विशेष: गिनने और न गिनने के बीच जीती जागती जाति

जब पटना से दिल्ली तक, दिल्ली से लखनऊ तक और लखनऊ से मुंबई तक राजनीतिक दलों ने जाति जनगणना की मांग की धूम मचा रखी है तब अयोध्या के पास के एक गांव का विचित्र अनुभव सामाजिक यथार्थ के बारे में बहुत कुछ कहता है। इस बार प्रधानी का चुनाव लड़े और धन के अभाव में हारे एक दलित मित्र मेरे पास बड़ी उम्मीद से आए। उनका कहना था कि बस्ती में सतीश चंद्र मिश्र आ रहे हैं और बसपा की ओर से ब्राह्मण सम्मेलन कर रहे हैं। आपको चलना है। मैंने उन्हें समझाया कि मेरी इस तरह के कार्यक्रमों में कोई रुचि नहीं है। ऐसा कहते हुए मैं आंबेडकर और लोहिया साहित्य के ज्ञान का दंभ छुपा नहीं पाया।
लेकिन दूसरे ही क्षण मैं यह सोचकर अपराध बोध और शर्म से भर गया कि परिवार के बुजुर्ग सदस्यों की पवित्रता या छुआछूत संबंधी धारणा के चलते उन्हें चाय पानी नहीं पिला सकता। गांव के तमाम सवर्ण घरों में वे पानी पीने को मना भी कर देते हैं। कुछ घरों में दिखावे के लिए दलितों के लिए अलग गिलास रखे हुए हैं और उसे वे ही उठाकर साफ करते हैं और चाय पीकर फिर साफ कर देते हैं। ऐसे में ब्राह्मण सम्मेलन में जाने और न जाने का क्या मतलब है। मेरा और मेरे गांव का व्यवहार तो वही है।
गांव में राजनीतिक चेतना आई है। बसपा, सपा और सबसे ज्यादा भाजपा समर्थक साफ नजर आते हैं। लेकिन समाज वहीं का वहीं है। विशेषकर घर के स्तर पर तो जाति नहीं ही टूटी है। वह चाय की दुकान पर, रेलवे स्टेशनों पर, कार्यस्थलों पर और बड़े शहरों में भले टूट रही हो। लेकिन वहां भी तमाम स्कूलों पर सवर्ण जाति के लोग इस्तेमाल के लिए दलित समाज के कर्मचारियों से अलग अपना गिलास और कप प्लेट रखते हैं।
इस बीच एक चैनल पर बहस के लिए आमंत्रित करने वाले एक मित्र ने मेरा स्टैंड पूछ लिया कि मैं जाति आधारित जनगणना के पक्ष में हूं या विपक्ष में। मैंने बता दिया कि जब 2011 में जाति जनगणना की जबरदस्त मांग हुई थी तो मैं विरोध में था लेकिन अब पक्ष में हूं। हालांकि मुझे इस बात पर यकीन नहीं है कि इस तरह की गणना होने से जाति टूट जाएगी।
दरअसल जाति की संरचना के बारे में बहुत विश्वास के साथ कुछ भी कह पाना आसान नहीं है। जाति भारतीय समाज का वह वायरस है जिसके साथ समाज सैकड़ों सालों से जी रहा है और लगता है कि आगे भी लंबे समय तक जीने की तैयारी है। हम सब जाति के पाखंड के शिकार हैं। अगर उसे समाज के स्तर पर तोड़ते हैं तो राजनीति के स्तर पर अपना लेते हैं और अगर राजनीति के स्तर पर तोड़ते हैं तो समाज के स्तर पर बना रहने देते हैं।
आज जाति आधारित जनगणना के पीछे तर्क यही है कि अन्य पिछड़ा वर्ग की आबादी को लेकर भारी भ्रम है। इसी भ्रम के कारण पिछड़ी जातियों के उस तबके को न्याय नहीं मिल पाता जिसे उसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। दूसरी ओर राष्ट्रीय स्तर की पार्टियां विभिन्न जातियों को यह कह कर आपस में लड़ाती रहती हैं कि फलां जाति ने आरक्षण और दूसरी सरकारी सुविधाओं पर ज्यादा कब्जा कर लिया है इसलिए तुम्हें उनके प्रभुत्व का विरोध करना चाहिए। इसलिए जब जातियों की सही संख्या का पता चल जाएगा तो उसी लिहाज से विशेष अवसरों का वितरण भी हो पाएगा। इसी के साथ यह भी कहा जा रहा है कि इससे सवर्णो की सही संख्या का पता चल जाएगा और उसी के साथ यह भी मालूम हो जाएगा कि उन्होंने अपनी आबादी के लिहाज से कितने प्रतिशत संसाधनों पर कब्जा कर रखा है। उसके बाद तमाम कार्यक्रम बनाने में सुविधा होगी।
