ओवैसी का हिंदू-मुस्लिम एकता का विचार क्यों है एक कपोल कल्पना

असदुद्दीन ओवैसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल-मुस्लिमीन या एआईएमआईएम ने जब से बिहार चुनाव में पांच विधानसभा सीटें हासिल की हैं, तब से दलितों और मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियों के बीच चुनावी गठबंधन की बातों को हवा मिलने लगी है। एआईएमआईएम और बहुजन समाज पार्टी (BSP) ने बिहार चुनावों में हाथ मिलाये थे, और अब कई लोग कहते हैं कि दोनों के बीच की यह साझेदारी उस उत्तर प्रदेश तक जायेगी, जहां 2022 में विधानसभा चुनाव होने हैं।
निश्चित रूप से ओवैसी की पार्टी को लगता है कि बिहार में गठबंधन से कुछ हद तक फ़ायदा हुआ है, क्योंकि बसपा ने सिर्फ़ एक सीट जीती है। लेकिन,पूर्व मुख्यमंत्री,मायावती की बसपा उत्तर प्रदेश में ऐसी ताक़त है,जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है। अगर बिहार में उनकी जीत वास्तव में मुसलमानों और दलितों के वोटों का एक दूसरे को स्थानान्तरित किये जाने का नतीजा है, तो कोई शक नहीं कि इसके दूरगामी परिणाम होंगे।
आज़ादी के बाद के भारत में किसी भी राजनीतिक ताक़त की पकड़ मुस्लिम वोटों पर नहीं रही है। कम से कम कोई भी पार्टी,जिसके पास एक बड़े क्षेत्र पर बोलबाला रहा है, वह बड़े पैमाने पर मुस्लिम हितों का प्रतिनिधित्व करने का दावा नहीं कर सकती है। यहां तक कि एआईएमआईएम भी हैदराबाद लोकसभा सीट को प्रभावित करने तक ही सीमित थी, जब तक कि उसे बिहार में इस जीत के अलावे 2014 में तेलंगाना विधानसभा चुनाव में सात सीटें, महाराष्ट्र में दो विधानसभा सीटें, 2014 और 2019 में एक लोकसभा सीट पर जीत हासिल नहीं हो गयी।
वर्षों पहले बीएसपी के संस्थापक, स्वर्गीय कांशी राम से मुसलमानों के एक प्रतिनिधिमंडल के साथ मिलने गये एक राजनीतिक पर्यवेक्षक ने मुझे इस बात की एक वजह बतायी कि आख़िर उत्तर प्रदेश में एआईएमआईएम की संभावना अभी भी काफ़ी धूमिल क्यों है। जब इस प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों ने मुस्लिम समुदाय के लिए ज़्यादा राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिए कहा था, तो कांशी राम ने उनसे पूछा था कि क्या वे बदले में इस बात की गारंटी दे सकते हैं कि "तीन प्रतिशत मुस्लिम वोट" उनकी पार्टी को हस्तांतरित हो जायेंगे। यह एक हक़ीक़त है कि इस समुदाय के भीतर पर्याप्त समर्थन वाले एक भी मुस्लिम नेता इस गारंटी का यक़ीन नहीं दिला पाये।कुछ छोटे-छोटे मुस्लिम राजनीतिक दल बीएसपी के साथ गठबंधन तो करते हैं, लेकिन ये गठबंधन बड़े पैमाने पर चुनावी तौर पर बहुत अहम नहीं होते हैं।
ओवैसी उत्तर प्रदेश के लिए भी बाहरी हैं। भले ही एआईएमआईएम और बीएसपी के बीच समझ या गठजोड़ के बनने की संभावना हो, लेकिन सवाल यह है कि क्या उन्हें उत्तर प्रदेश में उस तरह का समर्पित वोटर मिल सकेगा जैसा कि उन्हें बिहार के सीमांचल क्षेत्र में मिला ? अगर हां, तो यह मुसलमानों और दलितों,दोनों के लिए एक ज़बरदस्त संभावना का संकेत हो सकता है। बीएसपी प्रांतीय स्तर पर सत्ता में रही है और बीएसपी ओवैसी जैसे मुस्लिम वोट पर पकड़ रखने वाले के साथ एक गठजोड़ की संभावना को लेकर दिलचस्पी दिखा सकती हैं,लेकिन ऐसा तभी होगा, अगर ओवैसी दलित उम्मीदवारों को मुस्लिम वोट हस्तांतरित किये जाने को सुनिश्चित कर सकें।
ऑक्सफोर्ड में राजनीतिक विज्ञान पढ़ा रहे मैदुल इस्लाम अपनी किताब,इंडियन मुस्लिम्स आफ़्टर लिबरलाइज़ेशन में लिखते हैं,“... विधायकों और मंत्रालयों में राजनीतिक प्रतिनिधित्व के मुद्दे को लेकर भी दलित-मुस्लिम गठबंधन बनाया जा सकता है। हालांकि,यह…ख़ास सूबों में दलितों और मुसलमानों, दोनों की संख्यात्मक शक्ति पर निर्भर है। मुसलमानों के ठीक उलट,दलित भारत में प्रमुख राज्यों में समान रूप से फैले हुए हैं और राज्य विधानसभाओं और लोकसभा में उनके निर्वाचन क्षेत्र आरक्षित हैं, जिससे वे चुनावी रूप से अहम समूह बन गये हैं। इसके अलग, छह राज्यों-जम्मू और कश्मीर, असम, पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश और केरल में मुसलमान अपेक्षाकृत ज़्यादा केंद्रित हैं...”
