दुनिया भर की: दो समुद्री हादसे, दो दुनियाएं

तकरीबन एक हफ्ते के भीतर समुद्र की गहराइयों में दो बड़े हादसे हुए, दोनों हादसों की वजहें, क्रियाएं और प्रतिक्रियाएं बताती हैं कि हम इस दौर में कैसे दो अलग-अलग दुनियाओं में जी रहे हैं। वीर दास के ‘टू इंडियाज’ के बोल यहां हमें याद आते हैं। दोनों घटनाएं किस तरह से समूची दुनिया के मीडिया में जगह बना पाईं, यह भी इससे साफ होता है।
बुधवार 13-14 जून की रात को ग्रीस के तट से कुछ दूर भूमध्य सागर में लीबिया से आ रही शरणार्थियों की एक नाव समुद्र में पलट गई थी, जिसमें करीब आठ सौ लोग सवार थे। केवल 104 लोग बचाए जा सके। 78 की लाशें मिलीं लेकिन बाकी किसी का कुछ पता नहीं चला। जाहिर है कि करीब 600 लोग इस हादसे में मारे गए।
उधर भूमध्यसागर के पार—यूरोप व कनाडा के बीच अटलांटिक महासागर में—सौ साल पहले डूबे चर्चित जहाज टाइटैनिक का समुद्र में 12,500 फुट नीचे पड़ा मलबा दिखाने धनकुबेर सैलानियों को ले जाना वाला एक सबमर्सिबल वाहन 18 जून को पानी में नीचे उतरा तो फिर नहीं लौटा। उसमें केवल पांच लोग सवार थे। पांच दिन चले भीषण प्रयासों के बाद 22 जून को समुद्र में टाइटैनिक के मलबे से थोड़ी ही दूर इस टाइटन नाम के सबमर्सिबल के भी अवशेष नजर आए। मान लिया गया कि यह वाहन हादसे का शिकार हो गया और पांचों सवार मारे गए।
ग्रीस के निकट डूबी शरणार्थियों की नाव चार दिन से समुद्र में थी, वह 10 जून को लीबिया के तोबरुक से रवाना हुई थी। निकली वह इटली के लिए थी लेकिन 13 जून की सवेरे ग्रीस के कोस्टगार्ड की निगाह उस पर पड़ गई। उसके बाद वास्तव में क्या हुआ, यह भी अब तक साफ नहीं है जबकि 14 जून को तड़के करीब 3 बजे नाव पानी में डूब गई। उसके बाद न तो नाव का पता चला और न ही करीब 600 लोगों का। भूमध्यसागर में उन्हें खोजने के प्रयास हुए हों, ऐसा भी देखने को नहीं मिला। उन लोगों की जानों की कोई कीमत नहीं थी क्योंकि वे सभी वैसे भी अवैध शरणार्थी की परिभाषा में फिट होते थे, जिन्हें कोई देश लेना नहीं चाहता था, उनके अपने देशों में वे अपनी जिंदगियों से बेज़ार हो चुके थे।
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इधर अटलांटिक महासागर में 18 जून को ओशनगेट कंपनी के पोलर प्रिंस नामक जहाज से नीचे उतरा टाइटन सबमर्सिबल नीचे समुद्र की तलहटी तक पहुंचने के अपने दो घंटे से कुछ ज्यादा के सफर के पूरा होने से पहले ही अपना संपर्क ऊपर बैठे जहाज से खो बैठा। अब यह माना जा रहा है कि उसी समय वह वाहन फट गया और अपने पांच सवारों के साथ नीचे समा गया। लेकिन 18 जून की रात से इस टाइटन को खोजने का प्रयास शुरू हो गया था, जो अगले चार दिन तक चला। इन प्रयासों में चार देशों- अमेरिका, कनाडा, फ्रांस व ब्रिटेन के लोग, विशेषज्ञ, जहाज, गोताखोर, मशीनें, रोबोट- सब शामिल हो गए। यहां तक की अमेरिकी नौसेना के अधीन एक एकीकृत कमान तक बना दी गई।
