बीरभूम नरसंहार ने तृणमूल की ख़ामियों को किया उजागर

पश्चिम बंगाल के बोगटुई गांव में सोमवार को हुए नरसंहार में राज्य की सत्ताधारी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) में जो चल रहा है यह उसका आईना था। मुख्य रूप से, सत्ताधारी पार्टी चुनाव जीतने के लिए स्थानीय ठगों पर काफी निर्भर है और उन पर नेतृत्व का कोई नियंत्रण नहीं है।
अब ऐसा लग रहा है कि बीरभूम जिले के रामपुरहाट शहर के बाहरी इलाके के बोगतुई गांव में हिंसा और आपराधिक गतिविधियों का इतिहास रहा है। यही कारण था कि इस इलाके में बेहतर पुलिस व्यवस्था होनी चाहिए थी। और नतीजा यह हुआ की, जब स्थानीय टीएमसी बॉस और बरशाल ग्राम पंचायत के उप-प्रमुख शेख भादु की गोली मारकर हत्या कर दी गई, तो उनके समर्थकों को बदले की कार्यवाही के लिए बेलागाम छोड़ दिया गया – और उन्होने विरोधी गुट पर हमला किया और कई घरों में आग लगा दी, जिसमें आठ लोग जिंदा जल गए थे।
भादु की कहानी अपने आप में एक चौंकने वाली कहानी है। टीएमसी के सत्ता में आने से पहले वह डिहाड़ी मजदूर था, उसने धीरे-धीरे अवैध रेत खनन, पत्थर उत्खनन और बम और अन्य हथियारों के निर्माण पर नियंत्रण कर लिया जिसके कारण यह इलाका हिंसा में झुलस गया था। राजनीतिक विपक्ष की अनुपस्थिति के कारण जिले में गुटीय टकरावों को बढ़ाने में ईंधन का काम किया और नतीजतन यह नरसंहार हुआ।
जाहिर है, सरकार को तत्काल, दोनों अपराधों के अपराधियों की पहचान करनी चाहिए और उन्हें दंडित किया जाना चाहिए, और जल्द ही बंगाल के सत्तारूढ़ दल को कानून की अवहेलना करने वाले अड़ियल स्थानीय सामंतों को आड़े हाथों लेना होगा और राज्य में बढ़ती राजनीतिक हिंसा को नियंत्रित करना होगा।
ऐसा कर, हम देश के सबसे हिंसक और जहरीले राजनीतिक दल, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की बचकानी मांग कि बंगाल पर केंद्रीय शासन लगाया जाए, को आसानी से खारिज कर सकते हैं, और इस घटना पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नाटकीयता को भी नज़रअंदाज़ कर सकते हैं। हम सभी जानते हैं कि उन्होंने उनके पार्टी और संघ परिवार के अन्य घटकों द्वारा की गई हिंसा के शिकार लोगों की बड़ी संख्या के प्रति कितनी सहानुभूति महसूस की है या व्यक्त की है।
फिलहाल, बोगटुई पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय बंगाल के व्यापक राजनीतिक संदर्भ को देखना अधिक उपयोगी होगा। बालीगंज विधानसभा क्षेत्र और आसनसोल संसदीय क्षेत्र में 12 अप्रैल को होने वाले उपचुनाव के संदर्भ में इसे देखना होगा। वास्तविक और तात्कालिक प्रभाव की दृष्टि से न तो उपचुनाव महत्वपूर्ण है, बल्कि सांकेतिक रूप से और दीर्घकालिक दृष्टिकोण से दोनों ही महत्वपूर्ण हैं।
तृणमूल कांग्रेस ने आसनसोल से भाजपा के पूर्व सांसद, बाबुल सुप्रियो को बालीगंज विधानसभा सीट से उम्मीदवार बनाया है, जिन्होने पिछले साल बंगाल में विधानसभा चुनाव के तुरंत बाद पाला बदल लिया था। उनके सामने सबसे विश्वसनीय चुनौती वाम मोर्चा की उम्मीदवार सायरा शाह हलीम हैं। आसनसोल में टीएमसी ने बीजेपी के पूर्व नेता और बाद में कांग्रेस में शामिल हुए शत्रुघ्न सिन्हा को उम्मीदवार बनाया है। उनका सीधा मुकाबला भाजपा के अग्निमित्र पॉल से होगा, जो वर्तमान में आसनसोल दक्षिण से भाजपा विधायक हैं और वाम मोर्चे के पार्थ मुखर्जी यहाँ से उम्मीदवार हैं।
टीएमसी के विशाल बहुमत को देखते हुए बालीगंज के परिणाम से कुछ भी नहीं बदलेगा, लेकिन यह एक प्रतिष्ठित निर्वाचन क्षेत्र है, जिसका प्रतिनिधित्व टीएमसी के सुब्रत मुखर्जी ने किया है, जो एक बड़े राजनीतिक व्यक्ति थे, और जिनकी पिछले साल नवंबर में मृत्यु हो गई थी। टीएमसी इसे खोने का खामियाज़ा नहीं उठा सकती है। यह निर्वाचन क्षेत्र 1971 से 1977 तक कांग्रेस के पास रहा था। 1977 से 2006 तक इस पर माकपा का कब्जा रहा। उसके बाद से यह टीएमसी के पास है। यहां 2006 में जावेद अहमद खान जीते थे, जिसके बाद मुखर्जी 2011, 2016 और 2021 में बालीगंज जीते थे।
