कटाक्ष: थैंक यू तालिबान जी

थैंक यू तालिबान जी। बहुत-बहुत शुक्रिया। आपने एकदम मौके पर काबुल की गद्दी संभाली है। अफगानिस्तान की तो हम नहीं कहते, पर यहां नये इंडिया में ईज ऑफ डुइंग बिजनस से लेकर ईज ऑफ लिविंग तक सब इतना बढ़ गया है कि पूछिए ही मत। अब न कोई पेट्रोल-डीजल-रसोई गैस के बढ़ते दाम को रोने वाला है, न सरसों के तेल के बढ़ते दाम को। न कोई महंगे राशन की कांय-कांय कर रहा है, न महंगे फल-तरकारी की। सब समझ गए हैं कि जब तक सब कुछ महंगा-महंगा है, तभी तक बाकी सब चंगा है। वर्ना महंगाई हटी कि अफगानिस्तान वाली दुर्घटना घटी। देखा नहीं, वहां तेल, राशन, सब सस्ता था, सो तालिबान आ गए कि नहीं। सिंपल है--सस्ता तेल चाहिए, अफगानिस्तान चला जा! मोदी जी नये इंडिया में पब्लिक के लिए हर चीज में च्वाइस है। बेकारी और तालिबान में से कोई एक चुन लो।
चुनावी तानाशाही और तालिबान में से कोई एक चुन लो। बहुसंख्यकवाद और तालिबान में से, कोरोना के टीके और तालिबान में से, महंगाई और तालिबान में से, कोई एक चुन लो। फिर भी महंगाई वगैरह की हाय-हाय मचाना चुनने वालों के लिए भी दो ऑप्शन हैं। या तो अफगानिस्तान चले जाओ या फिर यूएपीए, सिडीशन वगैरह-वगैरह में नये इंडिया में जेल जाओ, जैसे यूपी से असम तक परंपरागत मीडिया तो मीडिया, सोशल मीडिया तक में तालिबान का नाम लेने वालों के ठट्ठ के ठट्ठ भेजे जा रहे हैं।
और यूपी में अभी तो शुरूआत है। आगे-आगे देखिए, तालिबान-हमदर्द के नाम पर जेल जाता है, कौन-कौन? यूपी में योगी जी को चुनाव भी तो जिताना है। मंदिर-वंदिर खास चल नहीं रहे, फिर लव जेहाद से लेकर पॉपूलेशन पॉलिसी तक के इशारों की तो बात ही क्या है। मीडिया में पहले वाली बात नहीं रही, न आइटी सैल के झूठ में, न टीवी वाली पेड न्यूज में। ऊपर से किसानों का मिशन यूपी-उत्तराखंड और। तालिबान जी की एंट्री की इससे अच्छी टाइमिंग हो नहीं सकती थी। सच पूछिए तो योगी जी की तरफ से तो स्पेशल थैंक यू बनता है! प्रचार युद्ध के लिए, वह चाहे चुनाव के लिए हो या शांतिकाल के लिए, प्रिय शत्रु से ज्यादा प्रिय कोई नहीं होता है। पर, सीधे थैंक यू नहीं कह सकते। पर तालिबान जी की काबुल में एंट्री की टाइमिंग के लिए, ऑफीशियली अमरीका का तो थैंक यू कर ही सकते हैं। न अमरीकी, अफगानिस्तान से हटने के अपने शेड्यूल पर कायम रहते और न तालिबान जी इसी टैम पर काबुल की गद्दी पर पहुंचते। फिर योगी जी किस पर तलवार चलाने का स्वांग रचकर, सांसद बर्क से लेकर शायर राणा तक पर मुकद्दमे करते। अफगानिस्तान में तालिबान तो पहले भी थे, तब तो तालिबान-हमदर्द होने के शक में किसी पर मुकद्दमा नहीं किया, खुद योगी जी ने भी नहीं। टाइमिंग असली चीज है। उधर, योगी जी के पंचायती राज मंत्री ने किसानों की हरी टोपी का तो तालिबानी बताए जाने के लिए नंबर भी लगा दिया है। पहले पढ़ा-लिखा मुसलमान, फिर किसान; तालिबानी कहलाने के लिए अगला नंबर किस का होगा।
