छत्तीसगढ़ : भू-अधिकारों के बावजूद जनजातीय परिवार लगातार हो रहे हैं ज़मीन से बेदख़ल

छत्तीसगढ़ के कोरबा में अपनी ज़मीन से हटाए जाने के बाद 5 जनजातीय परिवार वन विभाग से अपने भू-अधिकारों को मान्यता दिलवाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
यह जनजातीय परिवार वन में विचरण करने वाले कंवर समुदाय से आते हैं। यह लोग कोरबा जिले के उडता क्षेत्र में अपना घर, फसल और ज़मीन खो चुके हैं। जबकि इन्हें भू-अधिकार दिए जा चुके हैं।
कोरबा जिले में उडता को सबसे पुराना और बड़ा गांव माना जाता है। समुदाय का कहना है कि वे पिछले 300 सालों से इस क्षेत्र में रहते आ रहे हैं। यहां वे आंवला, नींबू, आम जैसे फलों और सब्ज़ियों, यहां तक कि गेहूं की खेती भी करते रहे हैं। यहां आदिवासी समुदाय कुआं भी बना चुका है।
एक परिवार जिसे ज़मीन से बेदखल कर दिया गया है, उसके मुखिया रतन सिंह का दावा है कि वनाधिकारों के हासिल होने के बावजूद उन्हें जबरदस्ती ज़मीन से हटाया गया है। मानसिंह कंवर और हेम सिंह कहते हैं कि उनके पास "अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006" के तहत लीज का अधिकार है। यहां तक कि 2009 में ही ग्राम सभा भी उनके पक्ष में प्रस्ताव पारित कर चुकी है।
न्यूज़क्लिक से बात करते हुए मानसिंह कंवर ने कहा, "चार दूसरे किसानों और हमारी ज़मीन को वन विभाग ने जबरदस्ती छीन लिया है, जबकि हममें से एक के पास वनाधिकार भी थे। हमारे घरों को नष्ट कर दिया गया और हमें दूसरा रहवास खोजने के लिए मजबूर किया गया। अहम बात यह है कि यही ज़मीन हमारी आजीविका है, यहां हम अपने मवेशी चराने के लिए आते हैं, जहां से हमें संसाधन उपलब्ध होते हैं। अब जब यहां तारबंदी कर दी गई है, तो हम खाद्यान्न संसाधनों तक नहीं पहुंच सकते।"
15 एकड़ से ज़्यादा की आदिवासी ज़मीन को साफ़ कर वनविभाग द्वारा वहां जुलाई में तारबंदी कर दी गई थी। इसके बाद इलाके में जनजातीय विरोध तीखा हो गया था, जिसमें हाल के वक़्त में फिर से उबाल आया है।
इस हफ़्ते कोरबा जिला प्रशासन को जनजातीय अधिकारों को दोबारा बहाल करने और प्रभावित लोगों को उनका घर वापस देने के लिए ज्ञापन सौंपा गया है। वहीं वनविभाग को 10 दिन की मियाद देते हुए एक प्रस्ताव भेजा गया है। प्रस्ताव में 20 से 40 गांव के जनजातीय किसानों ने घोषणा की है कि तय मियाद के बाद उडता की तरफ जाएंगे, ताकि आदिवासियों को वापस उनके ज़मीन के अधिकार मिल पाएं।
न्यूज़क्लिक से बात करते हुए कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के जिला सचिव प्रशांत झा ने कहा, "वन विभाग ने लॉकडाउन का इस्तेमाल भू-अधिकारों पर कार्रवाई के लिए बहाने के तौर पर किया है। इससे अब ज़्यादा बड़े स्तर का भूमि अधिकार आंदोलन खड़ा हो गया है। वन विभाग ने आदिवासियों की आजीविका छीनने के लिए उनकी फसलों को नष्ट कर दिया और वहां टीक के पेड़ लगा दिए। अब यह आंदोलन कई गांवों तक फैल गया है।"
"थर्ड पोल" के मुताबिक़, "भारत में आदिवासी समुदाय बहुत हद तक कृषि पर निर्भर है। भारत में आदिवासियों की कुल संख्या 10 करोड़ 40 लाख है, जो कुल जनसंख्या का 8.6 फ़ीसदी हिस्सा है। लेकिन पिछले दशक में आदिवासी किसानों की संख्या में 10 फ़ीसदी की कमी आई है, जबकि कृषि मज़दूरों की संख्या में 9 फ़ीसदी का इज़ाफा हुआ है। इसने कोरोना महामारी के दौर में आदिवासी समुदाय को खास तौर पर संकटग्रस्त बना दिया, क्योंकि बहुत सारे लोग आजीविका के कृषि और गैर कृषि विकल्पों तक नहीं पहुंच पा रहे थे।"
एक्टिविस्ट कहते हैं कि कोरबा में वन विभाग और जिला प्रशासन ने आदिवासियों की इस मजबूरी का फायदा उठाया है। अब प्रशासन भू-अधिकारों के लिए नए आवेदनों को स्वीकार नहीं कर रहा है, वहीं पुरानों को बिना किसी वज़ह से खारिज किया जा रहा है। कोरबा नगरपालिका इलाके में हजारों एकड़ ज़मीन वन भूमि के तौर पर पंजीकृत है, जबकि कई परिवार यहां पीढ़ियों से रह रहे हैं।
जनजातीय समुदाय के लोग सिर्फ़ अपने भूमि अधिकारों को लौटाए जाने की मांग नहीं कर रहे हैं, बल्कि ज़मीन से जबरदस्ती बेदखली के मामले में जो भी अधिकारी जिम्मेदार हैं, उनपर कार्रवाई की मांग भी की जा रही है। समुदाय का कहना है कि जिन लोगों को बेदखल किया गया है, उन्हें अपनी ज़मीन के अधिकार मिलें, ताकि वे अपने नुकसान की भरपाई कर सकें। साथ ही उनके दावों की भी जांच की जाए।
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Chhattisgarh: Tribal Families Continue to Face Evictions Despite Land Claims
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