यह आपदा सामाजिक चरित्र भी बदल सकती है!

करोना से संक्रमित लोगों की संख्या में ज्यातीमय वृद्धि हो रही है। इस वृद्धि का शुरुआती रुझान उस वर्ग में देखा गया है, जिसके बस में इसे शुरू में ही थाम लेने की क्षमता थी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। यह दिखाता है कि आर्थिक रूप से सबल वर्ग देश को लेकर कितना बेपरवाह और आम लोगों की परेशानियों को लेकर कितना बेफ़िक्र है। यह वह वर्ग है, जो बात-बात पर राष्ट्रवाद की विज़ुअल ब्रांडिंग करता है और बुनियादी चीज़ों के लिए जूझ रहे लोगों का आदर्श है। लेकिन, हैरानी की बात यह है कि उसे यही नहीं पता कि ब्रांडेड तिरंगा लहराने और कोरस में राष्ट्रगीत गाने से कहीं बड़ी राष्ट्रभक्ति आजकल कोरोना का वाहक बनने से ख़ुद को रोकना है।
यह वर्ग अपनी इस ज़रूरी राष्ट्रभक्ति से बेफ़िक्र है। इस लिहाज से करोना वायरस के भौगोलिक विस्तार ने इस संक्रमण को एक वर्ग चरित्र भी दे दिया है। इस वायरस के जो प्राथमिक कैरियर (Carrier) यानी वाहक बने हैं, वे यूरोपीय देशों या चीन में रहने वाले यही अनिवासी भारतीय हैं। ब्रांडेड और टिप टॉप कपड़ों में सजधजकर विदेशी धरती पर तिरंगा लहराते ये भारतीय जब भी टीवी या सोशल मीडिया में देखे जाते हैं, तो चिथड़ों में लिपटे किसी आम भारतीयों के मन में दबा-सहमा राष्ट्रीय गर्व आसमान नापने लगता है; गंदगी के बीच स्लम्स में रहती बड़ी आबादी भी आलिशान ज़िंदगी की कल्पना करने लगती है और कूड़े के ढेर में ज़रूरी सामान जुटाने की जद्दोजहद में भी सरहद पार के ये रंग-बिरंगे दृश्य, ठंडे पड़े उनके सपनों में भी जुंबिश पैदा करने लगते हैं। मगर,ऐसा पहली बार हुआ है कि अंतर्राष्ट्रीय उड़ान से आसमान की सैर करने वाले ये भारतीय राष्ट्रीय आपदा का वाहक बन गये हैं।
यह आपदा ऐसी-वैसी भी नहीं है। यह आपदा आपको घर में क़ैद कर दे रही है; दूसरी बीमारियों की तरह आप इस बीमारी का लक्षण सूंघते ही एक झटके में अस्पताल का रूख़ करने का फ़ैसला भी नहीं ले पा रहे हैं; हर खांसता, छींकता शख़्स आपको एक चलता फिरता काल नज़र आने लगा है; बिना संवाद-विवाद के भी हम-आप एक संदिग्ध शख्स में बदलते जा रहे हैं; जिन्हें छींक-खांसी हो रही है, उनका आइसोलेशन, उन्हें सेल्फ़ डिटेंशन सेंटर में होने का एहसास करा रहा है; जिन्हें छींक या खांसी नहीं भी है, धीरे-धीरे वे भी आइसोलेशन में जा रहे हैं।
इस स्थिति के गंभीर सामाजिक मनोवैज्ञानिक परिणाम की भी आशंका है। पंद्रह-बीस या इससे भी अधिक दिनों का आइसोलेशन (एकांत/अलगाव) लोगों के भीतर किस क़दर का फ़्रस्ट्रेशन पैदा करेगा,इसका अंदाज़ा शायद अभी से नहीं लगाया जा सकता है। पश्चिमी समाज को तो क़रीब-क़रीब आइसोलेशन की आदत रही है, मगर जिस समाज में हम रहते हैं, उसका चरित्र सोशल डिस्टेंस वाला कभी से नहीं रहा है। ऐसे में बचाव के लिए अपनाया गया आइसोलेशन, सोशल डिस्टेंस, एक ग्रेट डिप्रेशन लेकर भी आ सकता है, क्योंकि यह डिप्रेशन किसी एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि नेशलन डिप्रेशन के रूप में भी सामने आ सकता है।
