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चुनाव 2019; यूपी : नयी राजनीतिक आहटें—क़रीब आती हुईं

उत्तर प्रदेश में इस बार मामला फ़िफ़्टी-फ़िफ़्टी है। मोदी (और भाजपा) को यह डर सता रहा है कि राज्य में इस बार भी पार्टी को अगर 80 लोकसभा सीटों में से 71 न मिलीं (जैसा कि 2014 में हुआ था), तब क्या होगा! 
सांकेतिक तस्वीर

लोकसभा चुनाव-2019 का आधे से ज़्यादा सफ़र पूरा हो चला है। अब मतदान के सिर्फ़ तीन दौर बचे हैं। बीच चुनाव में उत्तर प्रदेश की कैसी राजनीतिक तस्वीर उभरती दिखायी दे रही हैक्या कोई अनुमान लगाया जा सकता हैजो सतह के नीचे चल रही हलचल का अता-पता दे?

प्रचलित शब्दावली में कहा जा सकता है कि अभी कुछ कहना मुश्किल है। लेकिन जो संकेत मिल रहे हैंवे बताते हैं कि नयी राजनीतिक आहटेंक़रीब आती हुई, सुनायी दे रही हैं। ये सधी हुई आहटें जैसे कह रही हैं कि 2019 में उत्तर प्रदेश में 2014-जैसा ‘मोदी जादू’ या ‘मोदी लहर’ नहीं हैऔर टक्कर कांटे की है।

ख़ास बात यह है कि इस चीज़ को भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी अच्छी तरह समझ रहे हैं। नरेंद्र मोदी ने बनारस (वाराणसी) में 26 अप्रैल 2019 को जो कहाउस पर ध्यान दीजिये। उस दिन बनारस लोकसभा सीट से  भाजपा की ओर से अपनी उम्मीदवारी का परचा दाख़िल करने के बाद उन्होंने अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं से कहा, ‘इस झांसे में न आइये कि मैं (मोदी) जीत रहा हूंइसलिए वोट देने की ज़रूरत नहीं। वोट देने के लिए घर से बाहर ज़रूर निकलिए।’ मोदी की देहभाषा कुछ-भी-हो-सकता-है की आशंका और तनाव से भरी हुई है।

मतलब साफ हैः उत्तर प्रदेश में इस बार मामला फ़िफ़्टी-फ़िफ़्टी है। मोदी (और भाजपा) को यह डर सता रहा है कि राज्य में इस बार भी पार्टी को अगर 80 लोकसभा सीटों में से 71 न मिलीं (जैसा कि 2014 में हुआ था)तब क्या होगाऔर इस डर की वजह हैसमाजवादी पार्टी (सपा)बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) का गठबंधन। इस गठबंधन ने मोदी व भाजपा के सामने कड़ी चुनौती पेश कर दी है कि इस बार उत्तर प्रदेश की राह आसान नहीं है।

सपा-बसपा-रालोद गठबंधन के व्यापकऔर फ़िलहाल टिकाऊसामाजिक-राजनीतिक आधार ने काफ़ी दूर तकऔर ज़मीनी स्तर परअसर पैदा किया है। यह गठबंधन उत्तर प्रदेश में राजनीतिक बातचीत व विमर्श के केंद्र में आ गया है। यह महत्वपूर्ण परिघटना है। इस गठबंधन कोकम-से-कम उत्तर प्रदेश के संदर्भ में, नरेंद्र मोदी व भाजपा के विकल्प के तौर पर देखा जाने लगा है। पहले जहां सिर्फ़ मोदी-मोदी-मोदी का शोर सुनायी देता थावहां अब अखिलेश यादव (सपा)मायावती (बसपा) व अजित सिंह (राष्ट्रीय लोकदल) के बारे में भी लोकप्रिय चर्चा के लिए पर्याप्त जगह बन गयी है। इसी मेंकांग्रेस भीजो गठबंधन का हिस्सा नहीं हैअपने लिए जगह तलाशती नज़र आ रही है।

इस चीज़ ने मोदी व भाजपा को बहुत परेशान व बेचैन कर दिया है। उन्हें दिखायी दे रहा है कि सपा-बसपा-रालोद गठबंधन के चलते उत्तर प्रदेश में भाजपा के लिए 2014 की जीत को दोहरा पाने की संभावना लगभग नामुमकिन हो चली है। ग़ौर करने की बात यह है कि 2014 में केंद्र में भाजपा और नरेंद्र मोदी की जो सरकार बनी थीउसके पीछे उत्तर प्रदेश का निर्णायक हाथ थाराज्य में कुल 80 लोकसभा सीटों में से 71 पर भाजपा ने जीत हासिल की थी और दो सीटों पर उसकी सहयोगी पार्टी (अपना दल) को जीत मिली थी। यह ‘निर्णायक हाथ’ इस बार भी मोदी व भाजपा को मिलेगाइस पर सपा-बसपा-रालोद गठबंधन ने गंभीर सवालिया निशान लगा दिया है।

यही इस गठबंधन की सफलता है। हालांकि कुछ लोकसभा सीटों परजैसे लखनऊ व बनारसउम्मीदवारों का चयन करते समय उसने राजनीतिक समझदारी का परिचय नहीं दिया। लेकिन गठबंधन ने जनता को यह मज़बूत संदेश ज़रूर दिया है कि मोदी व भाजपा को चुनौती और टक्कर देनाऔर लड़ाई में टिके रहनामुमकिन है।

(लेखक वरिष्ठ कवि और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)

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