दुनिया में जहां कहीं भी, बादल, चिड़िया और लोगों के आंसू हों, वहां मुझे घर जैसा लगता है: रोज़ा लक्ज़मबर्ग

आज 5 मार्च है। आज ही के दिन डेढ़ सौ साल पहले विश्वविख्यात जर्मन क्रांतिकारी व चिंतक रोजा लक्जमबर्ग का जन्म हुआ था। पूरी दुनिया में इस महान सर्वहारा क्रांतिकारी के झंझावातों से भरे जीवन व उनकी कृतियों को याद किया जा रहा है। उनकी पुरानी रचनाओं के नित नए पाठ आ रहे हैं। पूंजीवाद को समझने में उनकी रचनाओं से नई रौशनी पड़ रही है। लगभग 48 वर्ष से कुछ कम ही उनकी उम्र थी जब 15 जनवरी 1919 को उनकी हत्या कर दी गई थी।
15 जनवरी 1919 को एबर्ट के नेतृत्व वाली एस.पी.डी सरकार की रिएकनरी ‘‘ फ्रीकॉरप्स’’ (सेना से आए हुए लोगों द्वारा गठित अर्द्ध सैन्य टुकड़ी) ने रोजा लक्जमबर्ग और कार्ल लीब्नेख्त को बर्लिन के एक मध्यमवर्गीय इलाके के एक अपार्टमेंट से रात 9 बजे गिरफ्तार कर लिया था। जनवरी के क्रांतिकारी उभार का दबाने के लिए ‘फ्रीकॉरप्स’ बेसब्री से इन दोनों की तलाश पिछले कई दिनों से कर रहा था। आधी रात के लगभग कार्ल लीब्नेख्त की हत्या कर दी गयी। तत्पचात रोजा को राइफल के बट से पीछे मारा गया और फिर सर में गोली मारकर बर्लिन के नहर में फेंक दी गयी जिसका पता चार माह बाद मई में चला। समाजवादी आंदोलन की इस करिमाई शख्सीयत की हत्या ने सबको स्तब्ध कर दिया था। रोजा को श्रद्धांजलिस्वरूप कहे गए लेनिन के ये शब्द आज भी याद किए जाते हैं ‘‘बाज संभव है, कभी-कभी , मुर्गियों की तरह नीचे जाकर उड़ रहा हो, लेकिन मुर्गी कभी भी बाज की तरह की उंचाई नहीं प्राप्त कर सकता है। ’’
आज से लगभग 100 साल पहले जर्मनी की एक जेल से उछाला गया नारा ‘समाजवाद या बर्बरता’ विश्व मानवता के किसी भी वक्त के मुकाबले आज सबसे आवश्यक नारा प्रतीत होता है। दुनिया क्या बर्बरता की ओर बढ़ेगी या फिर समाज का क्रांतिकारी पुर्नगठन होगा और समाजवाद की स्थापना होगी?
प्रारंभिक जीवन
रोजा लक्जमबर्ग का जन्म पोलैंड के एक छोटे गांव के 5 मार्च 1871 में एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। पालैंड तब विशाल रूसी साम्राज्य के अंतर्गत आता था। रोजा लक्जमबर्ग ने अर्थशास्त्र में पी.एच.डी की थी। 15 वर्ष की उम्र में रोजा ने देखा कि किस प्रकार मारिया बहोविच और रोजालिया फोसेनहाट नामक दो महिला क्रांतिकारियों को ‘प्रोलेतारियत समिति’ में शामिल होने के कारण को राजद्रोह के आरोप लगाकर साइबेरिया भेज दिया गया। इन दोनों की रास्ते में ही मौत हो गयी। इस घटना ने उसे रैडिकलाइज करने में उत्प्रेरक की भूमिका अदा की। रोजा ने बहुत कम उम्र में मार्क्स की रचनाओं का अध्ययन करना शुरू कर दिया था। कम्युनिज्म के दर्शन व आदर्शों की रोजा कायल हो गयी थी। जब वो 18 वर्ष की थी वो पोलैंड के भूमिगत क्रांतिकारी आंदोलन में सक्रिय हो चुकी थी।
मात्र 22 साल की उम्र में 1893 में वो पोलिस पार्टी की ओर से द्वितीय इंटरनेशनल के लिए चुन ली गयी थी।
