अंत में नरेंद्र दाभोलकर ही जीतेंगे!

केरल में भयंकर बाढ़ आयी है।चारों तरफ अफरा-तफरी मची है। सब एक -दूसरे का हाथ पकड़कर इस तबाही को कम करने के लिए लड़ रहे हैं। लेकिन इन सबके बीच कोई खड़ा होता है और यह कहता है कि सबरीमाला में महिलओं के प्रवेश की वजह से केरल इस भयंकर त्रासदी से गुजर रहा है। इस बेतुकी बात और अन्धविश्वास पर हम गुस्सा हो सकते हैं। लेकिन अंधविश्वास हमारे समाज की गहरी सच्चाई है। अंधविश्वास की जकड़न हमारे सामज के प्रबुद्ध वर्ग से लेकर गरीब वर्ग तक बिछी है। कुछ लोग हिम्मत करते हैं। इसके खिलाफ लड़ते हैं। समय को सुधारने की जिंदगी जीते हैं और समाज उन्हें मार देता है।
विख्यात अन्धविश्वास विरोधी कार्यकर्ता नरेंद्र दाभोलकर को मरे हुए आज पूरे पांच साल हो गए। दबे मुँह सब कहते हैं कि इनकी हत्या में सनातन संस्था की भूमिका रही है। लेकिन महराष्ट्र हाई कोर्ट द्वारा गठित स्पेशल इन्वेस्टीगेशन टीम और सीबीआई की टीम अभी तक पकड़ा-पकड़ी का खेल ही खेल रही है। पिछले पांच साल में सीबीआई की टीम ने कुछ लोगों को पकड़ा, कार्यवाही चली और छोड़ दिया। अभी दो दिन पहले ही इस हत्या के मामलें में एक और व्यक्ति को पकड़ा गया है। अब देखने वाली बात यह होगी कि इस पकड़ा-पकड़ी के खेल का अंत कब होता है और दोषियों को सज़ा कब मिलती है।
डॉI नरेन्द्र अच्युत दाभोलकर का जन्म एक नवंबर 1945 में महाराष्ट्र के सातारा ज़िले में हुआ। एमबीबीएस की पढाई पूरी करने के बाद डॉक्टर बनने की बजाए उन्होंने खुद सामाजिक कार्यों में झोंक दिया। अपने अंतिम वक्तव्य में दाभोलकर कहते हैं "MBBS करने के बाद किसी का क्या सपना होता है? जल्दी से जल्दी एक कार खरीद ले, अपना घर बना ले या फिर बड़ा अस्पताल खोल ले। इन सबके के बजाय मेरा सपना बहुत छोटा था। डॉक्टरी के पेशे को छोड़ कर जल्दी से जल्दी आंदोलन के साथ काम करना चाह रहा था। हमारे काम के चार सिद्धांत रहे हैं- वैज्ञानिक दृष्टिकोण का प्रसार करना और अपनी जिंदगियों में इसका अमल करना, अन्धविश्वास के खिलाफ खड़ा होना, धर्म का मूल्यांकन करना और बड़े पैमाने पर सामाजिक आंदोलन में हिस्सेदारी करना। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से हमारा मतलब है कि दुनिया की हर घटना के पीछे कारण होता है, कारणों को हम अपनी बुद्धि से समझ सकते हैं, अभी भी हमारे पास कई सवालों के जवाब नहीं हैI मुझे अभी भी नहीं मालूम है कि कैंसर किन वजहों से होता है लेकिन इसके बावजूद बतौर इंसान हम इतने काबिल हैं कि किसी घटना के कारणों को समझने पर हम अपनी जानकारी बेहतर कर सकते हैं और अपने स्वभाव को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से रच सकते हैं।"
सन् 1982 से वे अंधविश्वास निर्मूलन आंदोलन के पूर्णकालीन कार्यकर्ता थेI सन् 1989 में उन्होंने महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समीति की स्थापना कीI तब से वे समीति के कार्याध्यक्ष थेI यह संस्था किसी भी तरह के सरकारी अथवा विदेशी सहायता के बिना काम करती हैI इस संगठन की महाराष्ट्र में लगभग 200 शाखाएँ हैंI तब से लेकर अब तक इस संस्था को काम करते हुए तकरीबन 30 साल हो गए। दाभोलकर के साथ तकरीबन 18 साल काम कर चुकी वृंदा ताई कहती हैं, 'दाभोलकर पेशे से डॉक्टर थे। उन्हें लगता था कि लोग इलाज डॉक्टर से करवाते हैं, लेकिन भरोसा जादू-टोने, झाड़-फूंक और टोटकों पर करते हैं। समाज की यह हरकतें दाभोलकर को बहुत परेशान करती थीं और दाभोलकर ने इन्हीं के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया। हम गाँवों में जाते थे, लोगों से बातचीत करते थे, उन्हें सरल भाषा में समझाने की कोशिश करते थे। यह काम बहुत मुश्किल होता था। लोगों के गहरे अन्धविश्वास के साथ-साथ महाराष्ट्र की जात पंचायतें, हमें बहुत भला-बुरा कहती थीं। लेकिन हमारे लिए अन्धविश्वास से लड़ना ही जीवन बन चूका था।'