इस धारणा का विरोध करने वालों का तर्क होगा कि एक साथ आने से दलित और मुस्लिम दलों के लिए राज्य स्तर पर भी सत्ता में आना संभव नहीं होगा। मशहूर राजनीतिक वैज्ञानिक इम्तियाज़ अहमद उनकी चुनावी कामयाबी को लेकर इस अति विश्वास को एक दिवास्वप्न क़रार देते हैं।वह कहते हैं, “कुछ लोग,जिनमें ज़्यादातर शिक्षित मुसलमान हैं, भूलवश इस विचार से मन बहलाते हैं कि दलितों के साथ एक राजनीतिक गठबंधन होने से राजनीति में उच्च-जाति के वर्चस्व को तोड़ा जा सकता है।” वह कहते हैं कि इस तरह की उम्मीद असल में "एक व्यापक सरलीकरण" है, जिसके पीछे कोई भी राजनीतिक गणित नहीं है। उत्तर प्रदेश में कुल आबादी में मुसलमानों की तादाद 19% और दलितों की संख्या 20.7% हैं और दोनों मिलकर तक़रीबन 40% हैं। 2017 के चुनाव में भाजपा को लगभग 40% वोट मिला। हालांकि,इसे समाजवादी पार्टी और बसपा सहित अन्य सभी पार्टियों की क़ीमत पर ये वोट मिले, जिसमें दोनों ही पार्टियों को क्रमशः अपने यादव और अनुसूचित जाति के मतदाताओं के ख़ास वोटों का नुकसान उठाना पड़ा। अगर यह सिलसिला जारी रहा, तो दलित-मुस्लिम गठजोड़ के कामयाब होने की संभावना कम ही होगी।
अन्य सूबों की तरह उत्तर प्रदेश में भी बसपा के मतदाता बड़े पैमाने पर हैं। सोनभद्र अकेला ऐसा ज़िला है,जहां दलितों की आबादी 40% हैं। चार ज़िले-उन्नाव, सीतापुर, कौशाम्बी और हरदोई ऐसे हैं,जहां इनकी आबादी 30% तक पहुँचती है। कम से कम 36 ज़िलों में उनकी आबादी का अनुपात 20% से 30% के बीच है, और बाक़ी ज़िलों में इनकी आबादी 20% से नीचे है।
साफ़ है कि दलित उम्मीदवार ही अनुसूचित जाति के उम्मीदवारों के लिए आरक्षित सीटों पर जीत दर्ज करते हैं। उत्तर प्रदेश में ऐसे आरक्षित 18 संसदीय क्षेत्र और 84 विधानसभा सीटें हैं। यहां भी चीज़ें अहमद द्वारा बतायी गयी बातों के अनुरूप ही हैं। 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने केवल दो आरक्षित सीटें जीतीं थीं, जबकि भाजपा को सवर्णों के समर्थन वाली पार्टी माना जाता, लेकिन उसने आरक्षित सीटों में से 70 सीटों पर शानदार प्रदर्शन किया था। असल में बसपा ने अपने कुछ छोटे-छोटे उन समूहों-सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी या अपना दल (सोनेलाल) के मुक़ाबले कम सीटें जीतीं थीं, जिन्होंने भाजपा के साथ गठबंधन के हिस्से के तौर पर क्रमशः तीन और दो सीटें जीतीं थीं।
इसके विपरीत, उत्तर प्रदेश के 11 ज़िलों में मुसलमानों की आबादी 30% या ज़्यादा है और 27 ज़िलों में 10% और 30% के बीच है। चुनावी नतीजों को प्रभावित करने के लिहाज़ से ओवैसी की एआईएमआईएम को कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और अन्य संगठनों से मुसलमानों को अपनी तरफ़ ले आने की कल्पना करना भी मुश्किल होगा। इस मोर्चे पर,प्रो अहमद उन आंकड़ों की ओर भी इशारा करते हैं, जो बताते हैं कि जब मुस्लिम उम्मीदवार हिंदू-बहुल निर्वाचन क्षेत्रों(उन निर्वाचन क्षेत्रों के मुक़ाबले,जहां मुस्लिम आबादी 15% या ज़्यादा है) से चुनाव लड़ते हैं,तो उनके जीतने की संभावना बेहतर होती है। सबक एकदम साफ़ है कि व्यापक सामाजिक मिश्रण का प्रतिनिधित्व करने वाले दलों के बीच गठबंधन में मुसलमानों के पास राजनीतिक प्रतिनिधित्व का बेहतर मौक़ा होगा।