रोजा लक्जमबर्ग और राष्ट्रीय प्रश्न
उसी समय पोलैंड में रूस के खिलाफ राष्ट्रवादी आंदोलन शुरू हो चुका था लेकिन रोजा लक्जमबर्ग ने कभी भी पोलिस राष्ट्रवाद का समर्थन नहीं किया।
1895 और 1897 के दरम्यान लिखे गए अपने श्रृंखलाबद्ध लेखों में रोजा का कहना था ‘‘राष्ट्रीय व समाजवादी आकांक्षायें दोनों एक दूसरे के साथ कतई भी मेल नहीं खाती हैं। जो समाजवादी पार्टियां राष्ट्रीय आत्मनिर्णय के अधिकार के लिए प्रतिबद्ध हैं वो दरअसल इन पार्टियों को बर्जुआ राष्ट्रवाद के विरोधी के बजाय उन्हें उसका मातहत बना डालती है। राष्ट्रीय आत्मनिर्णय का विचार अंततः उन्हें अवसरवाद के दलदल में धकेलकर वर्ग शत्रु के रथ से बांध देती हैं।’’
दरअसल रोजा ताजिंदगी ' राष्ट्रवाद' के विचार से सहमत न हो सकी थीं इन्हीं वजहों से लेनिन से भी उसके 'राष्ट्रीयता 'के आत्मनिर्णय के विचार से मतभेद भी हुए। लेेनिन राष्ट्रीय आकांक्षाओं को वैध मानते हुए भी उसे वर्गसंघर्ष की जरूरतों के मातहत रखना चाहते थे। लेकिन रोजा पूरी तरह अन्तराष्ट्रीयतावादी थी। राष्ट्रवाद किसी आंदोलन का आधार हो सकता है इस विचार को रोजा ने कभी माना हीं नहीं।
रोजा के पहले का एस.पी.डी
1898 में रोजा जर्मनी चली गयी क्योंकि मजदूर आंदोलन व क्रांतिकारी का यह सबसे बड़ा गढ़ था। वहां की पार्टी एस.पी.डी सदस्यों की संख्या लिहाज से एक बड़ी पार्टी समझी जाती थी। 1913 में एस.पी.डी के जर्मनी में लगभग 90 दैनिक पत्र निकलते थे जिसकी प्रसार संख्या तकरीबन 14 लाख थी। उसके सांसदों की संख्या 110 थी। जर्मनी सामाजिक-राजनीतिक जीवन में एस.पी.डी की एक महत्वपूर्ण ताकत थी।
सेकेंड इंटरनेशनल में भी एस.पी.डी का काफी दखल व बोलबाला था। सेकेंड इंटरनेशनल का जन्म उस वक्त हुआ था जब 1873 के बाद लगभग एक दशक तक पूंजीवाद में ये उछाल का युग था। इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव सेकंड इटरनेेशनल के नेताओं पर भी पड़ा। इन नेताओं को ये लगने लगा कि जिसे मार्क्स का ये कहना कि पूंजीवाद के हर दशक में संकट की पुनरावृत्ति होती है, सही प्रतीत नहीं हो रहा। मजदूर आंदोलन में भी एक ऐसी परत या कहें एरिस्टोक्रेसी का अभ्युदय हुआ जो मालिकों के साथ उठते-बैठते थे, उनसे मोल-तोल किया करते थे। मजदूरों का ये छोटा तबका कम मजदूरी पाने वाले मजदूरों की तुलना में बेहतर हालात में था। एस.पी.डी के नेताओं के मन में ये बातें आने लगी कि हमें प्रतिक्रियावादी ताकतों को भड़़काना नहीं चाहिए, शनैः-शनैः आगे बढते हुए नरम रूख अपनाना चाहिए।
सुधार और क्रांति
