भाजपा का नया अभियान— पसमांदा मुसलमानों से मिलेंगे ‘मोदी मित्र’

अपनी टीम में मुसलमानों को 12वें खिलाड़ी की तरह इस्तेमाल करने वाली भारतीय जनता पार्टी एक बार फिर उन्ही की शरण में नतमस्तक होने के लिए तैयार है। क्यों? क्योंकि आम चुनाव आने वाले हैं। ग़ौर करने वाली बात ये है कि जिस भाजपा के ख़ेमे में एक भी मुस्लिम सांसद नहीं है, एक भी मुस्लिम विधायक नहीं है, जो पार्टी खुले तौर पर 80 बनाम 20 के ज़रिए चुनाव लड़ती हो... वो मुसलमानों से वोट मांगेगी भी तो क्या कहकर?
दरअसल हम बात कर रहे हैं ‘मोदी मित्र’ अभियान की। जिसके तहत पार्टी ने लोकसभा चुनाव 2024 से पहले मुसलमानों के वोट को टारगेट करना शुरू कर दिया है, और इस मुहिम में वो देशभर के पसमांदा मुसलमानों को जोड़ने की कोशिश करेगी।
ऐसे में सबसे पहले बात करेंगे कि पसमांदा कौन हैं? इन्हें मुसलमानों के किस वर्ग में रखा गया है?
वैसे तो इस्लाम वर्गीकरण का विरोध करता है, लेकिन शिया-सुन्नी की तरह हिंदुस्तान में ज़मीनी स्तर पर ये तीन अन्य वर्गों में बंटे हैं। अशराफ, अज़लाफ और अरज़ाल।
अशराफ में आती हैं मुसलमानों की पावरफुल जातियां, ये आर्थिक और सामाजिक दोनों तौर पर संपन्न होते हैं। यानी अगर आर्थिक नहीं तो सामाजिक तौर पर तो संपन्न हैं ही, यानी इसमें आते हैं, पठान, शेख़, मिर्ज़ा मुगल और सैयद। इसके बाद आते हैं अज़लाफ, इसे मध्यम वर्ग का माना जाता है, जैसे- रईनी जो सब्ज़ी बेचते हैं और मोमिन यानी बुनकर।
फिर बारी आती है अरज़ाल की। ये आर्थिक और सामाजिक तौर पर कमज़ोर जातियां मानी जाती हैं, इन जातियों में शामिल लोग साफ-सफाई, बाट काटने, चप्पल-जूते सिलने, चमड़े से जुड़े काम इत्यादि करते हैं। इन्ही जातियों में शामिल लोग ख़ुद को पसमांदा कहते हैं।
वैसे तो पसमांदा शब्द का अर्थ ही इनकी स्थिति बयां करता है, जैसे फारसी में इसका मतलब होता है जिन्हें पीछे छोड़ दिया गया हो। मतलब पिछड़ा, दलित, और आदिवासी मुस्लिम ख़ुद को पसमांदा कहते हैं।
कहा जाता है कि देशभर में मुस्लिमों के भीतर पसमांदा की आबादी करीब 85 प्रतिशत है, यही कारण है कि भाजपा सीधे तौर पर इन्हें टारगेट कर रही है। इसी को लेकर भाजपा अपने ‘मोदी मित्र’ अभियान की शुरुआत 10 मई से कर रही है।
‘मोदी मित्र’ अभियान के मुताबिक भाजपा अल्पसंख्यक मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जमाल सिद्दीकी मीडिया में बयान देते हैं कि अभियान के तहत 3 लाख 25 हजार मुस्लिम ‘मोदी मित्र’ देश भर के 65 मुस्लिम बहुल लोकसभा क्षेत्रों में प्रधानमंत्री मोदी के साथ केंद्र की मुस्लिम कल्याणकारी योजनाओं का प्रचार करेंगे। प्रचार के लिए चुने गए क्षेत्रों में 30 प्रतिशत से ज़्यादा मुस्लिम वोटर हैं। इनमें उत्तर प्रदेश-बंगाल के 13-13, केरल के 8, असम के 6, जम्मू-कश्मीर के 5, बिहार के 4, मध्यप्रदेश के 3, महाराष्ट्र, दिल्ली, गोवा, तेलंगाना, हरियाणा के 2-2, लद्दाख, लक्षद्वीप, तमिलनाडु का 1-1 लोकसभा क्षेत्र शामिल है।