समाजवादियों की यह भी दलील है कि वे डॉ. लोहिया के नेतृत्व में लंबे समय तक नारा लगाते रहे हैं कि `सोशलिस्टों ने बांधी गांठ पिछड़ा पावै सौ में साठ’। इसलिए जाति की जनगणना के साथ आरक्षण पर लगी 50 प्रतिशत की सीमा हटाई जाए।
दूसरी ओर आधुनिकतावादी और सवर्णवादी लोग इस बात से आशंकित हैं कि एक बार जाति की जनगणना के आंकड़े आ गए तो देश में आग लग जाएगी। इसके बाद नारा लगेगा कि `जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी’। फिर सभी जातियां अपने अपने आरक्षण के लिए सड़क पर होंगी और देश में अराजकता फैल जाएगी। इसलिए जाति की जनगणना नहीं होनी चाहिए क्योंकि इससे जातिविहीन समाज बनने में दिक्कत आएगी। लेकिन ऐसा कहने वालों से पूछो कि जातिविहीन समाज बनाने के लिए वे कर क्या रहे हैं तो उनके पास कोई ठोस जवाब नहीं है। उनको लगता है कि संविधान ने छुआछूत को गैर कानूनी करार कर दिया और बाकी काम आधुनिकीकरण और औद्योगीकरण के माध्यम से हो रहा है। धीरे धीरे जाति टूट रही है और आगे भी टूट ही जाएगी।
लेकिन जाति टूटने का यह क्रम गांव के स्तर पर तो दिखाई नहीं देता और शहरों में भी जब आप रविवार को अखबारों के वैवाहिक विज्ञापन देखेंगे तो पाएंगे कि वहां भी यही स्थिति है। खानपान के स्तर अगर वह टूटी भी है तो रोटी बेटी के स्तर पर नहीं टूट रही। कुल मिलाकर 2 प्रतिशत अंतरजातीय विवाह इस देश में होते हैं उस पर भी ऑनर किलिंग और डराने धमकाने की घटनाएं आम हैं। इस बीच अंतरधार्मिक विवाहों को रोकने के कानून बनने के साथ ही अंतरजातीय विवाहों में भी हिंसा बढ़ी है। यह वैसा करने वाले जोड़ों में खौफ पैदा हुआ है।
सवाल उठता है कि आखिरकार जाति तोड़ने के कार्यक्रम में दिक्कत कहां हुई? सबसे पहले उस संगठन को लेते हैं जो अपने को जाति के भेदभाव से मुक्त बताता है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ दावा करता है कि उसके संगठन में कोई किसी से जाति नहीं पूछता। विभिन्न जातियों के लोग एक साथ शाखा लगाते हैं, एक साथ बौद्धिक करते हैं और एक साथ ही भोज करते हैं। लेकिन जब उनकी विचारधारा में जाति तोड़ने के सूत्र ढूंढने लगिए तो वहां कुछ विचित्र किस्म के सिद्धांत मिलते हैं। एकात्म मानववाद का सिद्धांत गढ़ने वाले दीनदयाल उपाध्याय का कहना है कि जातियां हिंदू समाज के अंग प्रत्यंग की तरह हैं। उनमें सबकी अपनी अपनी उपयोगिता है। उनमें से कोई छोटा बड़ा नहीं है। क्या हाथ पैर से ज्यादा महत्वपूर्ण है। नहीं। क्या सिर पैर से ज्यादा अहम है। नहीं। इसलिए जो लोग जाति तोड़ने की बात करते हैं वे भारतीय समाज के हाथ पैर तोड़ने की बात करते हैं। इन्हीं सिद्धांतों को आगे बढ़ाते हुए हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुख्यमंत्री रहते हुए एक व्याख्यान में मैला ढोने वाले कर्म और दूसरे सफाई कर्म का गौरवगान करते हुए उन्हें आध्यात्मिक संतोष प्रदान किया है।
