इतवार की कविता: मर्द खेत है, औरत हल चला रही है

मर्द खेत है
औरत हल चला रही है
औरत खेत है
उसमें मर्द हल चलाता है
बीज छिड़कता है
आनंद मिलता है सृष्टि चलती है
अब इसे बिंब कहिये या रूपक
दुनिया भर के साहित्य में
यह चीज़
किसी-न-किसी रूप में मिलेगी
हल की मूठ पर औरत का नहीं
मर्द का हाथ मिलेगा
हाथ सिर्फ़ हाथ नहीं होता
वह औरत का नियंता
भाग्य विधाता बन जाता है
इतिहास को अपने पक्ष में मोड़ लेता है
अब इसे अगर उलट-पुलट दिया जाये
कुछ तोड़-फोड़ की जाये
सर के बल खड़ी चीज़ों को
पांवों के बल खड़ा कर दिया जाये
तो कैसा रहे!
ऐसा हो
मर्द खेत बन जाये
औरत उसमें हल चलाये
और गाना गाये
मैं तेरा चांद तू मेरी चांदनी...
बीज का छिड़काव तब भी होगा
आनंद तब भी मिलेगा
सृष्टि तब भी चलेगी
बस पैमाना बदल जायेगा
कायनात को देखने का नज़रिया बदल जायेगा
जब से धान की खेती शुरू हुई
औरतें खेती-किसानी करती चली आयी हैं
धान की बुवाई रोपाई सोहनी निराई
मवेशियों को चारा-पानी
दूध दुहना
और भी कई कई काम करती रही हैं
अपना हाड़ गलाती रही हैं
लेकिन औरतों को किसान नहीं माना गया
ज़मीन का पट्टा उनके नाम नहीं रहा
खेत का मालिकाना उनके नाम नहीं रहा
उन्हें कर्ता-धर्ता भतार नहीं समझा गया
जबकि असली पालनहार वही रहीं
हमेशा ‘किसान भाई’ कहा जाता रहा
‘किसान बहन’ कभी नहीं
जबकि औरत ही दुनिया की पहली किसान रही है
औरत को खेत क्या इसलिए कहा गया
कि मर्द जब चाहे
उसमें मुंह मारता फिरे?
यह हालत बदलने के लिए
औऱत उठ खड़ी हुई है
सत्ता और संपत्ति में
अपना 50 प्रतिशत हिस्सा पाने के लिए
जद्दोजहद शुरू कर दिया है उसने
उसने ऐलान कर दिया हैः
ब्राह्मणी पितृसत्ता का नाश हो!
उसने ऐलान कर दिया हैः
मनुस्मृति को फिर जलाया जाना चाहिए!
उसने ऐलान कर दिया हैः
इन्क़लाब ज़िंदाबाद का नारा
हमारी ज़िंदगी का हिस्सा है।
याद रखिए
सभ्यताएं सिर्फ़ नदियों के किनारे नहीं पलीं
वे औरतों की गोद में भी पली-बढ़ीं
औरतों ने सभ्यताओं को अपनी गोद में
पाला-पोसा संवारा
अपने सीने का दूध पिलाया
उनके बालों में चोटियां बनायीं
आंखों में काजल लगाया
नज़र न लगे इसलिए माथे पर डिठौना लगाया
सभ्यताओं को बचाने के लिए
वे पहरेदारी करती रहीं
ख़ूब लड़ीं भी वे
औरतों की खेती-किसानी ने
सभ्यताओं को ज़िंदा रखा
उन्हें इस लायक बनाया
कि वे कई शताब्दियों की यात्रा कर सकें
आज हम सब
जो इक्कीसवीं शताब्दी में खड़ी हैं
यह न भूलें
कि यहां तक पहुंचने में
मातृसत्तात्मक समाज के सुनहरे दौर की
अहम भूमिका रही है
वह समाज तो अब नहीं लौट सकता
उसका पतन
औरतों की ‘ऐतिहासिक हार’ थी
लेकिन सत्ता और संपत्ति पर
क़ब्ज़ा करने का जो सपना
उसने औरतों को दिखाया
वह आज भी ज़िंदा है
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अजय सिंह
लखनऊ, 12.8.2021 गुरुवार
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