सिद्दीकी के बयान के मुताबिक अभियान के तहत बताया जाएगा कि भाजपा सरकार की सभी योजनाओं का लाभ बिना भेदभाव के मुसलमानों को मिल रहा है। एक लोकसभा क्षेत्र में 5000 मुस्लिम ‘मोदी मित्र’ रहेंगे। ये प्रोफेसर, डॉक्टर, इंजीनियर, वकीलों जैसे गैर राजनीतिक व्यक्ति होंगे।
भाजपा के इस अभियान के बारे में हमने राजनीतिक विश्लेषक नदीम से बात की, जो ख़ुद पसमांदा समाज से आते हैं। उन्होंने बताया कि देश में ज़्यादातर कांग्रेस की सत्ता रही है, तब उन लोगों ने पसमांदा मुसलमानों के लिए कुछ खास नहीं किया। लेकिन अब जो नरेंद्र मोदी की सरकार कर रही है मैं इसकी सराहना करता हूं, पसमांदा मुसलमान का मतलब सिर्फ जाति से नहीं है, बल्कि इनकी आर्थिक स्थिति को भी समझना होगा। जैसे बाल काटने वाले, गाड़ियां ठीक करने वाले, ये छोटे-मोटे काम करने वाले मुसलमान भी इसी समाज से आते हैं, ऐसे में इनका मुख्यधारा में जुड़ना बेहद महत्वपूर्ण है।
हमने जब सवाल किया कि उत्तर प्रदेश के चुनाव में जब योगी आदित्यनाथ 80 बनाम 20 की बात करते हैं, तब तो वो मुस्लिमों की खुलकर मुखालफत करते हैं और फिर केंद्र भाजपा को 9 साल हो चुके हैं इतनी देर में ऐसा फैसला क्यों लिया?
इसपर उन्होंने जवाब दिया कि देर से आए लेकिन दुरुस्त आए। और रही यूपी में योगी आदित्यनाथ की बात तो उस राज्य में ये उनकी राजनीतिक को सूट करता होगा, इसलिए वो ऐसा कर रहे हैं, हालांकि वो क्षेत्रीय नेता हैं, तो उनकी बातों का देश में ज़्यादा असर नहीं पड़ेगा। और मुस्लिमों को साथ लिए बग़ैर कोई भी पार्टी चुनाव नहीं जीत सकती।
राजनीतिक विश्लेषक के तौर पर नदीम भले ही भाजपा के इस अभियान की तारीफ कर रहे हों, लेकिन कहना उनका भी यही है कि मुस्लिम को साइड कर किसी भी पार्टी की राजनीति आगे नहीं बढ़ सकती।
इस विषय को लेकर जब हमने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर सईद अली नदीम से समझना चाहा, तब उन्होंने कहा कि भाजपा जब से पावर में आई है, सिर्फ धार्मिक समुदाय के सहारे ही चुनाव लड़ती है। बल्कि संविधान में कही नहीं लिखा का मज़हब का इस्तेमाल इस तरह से किया जाए। ये लोग हर समाज का ग़लत तरह से इस्तेमाल करते हैं, ऐसे में हमारे कोर्ट्स, जांच एजेंसियों की ज़िम्मेदारी है कि इसका संज्ञान लें। उन्होंने बताया कि सवाल ये भी है कि ये लोग एक जगह कम्युनिटी के खिलाफ बयान देते हैं, दूसरी जगह उन्हें लालच दे रहे हैं। ऐसे बरगलाना सही नहीं है। प्रोफेसर सईद ने कहा कि हिंदू हो या मुसलमान वोट अपने तरीके से देता है।