वैसे तालिबान जी के आने से, योगी जी समेत जी लोगों के चुनाव के बिजनस की डुइंग में ही ईज नहीं आयी है। पूरी भगवा पलटन के ईज ऑफ डुइंग पालिटिक्स में भी भारी विकास हुआ है। अब नये इंडिया में जिसने भी ज्यादा चूं-चपड़ की, उसे भेजने के लिए एक नया ठिकाना खुल गया है--अफगानिस्तान। मोदी जी के राज के सात साल में बेचारे विरोधियों/आलोचकों/ आंदोलनजीवियों को पाकिस्तान भेज-भेजकर बोर हो गए थे। लोगों ने भी मजाक बनाना शुरू कर दिया था कि भगवाइयों को पाकिस्तान से खास प्यार है--जिसे देखो, उसे पाकिस्तान भेजते रहते हैं! ऐसा भी नहीं है कि भगवाइयों ने अपने ‘भारत छुड़ाओ’ मिशन में वैराइटी लाने की कोशिश ही नहीं की। बांग्लादेश, चीन वगैरह को भी ट्राई किया, पर बात नहीं बनी। लेकिन, अब और नहीं। सिर्फ पाकिस्तान ही पाकिस्तान और नहीं। अब भेजने के लिए अफगानिस्तान भी है। यानी अब भारत छुड़ाओ मिशन के ठिकानों में भी सिर्फ नाम को ही नहीं, सचमुच वैराइटी है। विरोधी/आलोचक/ आंदोलनजीवियों को भी च्वाइस मिलेगी--पाकिस्तान जाना है या अफगानिस्तान। इसके लिए मोदी जी का एक थैंक यू तो बनता है। पर विरोधी/आलोचक, मोदी जी को थैंक यू कहेंगे, हमें नहीं लगता है। खैर! आलोचक मानें न मानें, मोदी जी उनके लिए भी नयी-नयी च्वाइसें पैदा करते रहेंगे। मोदी जी दिल से हैं ही इतने डेमोक्रेटिक । वह तो दिल से अभी तक प्रज्ञा ठाकुर को माफ तक नहीं कर पाए हैं। तभी तो बेचारी पिछले मंत्रिमंडल विस्तार के बाद भी कोरी एमपी की एमपी ही बनी रही हैं, जबकि मोदी जी जानते थे कि गृह मंत्रालय में कम से कम आतंकवाद से लडऩे के लिए, उनके अनुभव तथा विशेषज्ञता का बखूबी इस्तेमाल हो सकता है।
तालिबान के आने से, भगवा पलटन का ईज ऑफ डुइंग बिजनस इसलिए भी बढ़ गया है कि तालिबान ने अपनी बड़ी रेखा खींचकर, उनके बिना कुछ किए ही उनकी रेखा छोटी कर दी है। अब हमारे देसी तालिबान अपनी भीड़ लिंचिंग को भी दयालुतापूर्ण सिद्ध कर सकते हैं। हमारी देसी भीड़ लिंचिंग में हाथों-लातों और ज्यादा से ज्यादा डंडों-पत्थरों के उपयोग में जो पर्सनल टच है, जो सामूहिकता तथा एकता की भावना है, एके-47 धारी अफगानी तालिबानों की निर्मम भीड़ लिंचिंग में कहां? और औरतों के मामले में तो हमारे देसी तालिबान की उदारता के कहने ही क्या? जीवित-दाह कर देना या पर्दे की संस्कृति की रखवाली करने के लिए तेजाब-वेजाब डाल देना तो फिर भी चल जाता है, पर हमारे यहां पत्थरों से मार-मार कर मारने की हर्गिज इजाजत नहीं है। बाकी जीवित-दाह की भी इजाजत अपवाद स्वरूप ही दी जाती है, जैसे औरत दलित-वलित हो तभी। वर्ना देसी तालिबान, चार-छ: डंडे लगाने या बहुत हुआ तो नंगा कर के घुमाने से आगे नहीं जाते हैं। सेकुलरिज्म का तो खैर देसी तालिबान पूरा ही पालन करते हैं। मस्जिद-वस्जिद पर कब्जा करते भी हैं तो, दूसरी जगह मस्जिद बनाने के लिए जमीन दे भी जाए तो उसका विरोध तक नहीं करते हैं। और डैमोक्रेसी में तो हमारे देसी तालिबान का इतना विश्वास है कि पूछो ही मत। विरोधियों को डराना हो, जबर्दस्ती सरकार बनाना हो, सारी संस्थाओं को ढहाना हो, संसद को बेकार बनाना हो, सब काम पूरे कायदे-कानून से सरकार के बल पर करते हैं, अफगानिस्तान वालों की तरह बंदूक के बल पर नहीं। सो थैंक यू तालिबान जी, हमारे देसी तालिबान को तालिबान-लाइट कहलवाने के लिए।
इस व्यंग्य आलेख के लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लोक लहर के संपादक हैं।
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