इस ग्रेट डिप्रेशन का असर लम्बे समय तक बने रहने की आशंका है। इस डिप्रेशन की अभिव्यक्ति करोना से निजात पाने के बाद घरों से लेकर सड़कों, ऑफिसों, बसों, ट्रेनों और अन्य सामूहिक जगहों पर देखने को मिल सकता है। अमेरिका और यूरोप में आइसोलेशन और सोशल डिस्टेंस उनके समाज का अहम हिस्सा रहा है। उनका समाज इससे पैदा होने वाले डिप्रेशन का शिकार भी होते रहे हैं। आशंका है कि करोना से पैदा हुए हालात हमारे सामाजिक-मनोवैज्ञानिक चरित्र को भी बदलकर न रख दे।
करोना,दुनिया के बनिस्पत हमारे लिए इसलिए अधिक प्रतिकूल और ज़्यादा घातक है,क्योंकि हम सार्वजनिक और सामूहिक जीवन में आनंद लेने के आदी रहे हैं। ऐसा पहली बार हो रहा है कि हम बीमारी की चपेट में आने के डर से आइसोलेशन में जा रहे हैं। इस पर किसी सिस्टम ने प्रतिबंध नहीं लगाया है,एक वायरस ने लगा दिया है। कुछ सप्ताह का यह आइसोलेशन और सोशल डिस्टेंसिंग संभव है कि हमारे समाज के चरित्र में आने वाले बदलाव का एक ट्रांजिशनल प्वाइंट या लाइन बन जाये। मगर,इस बीच राहत की पतली सी किरण वही सोशल मीडिया होगा, जिस पर लोगों को आइसोलेशन में डाल देने और सोशल डिस्टेंसिंग पैदा करने का आरोप लगता रहा है ।
पिछले साल के 17 नवम्बर को चीन के वुहान में इस बीमारी के बारे में जब कन्फर्म पता चला,तो पूरी दुनिया में हड़कंप मच गया। जिन विकसित देशों ने ज़रा सी भी लापरवाही दिखायी,वह इसके आगोश में आते चले गये। विकासशील या अविकसित देश इससे इसलिए लम्बे समय तक बचे रहे, क्योंकि विकसित देशों के मुक़ाबले उनकी आवाजाही सीमित रही। यह तथ्य भी इस बात का जवाब है कि यह वायरस जिस संक्रमण का दंश देता है, उसका वर्ग चरित्र विशिष्ट क्यों है।
याद कीजिए, अविकसित देशों में किसी वायरस से फैलने वाली बीमारियां, किसी विकसित देश में जाकर आजतक इस स्तर पर हड़कंप नहीं मचा पायी है। उसका कारण है कि किसी अविकसित देश या सीमित बाज़ार वाले देशों से विकसित देश का सिटिजन डिस्टेंस बनाये रखना आसान होता है,क्योंकि इससे न पूंजी पर ज़्यादा फ़र्क पड़ता है और न ही पूंजीपतियों पर। लिहाजा उनके साथ डिस्टेंस मेंटन करना आसान होता है। इसी तरह थोड़ी देर के लिए मान लिया जाय कि यह बीमारी एकदम से निर्धनों के बीच से पैदा होती, तो क्या उसके फैलाव का डर इसी स्तर का होता ? या फिर निर्धनों से संक्रमण को सीमित करना इसिलए आसान होता,क्योंकि उस तबके में आवाजाही की गुंजाइश बहुत कम है या फिर संक्रमण लेकर आवाजाही की मनमानी करने का उसमें साहस नहीं है या फिर उसे आसानी से व्यवस्था द्वारा भी सीमित किया जा सकता है।