एस.पी.डी नेता बर्नस्टीन ने 1896-97 में ये कहना शुरू किया कि पिछले पिछले 25 वर्षों का अनुभव तो यही बताता है मार्क्स के पूंजीवादी पराभव की संकल्पना में ही कोई गंभीर खामी है। जितना मार्क्स ने सोचा था उसके मुकाबले पूंजीवाद में विभिन्न परिस्थितियों में खुद को बनाए रखने की जर्बदस्त क्षमता व संभावना है। मंदी से बचने के लिए उधार ( क्रेडिट) के माध्यम से पूंजीवाद मंदी के संकट से मुक्त रहता है। बर्न्सटीन का ये नहीं कहना था के समाजवाद के लक्ष्य को तिलांजलि दे दी जाये। लेकिन उनके अनुसार ये लक्ष्य व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के किसी यूटोपियाई संभावना के बजाये व्यवस्था के भीतर ही रहकर दबाव बनाने के माध्यम से किया जा सकता है। बर्नस्टीन का ये सुप्रसिद्ध वाक्य है ‘‘द गोल इज नथिंग बट मूवमेंट इज एवरीथिंग”।
जब रोजा लक्जमबर्ग 1898 में जर्मनी आयी उसने बर्न्सटीन और पार्टी के संशोधनवादी प्रवृत्तियों के खिलाफ संघर्ष करना शुरू किया। रोजा लक्जमबर्ग ने बर्न्सटीन के सिद्धांतों को ‘समाजवाद के फैन्सी ड्रेस में बर्जुआ मूल्यों की सेंध’ के रूप में देखा था। इसी सैद्धांतिक लड़ाई का परिणाम है ‘सुधार या क्रांति’ जिसे पुस्तिका के रूप में 1900 में प्रकाशित किया गया। किसी दूसरी दूसरी पुस्तक के मुकाबले ‘सुधार या क्रांति’ युवा कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं के लिए सबसे अधिक प्रशिक्षित किया।
बर्नस्टीन जहां संसद के माध्यम से धीरे-धीरे कानूनी प्रक्रियाओं का पालने करने के जरिये आगे बढ़ने की बात करते रहे। लेकिन रोजा की नजर मौजूदा उत्पीड़नों का असली आधार ‘श्रम दासता’ पर था। एक ऐसी चीज है जो कानून का तो कतई मसला नहीं है। बकौल रोजा ‘‘श्रम दासता कानून आधारित होने की बजाये मुख्यतः आर्थिक कारकों द्वारा निर्धारित होता है। अतः पूंजीवादी वर्ग वर्चस्व के बुनियादी आधारों को कानूनी सुधार द्वारा नहीं बदला जा सकता है क्योंकि ये दासता किसी कानून द्वारा नहीं लाए गए हैं।’’
रोजा के इन जोरदार क्रांतिकारी तर्कों ने एस.पी.डी ने में हलचल मचा दी, नेतृत्व दबाव में आ गया। कार्ल काउत्स्की, अगस्त बेवल को अंततः बहस में उतरना पड़ा। एस.पी.डी के नेताओं को भले बर्नस्टीन की आलेाचना करने पर मजबूर होना पड़ा लेकिन उनमें से अधिकांश बर्नस्टीन से अंदर ही अंदर सहमत थे।
पूंजी का संचय
‘सुधार व क्रांति’ के पश्चात रोजा लक्जमबर्ग की एक और वविख्यात कृति है ‘द ‘ऑक्यूमिलेशन ऑफ कैपिटल’ जो 1913 में लिखी गयी थी। इसमें रोजा ने 'मार्क्स’ की पूंजी में दिए गए प्रस्थापनाओं की गहरी छानबीन की। यह किताब आज पूरी दुनिया में फिर से बेहद प्रांसगिक हो उठी है। चर्चित हंगेरियन मार्क्सवादी जार्ज लुकाच, रोजा लक्जमबर्ग की ‘द ऑक्यूमिलेशन ऑफ कैपिटल’ और लेनिन के ‘स्टेट एंड रिवोल्यूशन’ को मार्क्स की पद्धति का उपयोग कर मार्क्सवादी दर्शन को समृद्ध करने वाली सबसे महत्वपूर्ण कृतियों में मानते हैं।