हालांकि टीएमसी ने पिछले साल के विधानसभा चुनाव में दक्षिण बंगाल में जीत हासिल की थी, लेकिन इस बार बालीगंज सीट पर जीत हासिल करना मुश्किल साबित हो सकता है क्योंकि पार्टी ने एक ऐसे उम्मीदवार को चुना है जिसका धर्मनिरपेक्ष राजनीति का रिकॉर्ड संदेहास्पद रहा है। माना जाता है कि 2018 में आसनसोल में हुए सांप्रदायिक दंगों में सुप्रियो की भूमिका थी और प्रमुख मुस्लिम मौलवियों ने पहले ही कह दिया है कि वे उनका समर्थन नहीं करेंगे। इस तथ्य के अलावा कि बालीगंज निर्वाचन क्षेत्र में पर्याप्त मुस्लिम आबादी है, यह संभावना नहीं है कि बहुत सारे लोग जो भाजपा की विभाजनकारी राजनीति के ब्रांड के खिलाफ हैं, उनके लिए मतदान करने में असहज होंगे।
ज़मीन पर हालांकि एक और मुद्दा है: कि बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सुप्रियो को अपनी पार्टी में शामिल करके और उन्हें बालीगंज के लिए नामित करके धर्मनिरपेक्ष राजनीति और अल्पसंख्यक अधिकारों के चैंपियन होने के अपने दावे को कमजोर कर दिया है। इस प्रकार, हलीम बाहरी व्यक्ति नहीं होगी।
हालाँकि, आसनसोल की सीट एक अन्य दृष्टिकोण से अधिक महत्वपूर्ण साबित हो सकती है। 2014 में, भाजपा ने बंगाल से केवल दो लोकसभा सीटें जीती थीं- दार्जिलिंग, जो उनके पास थी, और आसनसोल, जिस पर सुप्रियो चुनाव लड़े थे। 2019 में, जब भाजपा ने 18 सीटें जीतीं, तो आसनसोल उनमें से एक था। इस लिहाज से आसनसोल दक्षिण बंगाल में भाजपा की किस्मत का सूचक हो सकता है। अगर टीएमसी यह सीट जीत जाती है तो इसका मतलब बंगाल में बीजेपी के लिए खराब समय का आना हो सकता है।
जैसा कि हुआ है, भाजपा ने 2021 के विधानसभा चुनाव में बड़ी तादाद में धन खर्च किया था और बड़े पैमाने पर केडर लगाया था लेकिन बावजूद इसके वह राज्य में चुनाव हार गई थी। इस हार के कारण, मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की प्रतिष्ठा दांव पर लग गई थी। इसलिए चुनावी नतीजे पार्टी के लिए अच्छे नहीं रहे।
कहीं भी किसी भी पार्टी के लिए भारी जनादेश अस्वस्थ या हानिकारक होता है। बंगाल और देश में विश्वसनीय विपक्ष जरूरी है। दुर्भाग्य से, भाजपा के देश की सत्ता में रहते हुए विभाजनकारी नीतियाँ लागू करना और शासन के बारे में अनभिज्ञ होने के साथ वह राज्य में एक स्वस्थ विपक्ष देने में असमर्थ रही है। मोदी के तहत, विशेष रूप से, चुनाव हारने के बाद पार्टी अन्य दलों के विधायकों को दल-बदल कराती है या चुनी हुई सरकारों को हटाने का काम करती है, या जहां यह संभव है, मौजूदा व्यवस्था को शर्मिंदा करने के लिए सांप्रदायिक विभाजन पैदा पैदा करती है।
यही कारण है कि बंगाल में बहुत से लोग वामपंथ की वापसी की प्रतीक्षा कर रहे हैं। पिछले साल और इस साल के अंत में शहरी स्थानीय निकायों के चुनावों से इस तरह के संकेत मिल रहे हैं कि वामपंथ राज्य में मुख्य विपक्षी दल की स्थिति को फिर से हासिल करने के लिए तैयार हो रहा है।
मार्च के मध्य में सम्पन्न हुए 26वें राज्य सम्मेलन में बंगाल सीपीआई (एम) मे नेत्रत्व में बदलाव और राज्य समिति में नए चेहरों को शामिल करने केसे उत्साह पैदा हुआ है। पूर्व सांसद मोहम्मद सलीम द्वारा राज्य सचिव के रूप में सूर्यकांत मिश्रा की जगह लेने से पार्टी में और अधिक गतिशीलता की उम्मीद है। रिपोर्ट्स की मानें तो पार्टी कार्यकर्ताओं में नई आशा और उम्मीद पैदा हुई है।
यह अभी भी एक लंबी दौड़ है, लेकिन बालीगंज में जीत हासिल करने से बंगाल में राजनीतिक क्षेत्र का पुनर्गठन हो सकता है। वहीं, आसनसोल चुनाव हारने से भाजपा कुछ समय के लिए बट्टे खाते में चली जाएगी।
लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार और शोधकर्ता हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।
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