आंकड़ों की बाज़ीगरी से सच छुपाने की कोशिश

आंकड़े सच को बनाते भी हैं और सच को बदलने का भी काम करते हैं। यह कहा जाता है कि आंकड़ों से निष्कर्ष निकालने के मेथड यानी तरीके में अगर बदलाव कर दिया जाए तो सच भी बदल जाता है। इसलिए हमेशा यह तर्क रखा जाता है कि लक्ष्यों के तहत ही आंकड़ों से निष्कर्ष निकालने वाले मेथड भी तय हों।
जनतांत्रिक सरकारों का एक मात्र लक्ष्य लोक-कल्याण होता है। इसलिए जब सरकारें इन लक्ष्यों से नकारती हैं तो उनके कारनामों से जमीनी हकीकत लोक-कल्याण के खिलाफ जाने लगती है। इसी हकीकत को छुपाने के लिए वो आंकड़ों को छुपाती हैं, जिन आंकड़ों को सामने रखती हैं उससे झूठ, सच की तरह जाहिर होता है। सरकार की सांख्यकी से जुड़ी संस्थाएं हकीकत बताने की बजायसरकार की चोरी छिपाने के लिए आंकड़ों की बाजीगरी करने लगती हैं।
भारत की मौजदा सरकार की आंकड़ों की बाजीगरी से परेशान होकर दुनिया भर के 108 अर्थशास्त्रियों और समाज वैज्ञानिकों ने गुस्सा जाहिर करते हुए अपनी आवाज बुलंद की है।
इन प्रतिष्ठित लोगों का कहना है कि आर्थिक आंकड़ें जनकल्याण के औजार होते हैं। जरूरी सरकारी नीतियां योजनाएं बनाने के लिए तो इनकी सबसे अधिक अहमियत होती है। इसके साथ जरूरी सूचनाओं से लैस जागरूक जनता सरकार को उसके कामों के लिए घेर सके, इसके लिए भी आंकड़ों की सबसे अधिक अहमियत होती है। इसलिए यह बहुत अधिक जरूरी हो जाता है कि आंकड़ों के काम में लगी सरकारी संस्थाएं जैसे केन्द्रीय सांख्यिकीय संगठन (सेंट्रल स्टैटिस्टिकल ओर्गेनइजेशन-CSO) और नेशनल सैंपल सर्वे ओर्गेनइजेशन (NSSO) बिना किसी राजनितिक रोक-टोक के अपना काम करते रहें। दशकों से भारत की ये संस्थाएं बहुत ही बेहतरीन तरीके से काम करती हैं। इनके आकलन पर तो आलोचनाएं होती रही हैं लेकिन इनके साख पर कभी भी सवाल नहीं उठा है। ऐसा पहली बार हो रहा है कि इन संस्थाओं पर राजनीतिक दखल-अंदाजी के आरोप लग रहे हैं। कुछ ऐसे उदहारण जहाँ पर राजनीतिक दखल अंदाजी साफ़-साफ देखी गयी।
- साल 2015 की शुरुआत में सेंट्रल स्टैटिस्टिकल ओर्गेनइजेशन (CSO) ने जीडीपी आंकड़ों को दर्शाने के लिए आधार वर्ष ही बदल दिए। यह आधार वर्ष साल 2011-12 कर दिया। इसका फायदा सरकार को हुआ कि इस वजह से जीडीपी ग्रोथ रेट में अधिक बढ़ोतरी दिखनी लगी। जीडीपी के इन रिवाइज्ड एस्टीमेट को अर्थव्यवस्था के बड़े क्षेत्रों जैसे उद्योग, कृषि, सेवा, मैन्युफैक्चरिंग आदि से मिलने वाले आंकड़ों के साथ देखने पर तस्वीर बिलकुल अलग दिखती हैं। जीडीपी आकलन के लिए आधार वर्ष बदलने की वजह से साल2015 के बाद से हर साल जीडीपी से जुड़े किसी भी तरह आंकड़ें सामने आने पर कई तरह की परेशानियां भी समाने आयी। सबसे अजीब तो साल 2016 -17 आने वाले जीडीपी आंकड़ों का रहा। इस साल नोटबंदी लागू की गई थी। आर्थिक काम पूरी तरह चरमरा गए थे। फिर भी जीडीपी ग्रोथ रेट 1.1 फीसदी बढ़ोतरी के साथ 8. 2 फीसदी रही। और यह ग्रोथ रेट दशक की सबसे अधिक ग्रोथ रेट थी। और यह ग्रोथ रेट उन सभी सबूतों से बिलकुल अलग थी, जिसे अर्थशास्त्रियों ने पेश किया था।
