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चुनाव 2019: मोदी सरकार की पसंदीदा योजनाओं की सच्चाई, भाग-1

बीजेपी के अगुवाई वाली मोदी सरकार दावा कर रही है कि उसके प्रमुख योजनाओं ने करोड़ों भारतीयों की ज़िंदगी को बदल दी है। लेकिन आंकड़ों के पड़ताल से पता चलता है कि ये ज़मीनी सच्चाई से काफी दूर है।
सांकेतिक तस्वीर

आगामी लोकसभा चुनावों के लिए भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के प्रचारों में मोदी सरकार द्वारा शुरु की गई तथाकथित प्रमुख योजनाएं शामिल हैं। इनमें मुफ्त रसोई गैस कनेक्शन 'प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना’, बैंक खाता 'जन धन योजना’, फसल बीमा 'प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना’, स्वच्छ और खुले में शौच मुक्त भारत 'स्वच्छ भारत’ समेत अन्य योजनाएं शामिल हैं।

क्या सरकार के आंकड़े सही हैं? क्या लोगों को इन सभी के लाभ मिल रहे हैं? क्या वे इन योजनाओं के कारण बीजेपी का समर्थन कर रहे हैं? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो हर किसी को हैरान कर रहे हैं। निम्नलिखित विश्लेषणों से इन प्रश्नों के उत्तर मिल सकते हैं।

महंगे रसोई गैस - प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना

सरकार दावा करती है कि पीएमयूवाई के तहत ग़रीबी रेखा से नीचे रहने वाले ग्रामीण परिवारों को सात करोड़ से अधिक रसोई गैस कनेक्शन दिए गए हैं।

यह एक मिथक है कि लोगों को मुफ्त कनेक्शन मिला है। वे चूल्हा और गैस सिलेंडर के लिए 1,600 रुपये का भुगतान करते हैं। ज़्यादातर ग़रीब परिवार इस रक़म का भुगतान करने में असमर्थ हैं और वे इसके लिए गैस एजेंसी को किस्तों में अदा करते हैं। वे अब भी क़र्ज़ चुका रहे हैं। इस साल के जनवरी तक उपभोक्ताओं ने कथित रूप से इस मुफ्त गैस सिलेंडर के लिए 9,968 करोड़ रुपये का भुगतान किया। सरकार सप्लायर कंपनी को हर कनेक्शन के लिए सब्सिडी के रूप में 1,600 रुपये का भुगतान करती है।

सरकार द्वारा संसद में दिए उत्तर के अनुसार 2016 में शुरू की गई योजना के बाद से अब तक उज्जवला उपभोक्ताओं द्वारा औसत रिफिल केवल 3.68 सिलेंडर हैं।

गैर-उज्जवला ग्राहकों से 6.8 सिलेंडर के औसत रीफिल की इसकी तुलना करें। ऐसा इसलिए क्योंकि उज्ज्वला उपभोक्ताओं के पास इस रिफिल के लिए एक बार में 500 रुपये का भुगतान करने की क्षमता नहीं है। मई 2016 में पीएमयूवाई शुरू होने के बाद से सरकार द्वारा सब्सिडी वाली गैस की कीमतों में लगभग 18% की वृद्धि की गई है। हर हालत में ये सब्सिडी उपभोक्ताओं के बैंक खाते में काफी बाद में जमा की जाती है।

देश भर में 25.12 करोड़ ग्राहकों को आपूर्ति करने के लिए 22,328 एलपीजी वितरक हैं। एक वितरक के पास 11,000 ग्राहक हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में भंडारण का स्थान कम होने के कारण आपूर्ति में काफी देरी होती है। लोगों को अक्सर सिलेंडर लाने के लिए मजबूर किया जाता है जिससे एक दिन के देहारी का नुकसान होता साथ ही परिवहन ख़र्च भी सहन करना पड़ता है।

किसानों के संकट से लाभ उठाना- पीएम फसल बीमा योजना

मोदी की सबसे कुटिल योजनाओं में से एक फसल बीमा योजना (पीएम-एफबीवाई) है। मौसमी आपदाओं के कारण नुकसान उठाने वाले किसानों को सरकार सीधे मुआवजा प्रदान करने के बजाय कॉर्पोरेटों की मित्र मोदी सरकार ने किसानों के संकट को बीमा कंपनियों के लिए लाभकारी योजना में बदल दिया। सरकार पहले किसानों के सीधे मुआवजा देती थी। किसान कंपनियों को कुछ प्रीमियम का भुगतान करते हैं लेकिन प्रीमियम का बड़ा हिस्सा सरकार द्वारा ही भुगतान किया जाता है और फिर अगर कोई आपदा आती है तो कंपनी मुआवजा देगी।

साल 2016 के खरीफ सीज़न से शुरू हुए इस योजना के तहत इन दो वर्षों में बीमा कंपनियों ने कुल 50,036 करोड़ रुपये का प्रीमियम इकट्ठा किया जिसमें कुल Rs.35,949 करोड़ के मुआवजे का ही भुगतान किया और लाभ के रूप में Rs.14,088 करोड़ की बचत किया!