डॉ दाभोलकर ने पोंगा पंडितों और दंभियों का दंभस्फोट करनेवाली कई पुस्तकों का लेखन कियाI ख़ासकर तथाकथित चमत्कारों के पीछे छिपी हुई वैज्ञानिक सच्चाइयों को उजागर करने पर उन्होंने अधिक ध्यान दियाI ऐसे कैसे झाले भोंदू (ऐसे कैसे बने पोंगा पंडित), अंधश्रद्धा विनाशाय, अंधश्रद्धा: प्रश्नचिन्ह आणि पूर्णविराम (अंधविश्वास: प्रश्नचिन्ह और पूर्णविराम), भ्रम आणि निरास, प्रश्न मनाचे (सवाल मन के) आदि पुस्तक उनमें सम्मिलित हैI उनके विरोधी उन्हें ख़ासतौर पर हिंदू विरोधी मानते आए हैंI बालयोगी विठ्ठललिंग महाराज (अक्कलकोट), 'पेटफाडू' अस्लमबाबा हो या अनुराधाताई अथवा गुलाबबाबा (अकोला) हो या नागपूर की निर्मला माता...जहां भी आडंबर दिखा वहां वे पहुंच जातेI
नरेन्द्र दाभोलकर के जुझारूपन से ही साल 1995 में जब शिव सेना-भाजपा सत्ताधारी थे, विधानसभा में जादूटोना विरोधी क़ानून बनाने का प्रस्ताव पारित किया गयाI लेकिन राजनीतिक स्वार्थ का खेल तब तक चलता रहा जब तक दाभोलकर की हत्या नहीं हुई। दाभोलकर की हत्या के बाद जन आक्रोश के दबाव में पृथ्विराज चव्हाण की सरकार ने अंधश्रद्धा निर्मूलन कानून को पारित किया।
देश के लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने के लिए 42वें संविधान संशोधन के द्वारा संविधान के अनुच्छेद 51 (ए)(एच) में जोड़ा गया, ताकि देश के नागरिकों में वैज्ञानिक सोच मानवीयता और जानने−समझने का जज़्बा विकसित किया जा सके। उन्मादियों ने अन्धविश्वास के खिलाफ लड़ने वाले नरेंद्र दाभोलकर और पंसारे जैसे लोगों को मार दिया। लेकिन समाज के जागरूक लोगों ने इन संघर्षों का तनिक भी सम्मान नहीं किया। आजकल हालात यह है कि मीडिया की सुबह जादू टोना से शुरू होती है। ज्योतिष के प्रोग्राम इसके कमाई का सबसे बड़ा जरिया बन चुके हैं। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ में अंधविश्वास का घुन लग चुका है। दाभोलकर के मामले में केवल सीबीआई ही फेल नहीं हुई है बल्कि हमनें भी अनंत काल से अपने भीतर मौजूद अंधविश्वासों को खारिज नहीं किया है।
ऐसे सवाल सबको चुभते हैं कि दुनिया के इस विशाल चाल चलन में एक अकेला आदमी आखिरकार क्या कर सकता है? किसी अकेले आदमी के लड़ने से आखिरकार क्या बदलाव हो सकता है? डॉक्टर दाभोलकर अपने अंतिम वक्तव्य में कहते हैं कि लोग मुझसे पूछते है आप इतना निश्चिंत कैसे है? इसके जवाब में मैंने कहा, ये बड़ा आसान हैI आज से दो हज़ार साल पहले जिन महिलाओं को पढ़ने नहीं दिया जाता था, हमने उन्हें 1889 में पढ़ाना शुरू किया। पिछले साल और उससे पिछले साल, किसने दसवीं और बारहवीं की परीक्षाओं में टॉप किया। क्या लड़कियां पहले स्थान पर कब्ज़ा नहीं कर रहीI तो किसने जीत हासिल की? दो हज़ार साल की गैर-बराबरी वाली परंपरा ने या कुछ साल पुरानी समानता नेI क्या समानता नहीं जीत रही! तो फिर क्या नरेंद्र दाभोलकर नहीं जीतेंगे।
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