‘द ऑक्यूमिलेशन ऑफ कैपिटल’ में निहित सिद्धांत की अंर्तवस्तु सीधा और सरल है। मार्क्सवाद इस अनुमान पर आधारित है कि पूंजीवाद अपने अंर्तविरोधों के भार से दबकर ढ़ह जाएगा। मार्क्स ने खुद इस अवधारणा को गणितीय व अनुभवजन्य साक्ष्यों के आधार पर आगे बढ़ाया। रोजा लक्जमबर्ग का तर्क था कि मार्क्स द्वारा दिए गए ये साक्ष्य परिणाम के अनुकल नहीं हैं। गणितीय आकलनों के आधार पर पूंजीवाद के ढ़हने भी भविष्यवाणी के विफल रहने की स्थिति में उसने ढ़हने के कारणों की तलाश बाहर करनी शुरू कर दी। पूंजीवाद के अस्तित्व में बने रहने व निरंतर विकास करते जाने का कारण को रोजा ने प्राक-पूंजीवादी ( प्री-कैपिटलिस्ट) समाजों को अपने कब्जे में लेने की उसकी क्षमता में खोजा। पूंजीवाद विकास से अछूते इन क्षेत्रों को पूंजीवादी औपनिवेशिक के आर्थिक क्षेत्र में लाने व प्रभावित करने की उसकी क्षमता में निहित है उसके अस्तित्व में बने रहने का कारण। जब पृथ्वी का पूरा सतह पूंजीवादी संचय के प्रभाव में खींच लिया जाएगा तब पूंजीवाद के लिए उसके फैलने का आधार स्वतः समाप्त हो जाएगा परिणामस्वरूप वो खुद-ब- खुद उसका ध्वंस हो जाएगा।
पूंजीवादी उत्पादन का क्षेत्र गैर पूंजीवादी क्षेत्रों पर टिका रहता है। ये रोजा की मौलिक प्रस्थापना है। रोजा ने इसे साम्राज्यवाद व उपनिवेशवाद के संदर्भ में परिभाषित किया था। ‘एक्यूमिलेशन बाई डिस्पोजेशन’ यानी ‘विस्थापन के जरिए संचय’। भारत में हम कृषि क्षेत्र की तबाही की कीमत पर नवउदारवादी विकास के पूंजीवादी मॉडल को इस रौशनी में देख सकते हैं।
प्रथम विश्वयुद्ध और रोजा लक्जमबर्ग
सेकेंड इंटरनेशनल तथा रोजा लक्जमबर्ग ने ‘पूंजी के संचय’ के अपने अध्ययनों के आधार पर विश्वयुद्ध के मंडराते खतरे को भांप लिया था। लिहाजा इसके नेताओं ने 1912 में ही यह प्रस्ताव लिया था, यदि विश्ववयुद्ध छिड़ता है हमें किसी भी हाल में युद्ध का समर्थन नहीं करना है, अपनी सारी उर्जा आपस में लड़ने के बजाये पूंजीवाद के खिलाफ गोलबंद करेंगे। लेकिन ज्योंहि युद्ध छिड़ा ये सारे के सारे प्रस्ताव धरे के धरे रह गए। जब अगस्त 1914 में युद्ध के खिलाफ वोट देने की बारी आयी तो अधिकांश दल अपने राष्ट्रीय बुर्जआ के साथ चले गए। रोजा लक्जमबर्ग ने टिप्पणी भी की ‘‘शांति काल में एकता की बातें और युद्ध के समय एक दूसरे के प्रति गलाकाट प्रतिस्पर्धा”।
जर्मन संसद राइज्टैग में एस.पी.डी नेता कार्ल लीब्नेख्त पहले व्यक्ति थे जिन्होंने ये कहने का साहस किया कि वे बुर्जआ हितों के लिए युद्ध प्रस्तावों का समर्थन नहीं करेंगे। कार्ल लीब्नेख्त और रोजा लक्जमबर्ग एक साथ आए और 1916 में ‘स्पार्टापस लीग’ का गठन किया। यह एस.पी.डी के अंदर बना ये एक तरह का ढ़ीला-ढ़ीला समूह था जो युद्ध का विरोध तथा क्रांतिकारी विचारों की रक्षा के लिए बनाया गया था। उन्माद भरे उस माहौल में भी ‘स्पार्टाकस लीग’ अपने विचारों के पक्ष में खड़े रहा। जल्द ही उनमें से अधिकांश को जेलों में डाल दिया गया। जेल में रहने के दौरान ही रोजा ने ‘क्राइसिस ऑफ सोशल डेमोक्रेसी’ जिसे ‘जूनियस पैंफलेट’ के नाम से भी जाना जाता है। ये पैंफलेट पहली बार बेहद जीवंत तरीके से युद्ध के खिलाफ गया था।
रूसी क्रांति और रोजा लक्ज्मबर्ग
क्रांतिकारी लोगों को अनुमान था कि जल्दी कि क्रांतिकारी लहर उठेगी। और अंततः ऐसा ही हुआ। रूस में क्रांति हो गयी।