यह एक बड़ा कारण है कि केंद्र से लेकर विभिन्न राज्यों पर भाजपा और समाज में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की पकड़ मजबूत होने के साथ हर जाति के गौरवगान का कार्यक्रम तो तेज हुआ है लेकिन जाति तोड़ने का कार्यक्रम ठहर गया है। संघ परिवार के लोग जाति अस्मिता को बढ़ावा देने में यकीन करते हैं न कि जाति तोड़ने में। इससे जातियां बनी भी रहती हैं और वे वोट के लिए गोलबंद भी हो जाती हैं। भारत में जातियों की यही स्वाभाविक प्रवृत्ति भी है।
एक सिद्धांत यही कहता है कि भारत में जातियों की ऊर्ध्व संरचना बहुत कम है और ज्यादातर क्षैतिज संरचना है। इसलिए भाजपा जाति तोड़ने की बजाय जातियों को मैनेज करने और उनकी सोशल इंजीनियरिंग की बात करती है। आजकल पत्र पत्रिकाओं में भी सोशल इंजीनियरिंग शब्द चल निकला है। इस धारणा के तहत जाति संरचना को लेकर न तो समाज में किसी किस्म का अपराधबोध है और न ही उसे मिटाने की उत्कंठा। सिर्फ विभिन्न जातियों के मिथकों और महापुरुषों का गौरवगान करके उस जाति को अपनी पार्टी और संगठन में ले आना है ताकि वोट बैंक बने और सत्ता मिले। साथ ही उनका हिंदूकरण किया जा सके। इस विचारधारा के भीतर एक ओर डॉ. आंबेडकर को प्रातः स्मरणीय बताने की होड़ है तो दूसरी ओर मनुस्मृति का भी गुणगान है। उनका मानना है कि भारतीय समाज को जातियों के आधार पर लड़ाने का काम अंग्रेजों ने किया है।
दूसरी ओर डॉ. भीमराव आंबेडकर के जातिभेद का बीजनाश (Annihilation of caste) के विचारों से प्रभावित पार्टियां और विचारक हैं। उनका मानना था कि भारतीय समाज में जाति और वर्ण व्यवस्था में कोई अंतर नहीं है। वर्ण भले चार हैं लेकिन जातियां अनेक हैं लेकिन उनकी व्यवस्था ऊंच नीच के आधार पर हैं। यह काम मनुस्मृति द्वारा किया गया है। यहां की जातिव्यवस्था श्रेणीगत असमानता पर आधारित है। यानी सिर्फ ब्राहमण ही दलितों से दूरी नहीं बरतता दूसरी जातियां भी उनसे दूरी बरतती हैं। इसके अलावा तमाम पिछड़ी जातियों और दलित जातियों के भीतर भी आपस में रोटी बेटी का रिश्ता नहीं है।
डॉ. आंबेडकर ने महात्मा गांधी के इस दावे को खारिज किया था कि जाति व्यवस्था आरंभ में अच्छी थी और वर्ण व्यवस्था मनुष्य की प्रवृत्तियों के आधार पर की गई कर्म विभाजन की व्यवस्था थी, जो बाद में वह पतित हो गई। उनका कहना था कि हिंदू धर्मग्रंथों में असमानता का विचार अंतर्निहित है। इसलिए गैर बराबरी पर आधारित विचारधारा वहीं से निकली है। अगर समाज से जाति व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था को मिटाना है तो पहले धर्मग्रंथों को खारिज करना होगा। वह सिलसिला वेदों से लेकर मनुस्मृति तक चलना चाहिए। वे कहते थे कि हिंदू धर्म को एक मिशनरी धर्म की तरह अपने को आयोजित करना चाहिए और विभिन्न धर्मग्रंथों की जगह पर एक धर्मग्रंथ तैयार करना चाहिए।
इसके अलावा एक दृष्टि डॉ. राम मनोहर लोहिया और समाजवादियों की है। वे जाति तोड़ने के हिमायती हैं और उसके लिए धार्मिक शास्तियों को खारिज भी करते हैं लेकिन वे हिंदू संस्कृति को उस तरह से खारिज नहीं करते जिस तरह से डॉ. भीमराव आंबेडकर करते हैं। डॉ. आंबेडकर तो `हिंदू धर्म की पहेलियां’ लिखकर समस्त हिंदू देवी देवताओं की आलोचना करते हैं और उनकी उत्पत्तियों पर सवाल उठाते हैं। लेकिन डॉ. राम मनोहर लोहिया राम, कृष्ण और शिव पर अपना प्रसिद्ध