इस प्रीमियम में 8,719 करोड़ रुपये किसानों का योगदान और केंद्र तथा राज्य सरकारों का संयुक्त रूप से 41,317 करोड़ रुपये का योगदान है जो सीधे बीमा कंपनियों की जेब में जा रहे हैं।

इसके विपरीत किसानों को दिया गया मुआवजा मामूली है और वह भी फसलों के बर्बाद हो जाने के कई महीनों बाद किसानों ने प्राप्त किया है। बर्बाद करने वाली इस व्यवस्था के परिणामस्वरूप किसानों के नाम दर्ज करने में कमी आई है। इस बीच बीमा कंपनियां आसानी से भारी रक़म हासिल कर रही हैं।

खाता खाली - प्रधानमंत्री जन धन योजना

इस योजना का उद्देश्य "वित्तीय समावेशन" के लिए बैंक खाता खोलना था जो वर्ष 2014 में शुरू हुई। लगभग पांच वर्षों में ऐसा लगता है कि इसकी मुख्य उपलब्धि बड़ी संख्या में लोगों को ज़ीरो बैलेंस वाला बैंक खाता प्रदान करना है। हालांकि इनमें से कई लोगों के पास पहले से ही बचत खाते थें।

इस साल मार्च में पीएमजेडीवाई की वेबसाइट पर जानकारी दी गई कि 34.87 करोड़ जन धन खाते हैं जिनमें Rs.93,567 करोड़ जमा हैं। जिसका मतलब प्रति खाता 2,683 रुपये हुआ!

मोदी शायद यह नहीं जानते हैं कि वास्तविक वित्तीय समावेशन तभी होता है जब कामकाजी लोगों को बेहतर वेतन और आय प्राप्त होती है न कि केवल बैंक खाते खोलने से।

सरकार ने इस साल जनवरी में राज्यसभा को जानकारी दिया कि इनमें से लगभग 5.2 करोड़ बैंक खातों में शून्य राशि थी। ओवरड्राफ्ट सुविधा दिसंबर 2017 तक इन खाताधारकों के 1% (31.74 लाख) लोगों ने भी इस्तेमाल नहीं किया था।

बीमा सुविधा का आंकड़ा और भी ज़्यादा निराशाजनक था: जनवरी 2018 तक 13.62 करोड़ रुपये के 4,543 जीवन बीमा क्लेम और 23.40 करोड़ रुपये के 2,340 दुर्घटना क्लेम का ही भुगतान किया गया है। ये मामूली आंकड़े बताते हैं कि "वित्तीय समावेशन" वास्तव में कितना बेहतर हुआ है।

इस पूरे योजना ने वास्तव में बैंकों द्वारा ऋण देने और निवेश करने के लिए ग़रीब लोगों से करोड़ों रुपये जुटाने और कंपनियों को बीमा प्रीमियम हस्तानांतरित करने के उद्देश्य से कार्य किया है।

स्वच्छ भारत मिशन

पीएम मोदी की ये पसंदीदा योजना भी आंकड़ों की बाजीगरी और फोटो खिंचवाने में ही ख़त्म हो गई। हालाेकि शुरू में इसके कई उद्देश्य थे। ये मिशन जल्द ही केवल शौचालयों का निर्माण करने और खुले में शौच मुक्त (ओडीएफ) क्षेत्रों की घोषणा करने तक ही सीमित हो गया।

सरकार का दावा है कि 32 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में से 30 अब खुले में शौच मुक्त हो गए हैं लेकिन विभिन्न राज्यों में अभी भी चल रहे इन कार्यों पर कई रिपोर्ट हैं जो इस आंकड़े की विश्वसनीयता पर सवाल उठा रहे हैं। ऐसी रिपोर्टें गुजरात, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के खुले में शौच मुक्त कई स्व-घोषित गांवों से आई हैं। इस बीच इस योजना के लिए बजट में लगातार कटौती की गई है।

सरकार द्वारा दिए गए इन कुटिल आंकड़ों को चित्रित करते हुए एसबीएम वेबसाइट का कहना है कि 15.5 करोड़ ग्रामीण परिवार हैं। जनगणना 2011 ने 18 करोड़ बताया था जो 2019 तक बढ़कर 20 करोड़ हो गई। लक्ष्य को कम करते हुए सरकार ने ज्यादातर घरों में शौचालय बनाने का दावा किया। पांच करोड़ ग़ायब परिवारों का क्या है? कोई नहीं जानता है।

मोदी सरकार ने मैनुअल स्कैवेंजिंग (मनुष्य द्वारा नाले की सफाई) से संबंधित परेशानी को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ कर दिया है जो ज्यों का त्यों है। इस प्रतिबंधित कार्य में ज़्यादातर दलित लोग लगे हुए। वर्ष 2017 से 300 से अधिक लोगों ने अपनी जान गंवा दी है। इस जानलेवा प्रथा को समाप्त करने को गंभीरता से लिए बिना सरकार ने हाथ से सफाई करने वालों के पुनर्वास के लिए मामूली रक़म आवंटित करके सिर्फ बयानबाजी करती रही है। सरकार ने इसे समाप्त करने के लिए तकनीक में कोई निवेश नहीं किया है।

इस बीच स्वच्छ भारत अभियान को जबरन लागू करने के मामले में खुले में शौच करने वालों की फोटोग्राफी और ड्रोन का इस्तेमाल भी शामिल है। इस तरह के बलपूर्वक लागू किए गए तरीक़ों से झूठी घोषणाओं का ख़तरा पैदा हो जाता है जो समस्या को हल करने के बजाय इसे दबा देगा।
 

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