कटाक्ष : ये संविधान-संविधान क्या है?

ये लो कर लो बात। आरएसएस के नंबर टू, होसबोले साहब ने जरा सी संविधान की कटाई-छंटाई की डिमांड क्या कर दी और खेती-किसानी को छोड़कर बाकी सब का पूरा ध्यान रखने वाले कृषि मंत्री, शिवराज बाबू ने जरा सा मुंह खोलकर बागवानी डिपार्टमेंट वाली उनकी डिमांड का समर्थन क्या कर दिया, विरोधियों ने मार तमाम हल्ला मचा दिया। ये तो संविधान को बदलना चाहते हैं। ये तो संविधान के विरोधी हैं। ये अंबेडकर का संविधान बदल देंगे; और भी न जाने क्या-क्या?
लेकिन, यह झूठ है। सफेद झूठ। इन विरोधियों ने ऐसा ही प्रचार चुनाव के टैम पर भी किया था। तब भी इन्होंने संविधान बदले जाने का ऐसा ही डर फैलाया था। तब पब्लिक इनके झांसे में आ भी गयी। कहां मोदी जी चार सौ पार जा रहे थे और कहां ढाई सौ से नीचे ही अटक गए। वह तो भला हो नीतीश, चंद्रबाबू और चिराग बाबू का कि किसी तरह सरकार बनाने का जुगाड़ हो गया। वर्ना संविधान का तो कुछ नहीं बिगड़ता, पर मोदी जी का प्रधानमंत्रित्व वर्तमान से भूतपूर्व हो जाता।
शुक्र है कम से कम फिलहाल ऐसा कोई खतरा नहीं है। देश की सरकार वाला चुनाव जो करीब नहीं है। सच्ची बात यह है कि नीतीश, चंद्रबाबू, चिराग की तिकड़ी सलामत रहे, पब्लिक बहुत नाराज भी हो जाए, तब भी मोदी जी का कुछ उखाड़ नहीं सकती है। जब चार सौ पार का ढाई सौ करके भी पब्लिक कुछ नहीं उखाड़ पायी, तो बिना चुनाव के पब्लिक क्या ही कर सकती है? उल्टे चुनाव आयोग मुस्तैद रहे, राज्यों के चुनावों की ट्राफी जीत-जीत कर मोदी जी, पब्लिक को ही शर्मिंदा करते रहेंगे कि इससे अच्छा तो अगलों को चार सौ पार ही करा देती। कम से कम हर रोज यह तो नहीं सुनना पड़ता कि पब्लिक अब, तब की गलती सुधार रही है!
फिर जैसा हमने शुरू में ही कहा, होसबोले साहब ने संविधान में जरा सी काट-छांट की डिमांड की है। काट-छांट की डिमांड को संविधान बदलने की डिमांड से कन्फ्यूज क्यों किया जा रहा है? क्या सिर्फ इसलिए कि चुनाव के टैम पर मोदी जी की पार्टी के चार सौ से ऊपर उम्मीदवारों में से चार यानी सिर्फ एक फीसद ने इसका एलान किया था कि चार सौ पार जाएंगे, संविधान बदलवाएंगे; संविधान में जरा से फेरबदल की उनकी डिमांड को, संविधान बदलने की कोशिश मान लिया जाएगा? या सिर्फ इसलिए कि जब पचहत्तर साल पहले संविधान बना था, तब होसबोले साहब के संगठन ने और शिवराज सिंह के मातृ संगठन ने, उसे भारतीय संविधान मानने से ही इंकार कर दिया था; तो क्या उस भारत के उस अभारतीय संविधान में हर काट-छांट को, आज उसका तख्ता पलटने की ही कोशिश मान लिया जाएगा? यह तो न्याय नहीं है।
