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याद किये गये जन-आंदोलनों के मुखर स्वर शिल्पी सेनानी महेश्वर!

महेश्वर सबसे बढ़कर “इंसान विरोधी शोषणकारी व्यवस्था” द्वारा नित खड़े किये जा रहे “ग्लैमर के ताज़ा संसार” के ख़िलाफ़ निरंतर-जीवनपर्यंत क्रांतिकारी वामपंथ के सतत गतिशील सांस्कृतिक-योद्धा रहे।
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जनता के जीवन-संघर्षों के साथ लेखन-संस्कृतिकर्म का रिश्ता ‘दांता व पेंच’  जैसा होना चाहिए, इसी फ़लसफ़े को पूरी संज़ीदगी से ज़िन्दगी के आखिरी पलों तक जिया ‘जनता के बुद्धिजीवी’ कहे जानेवाले महेश्वर ने। मनुष्य-विरोधी समय के ख़िलाफ़ युद्धरत शक्तियों के जीवंत प्रतीक बनकर सदा सक्रिय-गतिशील रहे जन संस्कृति मंच के संस्थापकों में प्रमुख व पूर्व महासचिव महेश्वर।

75 वें जन्मदिवस (26 दिसंबर) पर 25 से 31 दिसंबर तक ‘जन सांस्कृतिक सप्ताह’ के तहत बिहार समेत कई स्थानों पर विविध सांस्कृतिक आयोजन किये गए। जिनके माध्यम से क्रांतिकारी वामपंथ के सांस्कृतिक प्रणेता की सृजन-संघर्ष की परम्परा को याद करते हुए समकालीन सांस्कृतिक चुनौतियों के मुकाबले के लिए एकजुट प्रगतिशील-जन सांस्कृतिक कार्यभारों को लेकर गहन विमर्श किया गया।

बहुत कुछ थे महेश्वर– कवि, लेखक, गीतकार, पत्रकार, अनुवादक, संगीतकार होने के साथ साथ कुशल सांस्कृतिक संगठक और बहुत कुछ! पर सबसे बढ़कर “इंसान विरोधी शोषणकारी व्यवस्था” द्वारा नित खड़े किये जा रहे “ग्लैमर के ताज़ा संसार” के ख़िलाफ़ निरंतर-जीवनपर्यंत क्रांतिकारी वामपंथ के सतत गतिशील सांस्कृतिक-योद्धा रहे।

ख्यात और प्रगतिशील साहित्यकार नामवर सिंह ने महेश्वर कि विशेषताओं को रेखांकित करते हुए कहा था कि- “महेश्वर ने ऐसे दौर में हम सबको निर्णायक होने का आह्वान किया है जब बड़े-बड़ों की आस्थाएं डगमगा गयी हैं और जब शताब्दी के अवसान, समाजवाद के अंत और स्वयं इतिहास के अंत के आर्तनाद से दिग-दिगंत गूँज रहा है। संशय, अनिश्चय और अनास्था के इस ‘उत्तर आधुनिकतावादी’ माहौल में आस्था का यह स्वर दुर्लभ है।”

नामवर सिंह जी का उक्त कथन यूं ही नहीं था क्योंकि ’80-90 के दशक में जब दुनिया में वामपंथ का सबसे मजबूत स्तम्भ कहे जानेवाले ‘सोवियत संघ का विघटन’ हुआ तो ऐसा लगने लगा था मानो पूरी दुनिया से लेकर देश की वामपंथी राजनीति और उससे जुड़े बौद्धिक-सांस्कृतिक जगत में “स्तब्धकारी हलचल” सी मच गयी हो। क्योंकि  सारे “अगर-मगर” के बावजूद एक ‘समाजवादी कम्युनिस्ट राष्ट्र’ के मॉडेल के रूप में सोवियत संघ को ही माना जाता था। स्वाभाविक था कि भारत में भी ‘स्थापित वामपंथी धारा’ पर भी इसका ऐसा गहरा असर हुआ था और “घोषित-अघोषित” रूप से “आस्थाएं” हिल-सी गयी थीं।