मगर,कनिका कपूर जैसे लोग इसलिए मनमानी कर सकते हैं, क्योंकि ऐसे लोग उस वर्ग से आते हैं, जिसके साथ सिस्टम है और सिस्टम के साथ उसे मनमानी करने का वर्गगत हक़ हासिल है। इस सूचना पर हैरत होती है कि आपात काल में कैसे किसी व्यक्ति को एयरपोर्ट पर स्क्रीनिंग से छूट दी जा सकती है, या वह स्क्रीनिंग को धोखा देकर कैसे भाग सकता है। हालांकि उनका कहना है कि उन्होंने कुछ भी नहीं छुपाया है। और जब वे लंदन से भारत लौटीं उस समय तक भारत में एयरपोर्ट भी कुछ काग़ज़ी कार्रवाई के कोई मेज़र स्टैप नहीं उठाए गए थे और उन्हें घर जाने दिया गया।
इतना तो सच है कि कनिका कपूर कोरोना पोजिटिव थीं, इसके बावजूद वह स्क्रीनिंग से पार पा गयीं। आख़िर यह कैसे हो पाया ? इसी से जुड़ा सवाल यह भी है कि कनिका इसलिए धर ली गयीं,क्योंकि एक साथ उन्होंने बड़ी संख्या में विशिष्ट वर्ग को प्रभावित किया।
कनिका कपूर तमाम पार्टियों के नेताओं वाली पार्टी का अहम हिस्सा बनीं,और नहीं मालूम कि अपना संक्रमण वह कितनों को बांट गयीं। आख़िर नेताओं और मंत्री का तबका भी वही है,जिससे कनिका ख़ुद आती हैं। इस वर्ग की चेतना कितनी उन्नत है, यह संकट की इस महामारी को लेकर उसकी जागरूकता के स्तर से पता चलता है। इस पार्टी में एक पूर्व मुख्यमंत्री थीं,कई मौजूदा मंत्री और पूर्व मंत्री थे,लोकायुक्त थे,और कई पार्टियों के नेता थे।यह वही वर्ग है,जिनके रिश्तेदार-दोस्त अंतर्राष्ट्रीय उड़ान भरते हैं और विदेशों से करोना इन्हीं के ज़रिते देश में दाखिल होता है।
याद कीजिए कि किस तरह इटली से आया एक संक्रमित शख़्स कई होटलों में जाकर पार्टियां करता है,और एक साथ वह दर्जनों को अपने संक्रमण की ज़द में ले लेने की आशंका पैदा कर देता है। ग्रेटर नोएडा के स्कूल, श्रीराम मिलेनियम में पढ़ने वाले उसके बच्चे भी स्कूल हो आते हैं, और तब जाकर राष्ट्रीय स्तर पर ख़बर फ़ैलती है। इस ख़बर ने स्कूली बच्चों के माता-पिता को पहली बार कोरोना को लेकर सचेत किया था, सिस्टम ने नहीं। इसे सिस्टम का फ़ेल्योर माना जाय या सक्सेस ?
केन्द्रीय व्यवस्था में अगर इस महा आपदा को लेकर थोड़ी भी संवेदना होती है,तो स्क्रीनिंग के ज़रिये इस महामारी पर अंतर्राष्ट्रीय उड़ान केंद्रों पर ही ब्रेक लगा दिया गया होता। मगर ऐसा नहीं हुआ। अब,जबकि महामारी ने कई चरणों पार करते हुए आख़िरी आदमी तक दस्तक देने लगी है, तो समझिए थाली पीटने, ताली पीटने और घंटी बजाने का क्या अर्थ हो सकता है ? आम लोगों की इस आपदा से निपटने की कोई योजना नहीं, किसी तरह की फंड की कोई घोषणा नहीं, विभिन्न विभागों और जनता के बीच किसी तरह की कोई भागीदारी और लामबंदी नहीं, सप्ताहों तक घर के भीतर आइसोलेशन और सोशल डिस्टेंस मेंटेन करने वालों के लिए ज़रूरी व्यवस्था का कार्यक्रम नहीं, इस तरह बैठे रोज़-रोज़ की मज़दूरी करने वालों और उनके बच्चों के लिए खाने-पीने की कोई सुनिश्चितता नहीं, मगर फिर भी जनता कर्फ्यू ? आशंका है कि यह कर्फ़्यू कई आर्थिक-सामाजिक और मनोवैज्ञानिक मसलों की बुनियाद साबित हो सकता है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।)
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