आबे के सत्ता से बाहर हो जाने के बाद मोदी अकेले क्यों पड़ गये हैं ?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए यह धऱती इसलिए एक एकाकी जगह बन गयी है,क्योंकि उनके दोस्त और जापानी समकक्ष,शिंजो आबे ने 28 अगस्त को अपने पद से इस्तीफ़ा देने का ऐलान कर दिया और ढलान की ओर चलना शुरू कर दिया। आबे को कम से कम अगले साल सितंबर तक अपने पद पर बने रहना था।
मोदी तब कोई लफ़्फ़ाज़ी नहीं कर रहे थे,जब उन्होंने यह कहा कि टोक्यो से आयी इस ख़बर को सुनकर उन्हें "पीड़ा" हुई है। मोदी की आबे की साथ ज़बरदस्त छनती थी और भारत-जापान के बीच जितना अच्छा सम्बन्ध इस समय है, वैसा आज से पहले कभी नहीं रहा। भारत-जापान रिश्ते को ग़ैर-मामूली बनाने वाले मोदी और आबे एशियाई मंच के माहिर नेता रहे हैं। उस रिश्ते में इस तरह की ठाठ को ले आना आसान नहीं होता है, जिसका प्रदर्शन मामूली रहा हो और जिसके भीतर विषय-वस्तु की कमी रही हो, लेकिन मोदी और आबे चाहे जैसे हो, ऐसा करने में कामयाब रहे।
हालांकि, जब विरासत की बात आती है, तो आबे जापानी विरासत के लिहाज़ से कम कामयाब प्रधानमंत्री रहे हैं। हर किसी को अपने नाम पर अर्थशास्त्र का ब्रांड तो नहीं मिलता। लेकिन, आबे को यह कामयाबी मिली थी,उनके नाम पर ‘अबेनॉमिक्स’ वाली कामयाबी ? आबे को विरासत में एक ऐसी अर्थव्यवस्था मिली थी,जो 1990 के दशक तक बहुत ज़्यादा सपाट हो चुकी थी। विकास बहुत ही कम हो रहा था, और आबे ने राजकोषीय प्रोत्साहन और अन्य संरचनात्मक सुधारों के ज़रिये थोड़ी सी मुद्रास्फीति पैदा करते हुए चीज़ों को हल्का करने का एक अपरंपरागत तरीक़ा आज़माया था, ताकि लोग निवेश करना शुरू कर दें और नये सिरे से विकास मुमकिन हो।
लेकिन,आख़िरी नतीजा बहुत मिश्रित रहा है। ज़बरदस्त प्रोत्साहन देने के चलते ऋण-जीडीपी अनुपात में नाटकीय रूप से 250% तक की बढ़ोत्तरी हुई, जो कि बहुत ही ज़्यादा है। (ग्रीस संकट के दौरान यह अनुपात महज़ 180% तक की ऊंचाई को ही छू पाया था।)
एक अन्य प्रमुख नीति,जिसे आबे जल्दी पूरा करना चाहते थे,वह थी-जापान के शांतिवादी संविधान में संशोधन। संविधान का अनुच्छेद 9 युद्ध से तौबा करता है; आबे इसे बदलना चाहते थे ताकि जापान की आत्मरक्षा सैनिकों को एक सेना के तौर पर मान्यता दी जा सके और उन्हें विदेशों में तैनात किया जा सके। लेकिन, आबे की वह योजना ज़मीन पर नहीं उतर पायी।
आबे ने अपनी परियोजना को लेकर देश के लिए स्वीकार्य राजनीतिक परिस्थितियों के निर्माण और लोकप्रिय समर्थन हासिल करने की ख़ातिर कड़ी मेहनत की थी, लेकिन वह ऐसा इसलिए नहीं कर पाये, क्योंकि समय अड़ंगा डालने वाली विपक्षी ‘वितंडा’ को देखते हुए यह विशेष मामला संसदीय समिति में जाकर अटक गया।
आबे समझ सकते थे कि उनकी विचारधारा से प्रेरित राष्ट्रवादी एजेंडा फ़िसलता जा रहा था और देश इसके लिए तैयार भी नहीं था। बहरहाल, वह रक्षा नीतियों में सामूहिक आत्मरक्षा या सैन्य प्रौद्योगिकी के निर्यात पर कुछ बदलाव लाने में कामयाब रहे।