लेकिन दूसरी ओर, यही वो दौर था जब ‘वसंत वज्रनाद’ (नक्सलबाड़ी परिघटना) की ज़बरदस्त अनुगूँज ने वामपंथ की एक नयी-गतिशील धारा के रूप में सबका ध्यान खींचा था। ‘मार्क्सवाद-लेनिनवाद’ के लाल झन्डे को नए तेवर के साथ लहराते हुए ज़मीनी स्तर पर ‘क्रान्तिकारी वामपंथी राजनीति’ के नए मॉडेल को सामने लाया। इस नयी राजनीति के ज़बरदस्त प्रभाव का ही असर था कि उन दिनों देश के कई-कई  प्रसिद्ध विश्वविद्यायलों के छात्र-बुद्धिजीवियों ने “यथास्थितवादी सड़ी-गली व्यवस्था” का ध्वंस कर ‘व्यवस्था परिवर्तन के आंदोलनों’ में ‘कैम्पस-कैरियर-परिवार’ को छोड़कर खुद को झोंक सा दिया था।

इसी ‘क्रान्तिकारी वाम धारा’ के अगुआ बौद्धिक-सांस्कृतिक सेनानी की भूमिका निभाते हुए “भारी संशय –निराशा” के भी दौर में भी वामपंथ के नए सुर्ख परचम को लहराने की बुलंद मिशाल पेश की थी महेश्वर ने। 

मुंगेर में कॉलेज की पढ़ाई उपरांत बीएचयू में हिंदी स्नातकोत्तर की पढ़ाई में ‘रिकार्ड अंक’ लाकर अपने बैच के ‘टॉपर छात्र’ बने। बाद में वहीं से उन्होंने पीएचडी भी की। कहा जाता है उनके द्वारा लाए गए परीक्षा-अंक काफी समय तक सबसे अधिक रैंक माना जाता रहा। 

बीएचयू में पढ़ाई के दौरान ही ’60-70 के दशक में ‘वसंत वज्रनाद- नक्सलबाड़ी आंदोलन’ की धमक जब पूरे देश के छत्र-युवाओं-बुद्धिजीवियों के बीच ‘सामाजिक-परिवर्तन’ का नया सन्देश दे रही थी, तो महेश्वर के गतिशील युवा मन-मिज़ाज को भी ‘नक्सलवादी राजनीति-वैचारिकी’ ने गहरे आकर्षित किया। सनद रहे कि यही वो दौर था जब बीएचयू में दर्शन शास्त्र की उच्च पढ़ाई कर रहे प्रख्यात जनकवि गोरख पाण्डेय के साथ उनकी ऐसी अन्तरंग वैचारिक दोस्ती हुई कि जीवनपर्यन्त घनिष्ठ कॉमरेड बनकर देश में जन सांस्कृतिक आंदोलन-संगठन निर्माण में एक-दूसरे के पूरक सहकर्मी बनकर सक्रिय रहे।    

ऐतिहासिक ’80 के दशक में बिहार (पटना) समेत हिंदी पट्टी के इलाके को अपनी आंदोलनकारी बौद्धिक-सांस्कृतिक सक्रियता की नियमित कर्मभूमि से बनाने के क्रम में वे डा. महेश्वर शरण उपाध्याय के रूप में पटना विश्वविद्यालय अंतर्गत बीएन कॉलेज में बतौर हिंदी प्राध्यापक बहाल हुए। छात्रों को बेहद रोचक अंदाज़ में पढ़ाने के साथ साथ बहुआयामी ज्ञान और अपनेपन भरे सरल-सहृदय व्यवहार के कारण जल्द ही कॉलेज के “चंद अकड़ू व सामंती मिज़ाज वाले माननीय प्रोफेसरों को छोड़” सभी छात्रों और नॉन टीचिंग स्टॉफ तक के बीच आत्मीय प्राध्यापक के रूप में चर्चित हो गए। इतना ही नहीं, विश्वविद्यालय के दूसरे कॉलेजों के भी छात्रों के बीच भी ‘क्रान्तिकारी वामपंथ’ के व्यावहारिक प्रवर्तक, भरोसे के सलाहकार और सबके अन्तरंग मित्र के रूप में काफी लोकप्रिय रहे। 

इसी दौरान “भूमिगत सक्रिय सीपीआई एम्एल पार्टी” एक्टिविस्टों के संपर्क के माध्यम से विधिवत पार्टी सदस्य बने। उन दिनों मध्य बिहार समेत कई इलाकों के गांव, ‘धधकते खेत-खालिहान’ बन गए गए थे। जहाँ सामंती शोषण-उत्पीड़न के विरुद्ध गांवों के गरीब-गुरबों ने क्रांतिकारी वामपंथ के झंडे तले मानो जनयुद्ध सा छेड़ रखा था।  जिसका प्रभाव प्रदेश भर के कई कॉलेजों की भाँति पटना विश्वविद्यालय के प्राध्यापकों-छात्रों पर भी पड़ा था। 

