट्ठी भर अमीर देश कुछ और वर्षों तक अपने विश्व प्रभुत्व को बनाए रखना चाहेंगे। यह COP29 की सबसे बड़ी और मुख्य चुनौती है।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख आप नीचे दिए लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं–

COP29 & Climate Crisis: Greed of Rich Vs Needs of People

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