आबे की महत्वाकांक्षा एक जीवंत अर्थव्यवस्था,नये संविधान और 2020 के ओलंपिक के आयोजन का नेतृत्व करते हुए सेवानिवृत्त होने की थी। लेकिन,भाग्य को कुछ और मंज़ूर था, क्योंकि महामारी न जाने कहां से टपक पड़ी और उन्हें इसका ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ा।
आबे को 2020 ओलंपिक में ब्रांड जापान को रिलॉंच के प्रदर्शन की उम्मीद थी। जापान की सबसे बड़ी कंपनियों ने इसमें बहुत पैसे भी लगाये थे, लेकिन फिर भी अगर महामारी अगली गर्मियों तक कम हो जाती है, तो जापान शायद बहुत छोटे ओलंपिक की मेज़बानी कर पाये, जो देश की अर्थव्यवस्था के लिए एक झटका होगा।
आबे के लोकप्रिय समर्थन महामारी से निपटने के साथ कमज़ोर होता गया। अगस्त की शुरुआत में कराये गये एक सर्वेक्षण में उनकी स्वीकार्यता दर 32.7% तक गिर गयी थी। महामारी को लेकर अपनाये गये आबे की शुरुआती सुस्त तौर-तरीक़े और उसके बाद अर्थव्यवस्था को 'बंद करने' और फिर से खोलने के बीच संतुलन साधने को लेकर कुप्रबंधन, कोविड-19 परीक्षण के निम्न स्तर, प्रोत्साहन भुगतान पर उनकी सुस्ती के बीच सत्ता पर अपनी पकड़ ढीली पड़ते एक नेता के रूप में नज़र आये।
इस बीच, हर बात के लिए अपने कैबिनेट सहयोगियों पर आरोप थोपने वाले आबे की इस उदासीनता ने एक धारणा बना दी कि प्रधानमंत्री के रूप में वह देश के अहम मुद्दों से व्यक्तिगत जवाबदेही से जानबूझकर बचने की कोशिश कर रहे हैं। यह उनके लोकप्रिय समर्थन को कम करने वाला एक महत्वपूर्ण कारक रहा है।
उसी समय, घोटाले और भाई-भतीजावाद भी सामने आये, और आबे अपने तौर-तरीक़ों को लेकर भरोसेमंद कारण बता पाने में नाकाम रहे। मोरिटोमो गाकुएन और केके गाकुएन घोटालों ने इस आरोप को हवा दी कि आबे ने दोस्तों और रिश्तेदारों के ऊपर उन एहसानों की बौछार कर दी है, जिनमें आरोपियों को राजनीतिक रूप से बचाने और सार्वजनिक दस्तावेज़ों के साथ छेड़-छाड़ करने के गंभीर आरोप भी शामिल हैं।
पार्टी के वार्षिक समारोह के आयोजन ग़ैर-मामूली रूप से ख़र्चीले होते थे और जब विपक्ष ने इस पर सवाल उठाना शुरू कर दिया, तो कैबिनेट कार्यालय ने सरकारी नियमों का उल्लंघन करते हुए उसमें उपस्थित लोगों को सूचीबद्ध करने वाले दस्तावेज़ों को ही नष्ट करवा दिया। वास्तव में आबे के पास संसद,मीडिया और आम लोगों को इन घटनाओं और अन्य घोटालों को समझाने के लिए बहुत कुछ है।
विदेश नीतियों के मामले में आबे बहुत ज़्यादा वाह्योन्मुख प्रधान मंत्री थे। आबे की बड़ी उपलब्धि यही है कि उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में एक पुराने लोकतंत्र और समुद्री राष्ट्र के रूप में जापान की पहचान को फिर से स्थापित किया। कूटनीति में उनके पहचान की राजनीति वाले ब्रांड ने एशिया-प्रशांत में जापान को भारत और ऑस्ट्रेलिया के क़रीब ला दिया और निश्चित रूप से उन्होंने अमेरिका के साथ जापान के गठबंधन को मज़बूत किया।
