बुलंदियों पे पहुँचना कोई कमाल नहीं, बुलंदियों पे ठहरना कमाल होता है

क़ितआ
नज़र नज़र में उतरना कमाल होता है
नफ़स नफ़स में बिखरना कमाल होता है
बुलंदियों पे पहुँचना कोई कमाल नहीं
बुलंदियों पे ठहरना कमाल होता है
ग़ज़ल
1.
मेरी तरह ज़रा भी तमाशा किए बग़ैर
रो कर दिखाओ आँख को गीला किए बग़ैर
ग़ैरत ने हसरतो का गरेबाँ पकड़ लिया
हम लौट आए अर्ज़-ए-तमन्ना किए बग़ैर
चेहरा हज़ार बार बदल लीजिए मगर
माज़ी तो छोड़ता नहीं पीछा किए बग़ैर
कुछ दोस्तों के दिल पे तो छुरियाँ सी चल गईं
की उस ने मुझ से बात जो पर्दा किए बग़ैर
2.
अब इस से पहले कि दुनिया से मैं गुज़र जाऊँ
मैं चाहता हूँ कोई नेक काम कर जाऊँ
ख़ुदा करे मिरे किरदार को नज़र न लगे
किसी सज़ा से नहीं मैं ख़ता से डर जाऊँ
ज़रूरतें मेरी ग़ैरत पे तंज़ करती हैं
मिरे ज़मीर तुझे मार दूँ कि मर जाऊँ
बहुत ग़ुरूर है बच्चों को मेरी हिम्मत पर
मैं सर झुकाए हुए कैसे आज घर जाऊँ
मिरे अज़ीज़ जहाँ मुझ से मिल न सकते हों
तो क्यूँ न ऐसी बुलंदी से ख़ुद उतर जाऊँ
- अशोक साहिल
(कविताएं साभार : रेख़्ता )
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