आखिर, काट-छांट, काट-छांट है और बदलना या पलटना, कुछ और ही होता है। अगर संविधान बदलने की ही डिमांड करनी होती तो होसबोले साहब को कौन रोक रहा था? आखिर, उनके पुरखों ने पूरा संविधान बदलने की डिमांड की ही थी और छाती ठोक कर की थी। आंबेडकर के संविधान के खिलाफ जूलूस निकाले थे। आंबेडकर को गालियां दी थीं। नेहरू के संग उनके पुतले जलाए थे। और इतना ही नहीं, मनुस्मृति को भारत का संविधान बनाए जाने की डिमांड भी रखी थी। जो डिमांड पचहत्तर साल पहले कर सकते थे, आज करने से उन्हें कौन रोकने वाला था? उल्टे अब तो उनका राज भी है। उनकी अपनी पार्टी, एक अंक की संख्या वाली पार्टी से बढ़कर, अब ढाई सौ सीटों तक तो अकेले ही पहुंंच चुकी है। फिर थोड़ा-बहुत किंतु-परंतु कर के तिकड़ी भी घुमा-फिराकर संविधान बदलने के लिए भी राजी तो हो ही जानी थी। तब भी, होसबोले साहब ने संविधान में सिर्फ काट-छांट की डिमांड की है। यह संविधान पलटने की नहीं, उसके सुंदरीकरण की डिमांड है। जैसे इमर्जेंसी में संजय गांधी का बुलडोजर, दिल्ली का सुंदरीकरण कर रहा था, वैसे ही संविधान का सुंदरीकरण करने की डिमांड की जा रही है और वह भी बिना बुलडोजर के; सिर्फ पौधों को छांटने वाली बड़ी कैंची के प्रयोग के जरिए।
संविधान से सचमुच प्यार करने वालों को तो होसबोले साहस का शुक्रगुजार होना चाहिए कि बुलडोजर चलाने का मौका था, फिर भी सिर्फ झाड़ की छंटाई वाली कैंची चलाने की डिमांड की है। क्या सचमुच भारतीय संविधान एक बेतरतीब झाड़ ही नहीं हो गया है? क्या उसके नीचे सेकुलरिज्म से लेकर सोशलिज्म तक की जंगली झाडिय़ां नहीं उग आयी हैं? भारत जैसे देश में इन विजातीय चीजोंं का क्या काम? सेकुलरिज्म का क्या काम? सोशलिज्म का क्या काम? इंसान को इंसान मानने वाले, हर इंसान को बराबर मानने वाले, इंसान को सबसे ऊपर मानने वाले, इन परदेसी दर्शनों का क्या काम? इंसान की बराबरी का क्या काम? जब हमारे पास मनुस्मृति है, जो हमें उसके सिवा किसी न्याय, स्वतंत्रता, समता से क्या काम? और बंधुता? वह किस चिडिय़ा का नाम है? ज्यादा न सही, संविधान की उद्देशिका में कम से कम सेकुलरिज्म की जगह हिंदू सर्वोच्चता और समता तथा बंधुत्व की जगह, वर्णव्यवस्था को तो रखा ही जा सकता है। कब तक हम धर्मनिरपेक्षता, समता, बंधुता जैसे विदेशी विचारों को ढोते रहेेंगे और स्वतंत्रता-संप्रभुता को भी? विदेशी गुलामी की इन निशानियों को कब मिटाया जाएगा। हमारी मौलिक देसी गुलामी की निशानियों को कब, संविधान में भी आदर के स्थान पर बैठाया जाएगा?
थैंक यू होसबोले साहब, आपने इस मौके पर अपने बाकी बंधु-बांधवों की तरह यह नहीं दोहराया कि यह तो संविधान ही, गुलामी की सबसे बड़ी निशानी है। लंदन में पढ़े आंबेडकर, नेहरू, गांधी की विदेशी पढ़ाई की निशानी। और मांगा भी तो संविधान की उद्देशिका में से सिर्फ सेकुलरिज्म और सोशलिज्म का सिर, जिन्हें आपके राज ने वास्तविकता में तो पहले ही गायब कर दिया है। वैसे गायब तो संप्रभुता और लोकतंत्रात्मक गणराज्य भी होते जा रहे हैं। जो वास्तविकता है, उसे अब संविधान में बदले जाने की मांग है। उद्देशिका से शुरूआत हो गयी है; आएगा धीरे-धीरे पूरे संविधान का ही नंबर आएगा। संविधान-संविधान क्या है,मनुस्मृति का ही नंबर आएगा। बस एक बार चार सौ पार हो जाने दो।
(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लोक लहर के संपादक हैं।)
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