उनकी ऊर्जाशील सक्रियता और बहुप्रतिभाशाली ज्ञान क्षमता का सम्मान करते हुए पार्टी ने उन्हें ‘बौद्धिक-सांस्कृतिक मोर्चा’ की अहम् जिम्मेवारी के साथ साथ जन लोकप्रिय पत्रिका ‘समकालीन जनमत’ के प्रधान सम्पादक की भी जवाबदेही दी। 

गौर तलब है कि उसी ’80 दशक के दौर में बंगाल-बिहार-असम-उत्तर प्रदेश, दक्षिण के राज्यों और पंजाब समेत देश के कई हिस्सों में ‘वसंत वज्रनाद’ की अनुगूँज ने तत्कालीन जनवादी सांस्कृतिक-साहित्यिक धारा पर भी गहरा असर डाला था। 

देश के कई राज्यों के साथ साथ विशेषकर हिंदी पट्टी में राजधानी दिल्ली से लेकर आरा-पटना, इलाहाबाद- बनारस-जौनपुर-लखनऊ-कानपुर और गोरखपुर इत्यादि साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों वाले शहरों के साथ साथ जेएनयू समेत कई विश्वविद्यालयों-कॉलेजों में जन सांस्कृतिक गतिविधियों का अनवरत सिलसिला-सा चल पड़ा था। कई प्रतिभावान युवा लेखक-कलाकार व अन्य संस्कृतिकर्मियों की सक्रिय जमातें सामने आ रही थीं। जनवादी लेखन-साहित्य व संस्कृति की सभी विधाओं में भी कई नए रचनात्मक-शैलीगत बदलाव सामने आने लगे थे। 

इस नए सांस्कृतिक-साहित्यिक परिदृश्य को एक संगठित स्वरूप देने की दिशा में ‘नव जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा’ के गठन उपरांत ‘प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन की तीसरी धारा’ की ज़रूरत को लेकर एक विशेष बहस-मसविदा तैयार किया और देश भर के वाम-प्रगतिशील सांस्कृतिक धारा से जुड़े व्यापक लेखक-कलाकारों के पास विमर्श हेतु भेजा। जिसका बहुत जल्द सकारात्मक परिणाम भी सामने आया और इलाहबाद विश्वविद्यालय के तत्कालीन छात्र संघ के सहयोग से राष्ट्रीय सेमिनार के आयोजन से एक नए वामपंथी सांस्कृतिक संगठन ‘जन संस्कृति मंच’ बनाने का साझा निर्णय लिया गया। जिसके लिए गठित राष्ट्रीय कोर-टीम में महेश्वर और गोरख पाण्डेय की केन्द्रीय भूमिका रही। 

 “जनता से कटे-छंटे” और “बंद कमरों” के बौद्धिक विमर्शों-बतकही मात्र में सीमित हो चले प्रगतिशील-जनवादी साहित्य-सांस्कृतिककर्म को जनता-जन आंदोलनों का अभिन्न हिस्सा बनाने के सृजनशील सांस्कृतिक प्रणेता महेश्वर कि स्पष्ट मान्यता रही कि जनवादी कला-साहित्य का जनता के आंदोलनों के साथ ‘दांता व पेंच’ जैसा अटूट रिश्ता होना चाहिए। 

पटना शहर स्थित गरीब-गुरबों के ‘झुग्गी-झोंपड़ी बचाओ आन्दोलन’ को मजबूती व सांस्कृतिक स्वर देने में निरंतर सक्रिय रहे। प्रसिद्ध जन नाटक ‘मा भूमि’ को प्रेरणा-आधार बनाकर ‘कैसे बनता है इतिहास उर्फ़ ये ज़मीन हमारी है’ नुक्कड़ नाटक तैयार कर सैकड़ों मंचन किये।

कई कई दिनों तक गांवों में हिरावल टीम के साथ सघन सांस्कृतिक दौरे में रहे। फलतः कई-कई बार कॉलेज की डयूटी में अनुपस्थित रहने के कारण उन्हें महीने का पूरा वेतन नहीं मिलने से पूरे परिवार को अक्सर आर्थिक तंगहाली का सामना करना पड़ता था।