बता दें कि ओशनगेट एक निजी कंपनी है और दरअसल उसका सारा अभियान उसी की अलग-अलग कंपनियों के मार्फ़त मिलकर होता है। यानी सबमर्सिबल बनाने वाली कंपनी अलग है, उसके जहाज की कंपनी अलग है, नीचे समुद्र में जाने का अभियान एक अन्य कंपनी के मार्फत होता है, वगैरह। इनमें से भी कोई कंपनी अमेरिका में है तो कोई कनाडा में और कोई बहमास में। समुद्र में नीचे जाने का काम अंतरराष्ट्रीय जलक्षेत्र में होता रहा, इसलिए उस पर किसी देश का कानून लागू नहीं होता था। न ही ओशनगेट के उस टाइटन सबमर्सिबल का किसी स्वतंत्र संस्था से कोई सर्टीफिकेशन हुआ था। हालांकि इस क्षेत्र के जानकार बताते हैं कि सिविल सबमर्सिबल टूरिज्म के करीब 60 साल के इतिहास में किसी की जान जाने का यह पहला वाकया था।
समुद्र के दोनों ही हादसों से पाकिस्तान का दर्दनाक रिश्ता निकला। छानबीन हुई तो पता चला कि शरणार्थियों की नाव में करीब 350 से ज्यादा पाकिस्तानी थे। ये सब अवैध ऑपरेटरों की मदद से पाकिस्तान के अलग-अलग इलाकों से लीबिया पहुंचे थे और वहां से यूरोप जाने की इच्छा रखते थे। लेकिन ज्यादातर इस सपने के साथ ही समुद्र में दफन हो गए। उधर टाइटन सबमर्सिबल में डूबे पांच लोगों में दो पाकिस्तानी मूल के थे- ब्रिटेन में बसे धनकुबेर व्यवसायी शहजादा दाऊद और उनका बेटा 19 साल का सुलेमान दाऊद। पांच लोगों में ब्रिटेन से एक और धनकुबेर शामिल था- एक्शन एवियेशन के रोमांचप्रेमी चेयरमैन हैमिश हार्डिंग जो इससे पहले दक्षिणी ध्रुव पर भी जा चुके थे और जेफ बेजोस के ब्लू ओरिजिन की पांचवी स्पेसफ्लाइट में अंतरिक्ष में भी।
यूरोप में सुखद भविष्य के सपने लेकर लीबिया से निकले शरणार्थियों में से हरेक ने उस सफर के लिए करीब 4,500 डॉलर की राशि अदा की थी। लेकिन कई लोगों ने इससे कहीं ज्यादा राशि कुल मिलाकर खर्च की थी। जैसे, पाकिस्तान से मिली खबरों के अनुसार कई लोगों ने 7,500 डॉलर तक वहां के ऑपरटरों को दिए थे। कुछ ने और भी ज्यादा। इसके बरक्स ओशनगेट के टाइटैनिक मलबे की सैर का एक व्यक्ति का किराया 250,000 डॉलर (यानी भारतीय मुद्रा में करीब दो करोड़ रुपये) होता है। वह भी कनाडा के न्यूफाउंडलैंड इलाके में में सेंट जोंस पहुंचने के बाद से, यानी इसमें सैलानी के अपने घर से सेंट जोंस पहुंचने का खर्च शामिल नहीं होता।
जाहिर था कि इन दो अलग-अलग घटनाओं को लेकर सरकारों व मीडिया की चेतनाओं में भी उतना ही अंतर रहा। ग्रीस की घटना के बावजूद उसी तरह से हर साल हजारों शरणार्थी जान का जोखिम उठाकर अमेरिका व यूरोप का रुख करते रहेंगे और उनमें से सैकड़ों मौत का शिकार होते रहेंगे, वे इसे अपनी नियति मानकर स्वीकार कर लेंगे कि अभी ही उनकी जिंदगियां मौत से बदतर ही तो हैं।
उधर सबमर्सिबल टूरिज्म को कैसे मोटी जेबों वाले सैलानियों के लिए सुरक्षित बनाया जाए, इसे लेकर पहले ही उद्योग के आला लोग अपने दिमाग लगाने में जुट गए हैं।
हम इन्हीं दो दुनियाओं में झूल रहे हैं।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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