अगर प्रोफेसर सईद की बरगलाने वाली बात पर ध्यान दिया जाए, तो पिछले दिनों हमने देखा कि उत्तर प्रदेश के बड़े नेता आज़म खान को भाजपा ने खत्म करने की पूरी कोशिश की। तमाम कानूनी दांवपेच से उनकी विधायकी छीन ली गई, उनके वोट देने का अधिकार तक छीन लिया गया। लंबे वक्त तक उनपर कानूनी कार्रवाई हुई और उन्हें जेल में बंद रखा गया। जबकि प्रदेश का बड़ा मुसलमान तबका समेत हिंदू वोटर भी उन्हें अपना नेता मानता है।
मुसलमानों के खिलाफ भाजपा की राजनीति की एक और मिसाल देखनी हो तो गुजरात की बिलकीस बानो का मामला उठाकर देख लेना चाहिए। दरअसल बिलकीस बानो पसमांदा से ही संबंध रखती है, लेकिन उनके बलात्कारियों को और परिवार की हत्या करने वालों को भाजपा ने रिहा कराया, टिकट देकर जिताया, यानी यहां इतना तो साफ है कि मुसलमानों में भी भाजपा अगड़ों और पिछड़ों की राजनीतिक का ध्रुवीकरण कर अपने वोट साधने की कोशिश कर रही है। और मुसलमानों के भीतर अगड़ा-पिछड़ा ध्रुवीकरण करने के लिए भाजपा का पूरा साथ संघ की ओर से भी किया जा रहा है। पिछले दिनों की ही बात है जब हिंदुत्व की विचारधारा के सबसे बड़े संगठन, राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के मोहन भागवत भी कह रहे थे कि बिना मुसलमानों के हिंदुत्व नहीं।
यानी इसे बस ऐसे समझ सकते हैं, कि मोदी जहां पिछड़े मुसलमानों का हिस्सा सैयदों-पठानों ने हड़प लिया जैसी बातें करते हैं, तो संघ प्रमुख मोहन भागवत लेफ्टिनेंट जनरल ज़मीरूद्दीन शाह, पूर्व चुनाव आयुक्त एसवाई क़ुरैशी, उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार शाहिद सिद्दीक़ी से लेकर जमीयत-ए-उलेमा-ए-हिंद के मौलाना अरशद मदनी तक से मिलते रहे हैं।
यानी ये कहना ग़लत नहीं होगा कि भाजपा सीधे तौर पर अब पिछड़ा समाज के मुसलमान यानी पसमांदा को राजनीतिक तौर पर साध रही है, तो बड़े कद के मुसलमानों जैसे बोहरा समाज को साधने का जिम्मा संघ ने उठा लिया है, और ये जगज़ाहिर कि संघ और भाजपा एक-दूसरे के ही पर्याय हैं।
ख़ैर... इन सबसे दूर भले ही भाजपा दो राज्यों में मुसलमानों के लिए दो अलग-अलग तरह से बात करे, लेकिन उसे पता है कि अब चुनाव लोकसभा के हैं, यानी बात देश की है तो बग़ैर मुसलमानों को जोड़ कुछ नहीं हो सकता। यही कारण है कि पहली बार किसी नगरीय चुनाव में ऐसा हुआ है जब भाजपा ने तकरीबन 350 मुस्लिम उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतारे हैं, वो भी उत्तर प्रदेश में जहां 80 लोकसभा सीटें आती हैं। उसमें भी इनमें प्रयागराज, वाराणसी, गोरखपुर, लखनऊ, झांसी, आगरा, फिरोजाबाद और मथुरा नगर निगम शामिल हैं। जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी नगर निगम में भी भाजपा ने 4 वार्ड में मुस्लिम उम्मीदवारों को पार्षद का टिकट दिया है तो वहीं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के क्षेत्र गोरखपुर में भी पार्षद का टिकट मुस्लिम समाज के लोगों को दिया गया है। लखनऊ के अलावा, झांसी, आगरा, फिरोजाबाद और मथुरा नगर निगम में भी भाजपा ने इस बार पार्षद के पद पर अल्पसंख्यक समुदाय के उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतारा है।