इसी दौरान जब 1985 में पटना जिला के मसौढ़ी में ‘नुक्कड़ सांस्कृतिक कार्यक्रम’ अभियान चला रही पूरी ‘हिरावल टीम’ को पुलिस ने गिरफ्तार कर बर्बर पिटाई कर “हत्या का झूठा मुकदमा” थोपकर चार महीने तक पटना सेन्ट्रल जेल के पागलों के सेल में क़ैद रखा। तब इसके खिलाफ बाबा नागार्जुन ने पटना सेन्ट्रल जेल के सामने अनशन-धरना पर बैठकर हिरावल के गिरफ्तार कलाकारों की बिना शर्त रिहाई की मांग उठायी थी।

महेश्वर घोषित और प्रचलित अर्थ में पार्टी के होलटाइमर कैडर नहीं होने के बावजूद अपनी पूरी पार्टी के नेतृत्व-कतारों के बीच सच्चे अर्थों में एक दृढ-प्रतिबद्ध और बेहद सम्मानित कम्युनिस्ट कार्यकर्त्ता रहे।

1981 में ‘बिहार देशभक्त मोर्चा’ और 1982 में चर्चित राष्ट्रीय क्रांतिकारी मोर्चा ‘इंडियन पीपुल्स फ्रंट’ के नेतृत्वकारी दायित्वों को भी बखूबी निभाया। पार्टी के भूमिगत मुखपत्र ‘लोकयुद्ध’ से भी जुड़े रहे।

जन प्रतिरोध के लोकप्रिय जनकवि-गीतकार-संगीतकार होने के साथ साथ आला दर्जे के जनगायक-नाट्यकर्मी-निर्देशक व नाटककार रहे। साथ ही  एक मौलिक सम्पादक-अनुवादक और उच्च स्तर के सक्रिय वामपंथी चिन्तक-अध्येता-विचारक रहे।

महिला मुक्ति के आंदोलनों-सवालों पर भी अपनी सक्रिय बौद्धिक भूमिका में अग्रणी रहे। नारी-मुक्ति के सवालों पर लिखे उनके कई गंभीर लेख जो अपने समय में काफी चर्चित रहे, आज भी उन्हें पढ़कर लोग मार्गदर्शन लेते हैं। 

क्रांतिकारी वामपंथ और मार्क्सवाद-लेनिनवाद के उसूल-आदर्शों और जनता के हितों को सर्वोपरी माननेवले और सदा गतिशील रहनेवाले इस शिल्पी सेनानी को आखिरकार किडनी की असाध्य बिमारी ने इस क़दर अपनी चपेट में लिया कि उच्च इलाज और ‘किडनी ट्रांसप्लांट’ होने के बावजूद वे उबर नहीं सके।

असमय मृत्यु का ख़तरा सर पर मंडरा रहा है ये जानते हुए भी, जब प्रसिद्ध जन फिल्मकार आनंद पटवर्धन के दबाव पर बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने अपनी सरकार द्वारा विदेश में इलाज कराने का प्रस्ताव लेकर अपने उच्च अधिकारी को इनके पास भेजा। तो रोग शय्या पर पड़े महेश्वर ने- मैं जनता का आदमी हूँ, मेरी जनता मुझे बचाने की क्षमता रखती है… टका सा जवाब देकर बैरंग लौटा दिया।

आखिरकार 25 जून 1994 को वे असमय ही इस दुनिया से रुखसत हो गए।

26 दिसम्बर 2024 को उनका 75 वां जन्मदिवस, हमें सदा प्रेरित करता रहेगा कि- जनता के पक्ष में पूरी निर्भीकता के साथ खड़ा होना और वामपंथ के ‘सामाजिक-परिवर्तन’ के संघर्षों का अभिन्न हिस्सा बनाना ही एक वास्तविक वामपंथी बुद्धिजीवी-लेखक-कलाकार-पत्रकार का अहम दायित्व है। जो इसका भी मुखर प्रवक्ता हो कि तानाशाह-जनविरोधी सत्ता-शासन के “अँधेरे के दौर में”और “संशय’भ्रमों” से जूझने के लिए ‘जीवित इंसानों की दुनिया में’ वामपंथ ही एक मात्र विश्वसनीय रास्ता है। जो यह भी सिखाता है कि ‘आदमी को हर हाल में निर्णायक होना चाहिए’!         

(लेखक एक संस्कृतिकर्मी और राजनीतिक कार्यकर्ता हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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