आबे जापान-अमेरिका रिश्तों को मज़बूती देने में उल्लेखनीय तौर पर कामयाब रहे हैं। वास्तव में जापान-यूएस सम्बन्ध टोक्यो की विदेश नीति की आधारशिला बन गया है, और आबे ख़ुद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के कुछ सबसे अच्छे दोस्तों में से एक बन गये। यह कहना कि आबे उस ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप समझौते को छोड़ने से ट्रम्प को नहीं रोक सकते थे, जो आबे के लिए व्यापार और निवेश को लेकर एक वैकल्पिक ग़ैर-चीनी औद्योगिक और आपूर्ति श्रृंखला की तुलना में कहीं ज़्यादा कुछ था, लेकिन सच्चाई तो यही है कि यह चीन के ख़िलाफ़ उनके नियंत्रण अभियान का यह आधार था।
इसे सुनिश्चित करने के लिए आबे ने अमेरिकी हिंद-प्रशांत रणनीति को अपनाया और अमेरिका के साथ सैन्य सहयोग को गहरा किया। दूसरी ओर, इसे चीन और अमेरिका के बीच किसी भी पक्ष के साथ नहीं जाने को लेकर आबे के क़दम को भू-राजनीतिक संतुलन कौशल से अलग रखकर नहीं देखा जाना चाहिए। वॉशिंगटन सैन्य तैनाती में रणनीतिक लचीलेपन और स्वायत्तता को लेकर जापानी क़दमों के प्रति कुछ असहजता के साथ देख रहा होगा, हालांकि गठबंधन की बुनियादी बातें अपनी जगह मज़बूत हैं।
यह कोई छोटी बात नहीं है कि पूर्वी चीन सागर में विवादित द्वीपों को लेकर वह चीन के साथ तनाव को कम करने में उल्लेखनीय रूप से कामयाब रहे। लेकिन आबे को जिन दो मक़सद से लगाव था,वे थे-रूसी अधिकृत उत्तरी क्षेत्रों पर जापानी संप्रभुता की बहाली और उत्तर कोरिया से अपहृत जापानियों की वापसी-और इन दोनों ही मक़सद को पाने में वे विफल रहे। अगर आबे का संक्षेप में मूल्यांकन किया जाये,तो उन्होंने जापान को जिस बात के लिए तैयार किया था,उसे कर दिखाने का उनके पास कोई मौक़ा नहीं रहा।
आबे ने जिस परंपरा को छोड़ा है,मोदी उससे कुछ उपयोगी सबक ले सकते हैं। दोनों ऐसे बेहद मज़बूत नेता रहे हैं, जिनका उभार करिश्माई राजनेताओं के रूप में हुआ,इन दोनों ने आम लोगों के भीतर इस धारणा को बैठा दिया कि जिस इतिहास को कोई मुश्किल से निर्माण कर पाता है,वे ऐसे ही इतिहास के निर्माता हैं। दोनों ही विश्व मंच पर बेहद सक्रिय रहे हैं। लेकिन,इस सब के आख़िर में आबे साफ़ तौर पर सेहत की बुनियाद पर फ़ीके,अनौपचारिक और खेदजनक ढंग से विदा हो रहे हैं।
वास्तव में उनके पीछे काफी कुछ अधूरा एजेंडे छूट गये हैं। आबे ने जिन प्राथमिकताओं को अंजाम तक पहुंचाने के लिए निर्धारित किया था,वे तो सफल नहीं हुई हैं, लेकिन जापान के सबसे लंबे समय तक उनकी प्रधान मंत्री के रूप में बने रहने की विरासत को हरा पाना मुश्किल है।
मशहूर ऑस्ट्रेलियाई अकादमिक प्रोफ़ेसर,ऑरेलिया जॉर्ज मुल्गन ने आबे के बारे में लिखा है, “इतिहास की धारा आबे के ख़िलाफ़ हो गयी थी; उनके पास अपने अधूरे काम को पूरा करने का समय नहीं रह गया था और उस मक़सद के बिना प्रधानमंत्री बन गये थे,जिसे वे कर सकते थे।”
इनके व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।
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