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यानी साफ है कि विधानसभा चुनाव चाहे जिन नारों और मुद्दों पर लड़े गए हों, लेकिन लोकसभा चुनाव राष्ट्रीय राजनीति के तहत ही लड़े जाएंगे, जिसमें ध्रुवीकरण तो होगा, लेकिन वक्त के हिसाब से।
इसे ज़्यादा समझने के लिए हमने सीएसडीएस के सदस्य हिलाल अहमद से बातचीत की... उन्होंने पसमांदा और भाजपा की वोट प्रक्रिया को बड़े विस्तार से समझाया। हिलाल ने बताया कि बुनियादी तौर पर जो चुनाव प्रणाली है, वो निर्वाचन क्षेत्र के स्तर पर होती है, ज़रूरी नहीं होता है कि आपको कैसे एक खास समुदाय के लोग मत करें, बल्कि ज़रूरी ये होता है, जिन्होंने आपको वोट नहीं किया है उनको नियंत्रित कैसे करें, या उनका बिखराव कैसे करें। ताकि आपकी जीत पर कोई असर न पड़े।
देखा जाए तो पसमांदा आंदोलन एक सामाजिक विषय हैं जिसके तीन आयाम हैं, जिसमें पहला कानूनी है, जिसके तहत पिछड़ा वर्ग के पसमांदा को अनुसूचित जाति में शामिल करना है। दूसरा तरीका राजनीतिक है, जिसमें भाजपा की सराहना करनी होगी कि पसमांदा के विषय को फायदे के लिए ही सही लेकिन मुखरता से उठाया है, इससे पहले सिर्फ जेडीयू के नीतीश कुमार ने ऐसा किया था। तीसरा है सामाजिक व्यवस्था, जिसमें मुसलमानों के भीतर कोई सुधार नहीं है, ये अपनी जातियों में बहुत उलझे हुए हैं, और सुधरने की कोई ज़द्दोज़हद भी नहीं है।
अब बात कि भाजपा क्यों पसमांदा की बात करती है, तो इसे ऐसे समझिए कि भाजपा के लिए वोट देने वालों की तीन कैटेगरी हैं।
पहले वो लोग जो हिंदुत्व के नज़रिए के साथ हैं, यानी कर्तव्य निष्ठावान वोटर हैं। दूसरे वो जो वैचारिक तौर पर सहानुभूति रखने वाले वोटर हैं, लेकिन उनकी सहानुभूति कर्तव्यवान या निष्ठावान नहीं होती है। तीसरे वो जिन्हें हम फ्लोटिंग वोटर कह सकते हैं यानी वो जिन्होंने अपना मन नहीं बनाया है। अब अगर 2014 के बाद से देखें तो भाजपा को कमिटेड और फ्लोटिंग वाले वोट ज़्यादा मिले हैं।
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खैर.. वैसे पिछले दिनों देश में मुसलमानों के ख़िलाफ कभी रामनवमी को लेकर या कभी ईद को लेकर माहौल तैयार किया गया या गिरफ्तारियां की गईं, और उस कारण जो भी वोट भाजपा से दूर हुए हैं, अपनी मोदी मित्र की रणनीति के ज़रिए पार्टी फिर से उसे पाने की कोशिश में लग गई है। यानी भाजपा को पीछे के रास्ते से ही सही लेकिन देश के 20 प्रतिशत मुसलमानों के वोट के लिए रणनीति बनानी पड़ रही है।
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