प्रारंभ में रोजा का स्वागत ये कहते हुए किया ‘‘लेनिन की पार्टी एकमात्र ऐसी पार्टी थी जिसने जनादेश तथा एक क्रांतिकारी पार्टी के कर्तव्यों को बखूबी समझा।”
इसी बीच लेनिन को जर्मनी के साथ ब्रीस्ट-लीतोव्स्क संधि के लिए काफी आलोचना झेलनी पड़ी। रोजा लक्जमबर्ग रूस में घट रही घटनाओं को लेकर बेहद सशंकित थीं। अंततः रूसी क्रांति को लेकर अपने विचारों को उन्होंने पुस्तक के रूप में प्रकाशित करने का निर्णय लिया जिसमें उन्होंने कई बिंदू उठाए। प्रमुख बिंदू थे- बोलेविकों की भूमि नीति, राष्ट्रीयताओं का सवाल, संविधान सभा व सार्विक मताधिकार, प्रेस की स्वतंत्रता आदि।
हालांकि रूसी क्रांति के बारे में रोजा के विचारों में बाद में परिवर्तन आए। रोजा की अभिन्न मित्र व सहयोगी क्लारा जेटकिन ने लोकतांत्रिक तकाजों पर रोजा की ओलाचना को “जनतंत्र की अमूर्त अवधारणा से प्रेरित बताया।’’ बकौल क्लारा जेटकिन ‘‘रोजा लक्जमबर्ग ने अपने पैंफलेट में रूसी क्रांति के बारे में जो कहा है उसके विचार नवंबर 1918 के बाद उसकी मृत्यु तक वही नहीं थे।’’
जर्मन क्रांति और रोजा लक्जमबर्ग
उधर विश्वयुद्ध में ऐसा प्रतीत होने लगा था कि जर्मनी हार जायेगा। उसी वक्त जर्मनी के किएल शहर में नाविकों का विद्रोह शुरू हो गया। उन नाविकों ने युद्धपोतों व जहाजों पर लाल झंडा फहरा दिया। बर्लिन सहित जर्मनी के कई शहरों मजदूरों व सैनिकों की परिषदें कायम होने लगीं। बर्लिन में 9 नवंबर, 1918 को ये परिषदें गठित हो गयीं। मजदूरों व सैनिकों की परिषदों के हाथ में सत्ता तो थी लेकिन उन्हें ठीक से पता न था कि उस सत्ता का क्या करना है?
एस.पी.डी नेतृत्व ने जर्मन सैन्य हाई कमांड के साथ मिलकर इस जुगत में लगे थे कि कैसे इस इंक्लाबी उभार को दबाया जाए और बुर्जआ सत्ता को कैसे सशक्त बनाया जाए।
‘स्पार्टाकस लीग’ लेनिनवादी अर्थों में पार्टी न होकर समानविचार वाले लोगों का नेटवर्क था। एक पार्टी बनाने की आवश्यकता महसूस होने लगी। इस प्रकार दिसंबर के अंत में कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण हुआ जिसका नाम था के.पी.डी। के.पी.डी में अधिकतर नौजवान, उत्साही, साहसी, क्रांतिकारी पर साथ ही अतिवामपंथी भी थे। के.पी.डी ने जनवरी में होने वाले नेशनल एसेंबली के चुनावों, के बहिष्कार करने का फैसला किया
रोजा इस मौके का फायदा उठाना चाहती है अपनी बात मजदूरों के बीच ले जाने के लिए। लेकिन युवा का बहुमत ट्रेडयूनियनों में एस.पी.डी के वर्चस्व के कारण उससे बाहर आने की वकालत करने लगा। जबकि मजदूरों का भरोसा ट्रेडयूनियनों पर बढ़ता जा रहा था। बड़ी संख्या में मजदूर पहली बार सार्वजनिक व राजनीतिक जीवन में आ रहे हैं। ऐसे लोगों को क्रांति के दौरान के रो-ब-रोज के जीवंत अनुभवों के माध्यम से स्पष्ट करना था कि सैनिकों और मजदूरों की सत्ता क्यों आवश्यक है? लेकिन अपनी नौजवान नेताओं के अल्ट्रा लेफ्ट समझ के कारण इस ऐतिहासिक मौके को गंवा दिया गया। फलतः वे मजदूरों से अलगाव में पड़ गए। लगभग 5 लाख मजदूर बर्लिन की सड़कों पर इसके खिलाफ उतर आये थे। मजदूर आगे की कार्रवाई के लिए नेताओं के इशारे का इंतजार करते रहे। इघर नेतागण आगे क्या करना है इसे लेकर अनिर्णय की स्थिति में रह गए और मौका हाथ से निकल गया।