- साल 2018 में दो सरकारी संस्थाओं CSO और NSSO ने पिछले दशक की आर्थिक बढ़ोतरी दर्शाने के लिए दो अलग-अलग आंकड़ें प्रस्तुत किये। दोनों द्वारा दर्शाये गए आर्थिक बढ़ोतरी के आंकड़े एक दूसरे से बिलकुल उलट थे। दोनों ने पिछले दशक के बिलकुल अलग आर्थिक बढ़ोतरी के आँकड़ें दर्शाएं। NSSO के आंकड़े को ठन्डे बस्ते में डाल दिया गया और CSO का आंकड़ा जारी किया गया। और यह आंकड़ा भी नीति आयोग ने जारी किया। नीति आयोग ऐसी संस्था है जिनका आंकड़ों के विश्लेषण से कोई लेना देना नहीं होता है।
-पूरे देश में सही तरह से योजनाएं बनाने के लिए और सही लाभार्थियों तक योजनाओं का लाभ पहुँचाने के लिए सांख्यिकी मंत्रालय के अंतर्गत नेशनल सैम्पल सर्वे ऑफिस या संगठन (NSSO) काम करता है। सरकार इस कार्यालय द्वारा बनाये गए साल 2017-18के बेरोजगारी के आंकड़ें को दबा रही थी। इस साल पिछले 45 साल में बेरोज़गारी की दर सबसे अधिक रही है। यानी जब से NSSOबेरोजगारी के आंकड़े जारी कर रहा है तब से बेरोजगारी की दर अब तक सबसे अधिक है। दिसंबर 2018 के पहले हफ्ते में राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग (NSC) ने सर्वे को मंज़ूर कर सरकार के पास भेज दिया लेकिन सरकार उसे दबाकर बैठ गई। यही आरोप लगाते हुए आयोग के प्रभारी प्रमुख मोहनन और एक सदस्य जे वी मीमांसा ने इस्तीफ़ा दे दिया था। बिज़नेस स्टैंडर्ड के सोमेश झा ने इस रिपोर्ट की बातें सामने ला दी हैं। अब सोचिए अगर सरकार खुद यह रिपोर्ट जारी करे कि 2017-18 में बेरोज़गारी की दर 6.1 हो गई थी जो 45 साल में सबसे अधिक है तो सरे बाजार उसकी कारगुजारियों की पोल खुल जाएगी। कहने का मतलब है कि कुल 40 करोड़ काम करने वाले लोगों में तकरीबन ढाई करोड़ लोग ऐसे हैं जिनके पास किसी भी तरह का काम नहीं है। यहां यह समझ लेना जरूरी है कि यह उनकी संख्या है जिनके पास किसी भी तरह का काम नहीं है, इसमें वैसी जनता नहीं शामिल है, जिसके पास डॉक्टर-इंजीनियर की डिग्री है लेकिन काम चपरासी का करना पड़ रहा है। अगर इन्हें भी मिला देंगे तो यह संख्या बहुत अधिक हो सकती है।
इस दौर में हालत इतनी अधिक ख़राब है कि जब भी कोई अर्थशास्त्री सरकार के आंकड़ों पर सवाल उठाता है तो उसके सवाल उठाने के मेथडलॉजी संदेह की नजर से देखे जाने लगती है। सरकार यह नहीं देखती है कि उसकी नोटबंदी और जीएसटी को आनन फानन में लागू करने से अर्थव्यवस्था चरमरा गयी है। साल 2011 के बाद से अब तक भारत में होने वाले इन्वेस्टमेंट में कोई बड़ा इजाफा नहीं हुआ है। और बैंकों के एनपीए बढ़ते जा रहे हैं। यह चारों कारण ऊपरी तौर पर यह साफ़ साफ़ बताते हैं कि भारत की खस्ताहाल अर्थव्यवथा की हकीकत सरकारी आंकड़ें नहीं जाहिर कर रहे हैं। कहने का मतलब यह है कि वैश्विक दृष्टि से बहुत अधिक प्रतिष्ठित भारत के सांख्यिकी संस्थाओं का अस्तित्व खतरें में है। इसलिए बहुत अधिक जरूरी है कि जनतंत्र में ईमानदार विचार-विमर्श कायम रखने के लिए इन संस्थाओं की साख बचायी जाए।
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।