हवाओं सी बन रही हैं लड़कियां… उन्हें मंज़ूर नहीं बेवजह रोका जाना

महिला अधिकारों के लिए काम करने वालीं सामाजिक कार्यकर्ता कमला भसीन नहीं रहीं। वे एक कवि, लेखक भी थीं। उन्होंने लड़कियों-महिलाओं, बच्चों सबके लिए शिक्षाप्रद कविताएं लिखीं। उनकी कविताएं भी उनके मिशन, उनके अभियान का हिस्सा थीं। आज अंतर्राष्ट्रीय बेटी दिवस भी है। इस मौके पर उन्हें याद करते हुए ‘इतवार की कविता’ में पढ़ते हैं उनकी दो ख़ास कविताएं-
उमड़ती लड़कियां
हवाओं सी बन रही हैं लड़कियां
उन्हें बेहिचक चलने में मज़ा आता है
उन्हें मंज़ूर नहीं बेवजह रोका जाना
फूलों सी बन रही हैं लड़कियां
उन्हें महकने में मज़ा आता है
उन्हें मंज़ूर नहीं बेदर्दी से कुचला जाना
परिंदों सी बन रही हैं लड़कियां
उन्हें बेख़ौफ़ उड़ने में मज़ा आता है
उन्हें मंज़ूर नहीं उनके परों का काटा जाना
पहाड़ों सी बन रही हैं लड़कियां
उन्हें सर उठा कर जीने में मज़ा आता है
उन्हें मंज़ूर नहीं सर को झुका कर जीना
सूरज सी बन रही हैं लड़कियां
उन्हें चमकने में मज़ा आता है
उन्हें मंज़ूर नहीं पर्दों से ढका जाना
हां जी हां जी ना जी ना
तुम खाना खाते हो?
हां जी हां जी हां जी हां
तुम खाना पकाते भी हो
ना जी ना जी ना जी ना
खाने की हां, पकाने की ना
ऐसे कैसे चले जहां?
तुम गंदा करतो हो?
हां जी हां जी हां जी हां
तुम सफ़ाई भी करते हो?
ना जी ना जी ना जी ना
गंदे की हां, सफ़ाई की ना
ऐसे कैसे चले जहां
तुम कपड़े पहनते हो?
हां जी हां जी हां जी हां
तुम कपड़े धोते भी होगे?
ना जी ना जी ना जी ना
कपड़ों की हां, धोने की ना
ऐसे कैसे चलेगा जहां?
- कमला भसीन
(24 अप्रैल, 1946-25 सितंबर, 2021)
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