उधर एस.पी.डी सरकार ने प्रतिक्रान्तिकारी ताकतों को कम्युनिस्ट पार्टी विशेषकर उसके नेतृत्व को समाप्त करने में जुट गयी। बड़े पैमाने पर हत्या की गयी। ‘उधर नोस्के द्वारा गठित फ्रीकॉरप्स’ रोजा लक्जमर्ग और कार्ल लीब्नेख्त को ढूंढ़ रही थी। अंततः वह 15 जनवरी 1919 को वह और कार्ल लीब्नेख्त दोनों पकड़े गए।
इस प्रकार जर्मन क्रांति को हार का सामना करना पड़ा। इन दोनों की हत्याओं के साथ ही क्रांतिकारी उभार का मानो सर कलम कर दिया गया। रोजा के अनुमान के अनुकूल पहले 1921 में बाद में 1923 में लेकिन जर्मन में क्रांतिकारी लहर उठी लेकिन सफल न हो सका। इसी असफलता ने बाद में हिटलर के नाजीवाद के लिए रास्ता तैयार किया।
संगठन बना पाने की असफलता थी हार की प्रमुख वजह
रोजा लक्जमबर्ग ने क्रांतिकारी विचारों की अवश्य रक्षा की लेकिन उसने कुछ गंभीर गलतियां भी की। सबसे बड़ी गलती मार्क्सवादी कैडर आधारित पार्टी का निर्माण कर पाने में असफल होना। आप आंदोलन या क्रांति के दौरान संगठन का निर्माण नहीं कर सकते। क्रांति नवंबर 1918 में शुरू हुआ और कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण होता है उसके दो महीने के बाद। जनता के स्वतःस्फूर्तता पर जरूरत से अधिक भरोसे ने भी उन्हें संगठन बनाने की ओर उतना ध्यान नहीं देने दिया।
रोजा लक्जमबर्ग को संभवतः अपने अंत का अंदाजा था। फिर भी उसने बर्लिन के मजदूरों का साथ नहीं छोड़ा। अपनी संभावित मौत व राजनीतिक पराजय को उन्होंने पहले देख लिया था। जैसा कि जॉर्ज लुकाच ‘रोजा लक्जमबर्ग का मार्क्सवाद ’ शीर्षक अपने लेखक में कहते हैं ‘‘सैद्धांतिक स्तर पर रोजा लक्जमबर्ग ने जनवरी में हुई क्रांतिकारी बगावत की पराजय का अनुमान, असलियत में उसके घटने के, वर्षों पहले कर लिया था। कार्यनीतिक स्तर पर भी उन्हें असली कार्रवाई के क्षणों में भी अपनी इस अवश्यम्भावी हार का अहसास था। फिर भी वह जनता के साथ रही और उसकी स्वाभाविक व त्रासद नियति को झेला। अर्थात उनके कार्यों में सिद्धांत व व्यवहार की एकता बनी रही। ठीक यही वो कारण जिसने उन्हें सामाजिक जनवाद के अवसरवादी हत्यारों का शिकार बनाया।’’
अपनी कमजोरियों के बावजूद रोजा लक्जमबर्ग अंतरराष्ट्रीय समाजवादी आंदोलन की प्रमुख चेहरा थी। जिसकी क्रांति व न्याय के लिए उसकी चाहत ने बहुतों को आकर्षित किया था।
अन्तर्राष्ट्रीयतावाद उनके लिए जीवनदान की तरह था। उनकी भावना को अपनी एक मित्र को लिखे चिट्ठी की इन पंक्तियों से समझा जा सकता है ‘‘दुनिया में जहां कहीं भी, बादल, चिड़िया और लोगों के आंसू होें मुझे वहां घर जैसा लगता है।’’
(अनीश अंकुर स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।