व्याख्यान देकर उनका गौरवगान करते हैं। डॉ. लोहिया जाति के भेदभाव मिटाने के लिए विशेष अवसर के सिद्धांत का समर्थन तो करते हैं साथ में रोटी बेटी का संबंध कायम करने के लिए तमाम कार्यक्रम सुझाते हैं। लेकिन जहां डॉ. आंबेडकर जाति की उत्पत्ति के लिए युद्ध में हुई हार और खानपान में अंतर को जिम्मेदार बताते हैं वहीं लोहिया इसके लिए वर्ग निर्माण की आर्थिक प्रक्रिया भी जिम्मेदार बताते हैं। लेकिन डॉ. लोहिया आंबेडकर से गठजोड़ इसलिए बनाना चाहते थे कि उनके होते हुए उन्हें भारत से जातिव्यवस्था के मिटने की उम्मीद थी।
डॉ. लोहिया का मानना है कि समाज में जब आर्थिक प्रगति ठहर जाती है तो वर्ग निर्माण रुक जाता है और जातियों का निर्माण होता है। इस तरह जातियां ठहरी हुई वर्ग हैं। जबकि वर्ग गतिशील जातियां हैं। जब समाज में उत्पादन प्रक्रिया तेज होगी तो जातियां टूटने लगेंगी। जब आर्थिक गतिशीलता ठहरेगी तो जातियां पैदा होने लगेंगी। जाति की इसी संरचना पर महात्मा फुले ने अलग ढंग से सोचा है। वे जातिगत संरचना के लिए विदेशी आक्रमण और नस्लवाद को तो जिम्मेदार मानते ही हैं वे इसे एक प्रकार से मार्क्सवाद के वर्ग निर्माण और शोषण प्रक्रिया के समतुल्य मानते हैं। जिसे धार्मिक ग्रंथों ने मान्यता दे रखी है।
आज जब जाति जनगणना के पक्ष में तमाम सेक्युलर, उदार और आधुनिकतावादी बौद्धिक एकजुट हो रहे हैं और वे सोच रहे हैं कि शायद इससे राष्ट्रवाद की कट्टरता ढीली होगी और धर्म आधारित राजनीति का एजेंडा बदलेगा और बहुसंख्यकवाद की पकड़ कमजोर पड़ेगी तब यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या इससे जातियां टूटने का सिलसिला भी बनेगा?
आज जिस तरह से ब्राह्मणों के सम्मेलन आयोजित हो रहे हैं, परशुराम की बड़ी से बड़ी मूर्ति लगाने की होड़ हो रही है, हर जाति अपने अपने ऋषियों और पुरखों को गौरवान्वित करने में लगी है और संघ परिवार हर जाति को ध्यान में रखकर उनकी सोशल इंजीनियरिंग कर रहा है तब यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जाति की जनगणना से जाति टूटने की संभावना कितनी है? यह सही है कि अब मार्क्सवादी दायरे में भी तेजी से महसूस किया जा रहा है कि भारत की जाति संरचना पर जोर देकर ही दीर्घकालिक राजनीति की जा सकती है और स्वयं माकपा के पूर्व महासचिव प्रकाश करात आक्सफोर्ड के अपने व्याख्यान में यह स्वीकार कर चुके हैं कि कम्युनिस्ट पार्टियों ने भारत की जाति को समझने में चूक की। उधर भाकपा माले जैसी पार्टियां बहुत बारीकी से जातियों को वर्ग के आधार पर गोलबंद भी कर रही हैं। वे जाति जनणना के समर्थन में भी आ रही हैं। लेकिन जातियां कैसे टूटेंगी इस बारे में उनका सैद्धांतिक पक्ष आना शेष है। या उसके निर्माण की प्रक्रिया जारी है। शायद इसीलिए विनोद मिश्र कहते भी थे कि भारत और पूंजीवाद के आज के रूप के लिए अलग से दास कैपिटल लिखा जाना चाहिए।
इसलिए सवाल उठता है कि क्या जाति भारतीय समाज का वह खिलौना है जो राजनीतिक दलों को अपने से लंबे समय तक खेलने का अवसर देता है या फिर जाति वह सजीव इकाई है जो यहां राजनीति करने वाले संगठनों से खेलती है?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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