लखनऊ के एक राजनीतिक विश्लेषक,नासिर तो बिहार में ओवैसी की पार्टी की जीत के लिए बसपा-एआईएमआईएम गठबंधन को भी ज़्यादा श्रेय नहीं देते हैं। उनका मानना है कि एआईएमआईएम की जीत सिर्फ़ उन्हीं निर्वाचन क्षेत्रों में हुई है,जहां मुस्लिम आबादी बहुत ज़्यादा है। वह कहते हैं, "सीमांचल में जीतने वाले पांच एआईएमआईएम उम्मीदवारों में दलित मतदाताओं के योगदान का विश्लेषण किया जाना अभी बाक़ी है, लेकिन आम धारणा तो यही है कि यह जीत एआईएमआईएम की है।" इसलिए,वे कहते हैं कि उत्तर प्रदेश में एआईएमआईएम-बीएसपी के बीच गठबंधन की संभावना तो है, "लेकिन ज़रूरी नहीं कि इसका राज्य के चुनाव परिणाम पर भी असर हो।"
2017 के बाद से न सिर्फ़ मायावती का राजनीतिक ग्राफ़ नीचे गया है, बल्कि बसपा पिछड़े वर्ग के मतदाताओं को लुभाने की पूरी कोशिश कर रही है और यहां तक कि छिटके हुए दलित मतदाताओं के एक वर्ग को भी वापस लाने की कोशिश हो रही है। इस महीने की शुरुआत में मयावती ने राज्यसभा के पूर्व सांसद,मुस्ताक़ अली को अपनी पार्टी के प्रातीय अध्यक्ष पद से हटा दिया था,और उनकी जगह भीम राजभर को बैठा दिया है,जो कि ओबीसी से आते हैं। नासिर कहते हैं कि मुस्ताक़ को उनके पद से हटाये जाने से मुसलमानों के बीच बहुत नकारात्मक संकेत गया है। इससे पहले, मायावती को दानिश अली को उस समय दंडित करते हुए देखा गया था,जब उन्हें लोकसभा में पार्टी के सदन के नेता पद से हटा दिया गया था। उनकी जगह अम्बेडकरनगर के सांसद,रितेश पांडे ने ले ली थी। नसीर कहते हैं, "इसका असर बीएसपी के मुस्लिम समर्थन को लेकर लंबे समय तक देखा जा सकता है।"
इसके बाद, कुछ हफ़्ते पहले ही बिहार चुनाव प्रचार के दौरान मायावती ने मुसलमानों को यह कहकर चौंका दिया था कि वह उत्तर प्रदेश में अपनी पार्टी की सबसे बड़ी प्रतिद्वंद्वी पार्टी,समाजवादी पार्टी को हराने के लिए भाजपा का समर्थन करेंगी। उन्होंने कहा था,“हमने तय किया है कि भविष्य में एमएलसी चुनाव में सपा उम्मीदवार को हराने के लिए जिस किसी भी पार्टी का उम्मीदवार समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार पर भारी पड़ेगा,उसे बसपा के सभी विधायकों के वोट ज़रूर मिलेंगे।“ इससे उनके कार्यकर्ताओं,ख़ासकर मुसलमान मतदाताओं के बीच नाराज़गी फैल गयी।
यह देखते हुए कि हैदराबाद से आने वाले इस सांसद की राज्य की राजनीति में कोई हैसियत नहीं है,ऐसे में यह सही मायने में साफ़ नहीं है कि बीएसपी उत्तर प्रदेश में एआईएमआईएम के साथ मिलकर काम करेगी या नहीं। अगर ओवैसी अपनी दिलचस्पी दिखाते हैं,तो बेशक मायावती का झुकाव उस तरफ़ हो सकता है। मौजूदा राजनीतिक मंथन और ध्रुवीकरण ने कई मुसलमानों को एआईएमआईएम को लेकर संभावित विकल्प के तौर पर विचारने के लिए प्रेरित किया है। कई लोगों सहित ख़ुद ओवैसी का कहना है कि आने वाले महीनों में उत्तर प्रदेश में इसकी गतिविधियों में तेज़ी आ सकती है। इन तमाम आशंकाओं के बीच यह तो दिखता है कि ओवैसी मुस्लिम समुदाय के भीतर एक निश्चित आकर्षण रखते हैं। उत्तर प्रदेश के लिहाज़ से ओवैसी की जो कमी है, वह है- मज़बूत स्थानीय नेतृत्व का अभाव। अगर उन्हें चुनाव अभियान और चुनाव लड़ने के लिए कुछ अच्छे "चेहरे" मिल जाते हैं, तो इस बात की पूरी संभावना है कि वह उन पर दांव लगायेंगे।
टिप्पणीकार लेखक और स्तंभकार हैं। इनके विचार निजी हैं।
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