मज़दूरों और किसानों के साथी प्रेमचंद

1936 बड़ा महत्वपूर्ण वर्ष है। ' प्रगतिशील लेखक संघ' की स्थापना के साथ-साथ इसी साल दुनिया के तीन बड़े लेखकों की मृत्यु हो जाती है। भारत के प्रेमचंद , चीन के लुशुन और सोवियत रूस के मैक्सिम गोर्की । इन तीनों देशों को मिला दिया जाए तो आधी मानवता पूरी हो जाती है। जब मैक्सिम गोर्की की मृत्यु हुई तो उस समय प्रेमचंद की तबीयत अच्छी नहीं थी। इसका जिक्र उनकी पत्नी शिवरानी देवी ने अपनी पुस्तक ‘ प्रेमचंद घर में’ में किया है। जब प्रेमचंद ने गोर्की की मौत की बात सुनी तो उनकी श्रद्धाजंलि सभा में जाने के लिए बचैन हो गए। शिवरानी देवी ने कहा एक तो आपकी स्थिति ठीक नहीं है और दूसरे वो तो एक विदेशी लेखक हैं , भारतीय नहीं । प्रेमचंद ने कहा कि मैक्सिम गोर्की जैसा लेखक देश की सीमा से बड़ा होता है। वैसे भी प्रेमचंद को रूसी साहित्य से काफी लगाव था । फ्रांसीसी कथाकारों में वह बाल्ज़ाक और मोपासाँ को बहुत ऊँचे दर्जे का कलाकार मानते थे। वैसे बाल्जाक कार्ल मार्क्स के भी सबसे प्रिय लेखक थे। मैक्सिम गोर्की के अलावा रूसी भाषा में तोल्स्तोय की कहानियाँ उन्हें विशेष प्रिय थीं।
सोवियत संघ के प्रति विशेष लगाव था प्रेमचंद को।
1936 के हंस में अपने जीवन-काल में निकलनेवाले 'हंस' के आख़िरी अंक में प्रेमचंद का 'महाजनी सभ्यता' नाम का लेख छपा है। महाजनी सभ्यता में मनुष्यता को व्यापार और मुनाफे की वेदी पर किस तरह कुर्बान किया जाता है इसका विश्लेषण करने के बाद प्रेमचंद ने पूँजीवाद की जड़ खोदने वाले सोवियत रूस की नई सभ्यता के बारे में लिखा था- " परंतु अब एक सभ्यता का सूर्य सुदूर पश्चिम से उदय हो रहा है, जिसने इस नारकीय महाजनवाद या पूँजीवाद की जड़ खोदकर फेंक दी है”।
सोवियत संघ के प्रति आकर्षण उन्हें 1917 में हुई क्रांति के एक दो वर्ष पश्चात ही हो चुका था। 1919 में प्रकाशित 'जमाना' पत्रिका में उन्होंने रूसी क्रांति की चर्चा की थी: "इंकलाब के पहले कौन जानता था कि रूस की पीड़ित जनता में इतनी ताकत छिपी हुई है?"
सोवियत संघ से जो नई लहर उठी थी उसके विरुद्ध तब यह दुष्प्रचार चलाया जाता था कि वहां व्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है, धार्मिक व अंतरात्मा की आजादी नहीं है। इस दुष्प्रचार का जवाब देते हुए प्रेमचंद कहते हैं " महाजन इस नई लहर से अति उद्विग्न होकर बौखलाया हुआ फिर रहा है और सारी दुनिया के महाजनों की शामिल आवाज़ इस नई सभ्यता को कोस रही है, इसे शाप दे रही है। व्यक्ति स्वातंत्र्य, धर्म-विश्वास की स्वाधीनता और अंतरात्मा के आदेश पर चलने की आज़ादी, वह इन सबकी घातक, गला घोंट देनेवाली बताई जा रही है। उस पर नए-नए लांछन लगाए जा रहे हैं, नई-नई हुरमतें तराशी जा रही हैं। वह काले-से-काले रंग में रँगी जा रही है, कुत्सित-से-कुत्सित रूप में चित्रित की जा रही है। उन सभी साधनों से, जो पैसेवालों के लिए सुलभ हैं, काम लेकर उसके विरुद्ध प्रचार किया जा रहा है; पर सचाई है, जो इस सारे अंधकार को चीरकर दनिया में अपनी ज्योति का उजाला फैला रही है। "
समाजवादी सोवियत संघ के बारे में तब फासिस्ट हिटलर द्वारा निरंतर दुष्प्रचार और कुत्सा अभियान चलाया जा रहा था। तब सोवियत संघ का पक्ष लेते हुए प्रेमचंद ने साम्राज्यवादी प्रचारकों को चुनौती दी "निःसंदेह इस नई सभ्यता ने व्यक्ति स्वातंत्र्य के पंजे, नाखून और दाँत तोड़ दिए हैं। उसके राज्य में अब एक पूँजीपति लाखों मज़दूरों का खून पीकर मोटा नहीं हो सकता। उसे अब यह आजादी नहीं है कि अपने नफ़े के लिए साधारण आवश्यकता की वस्तुओं के दाम चढ़ा सके, दूसरे अपने माल की खपत कराने के लिए युद्ध करा दे, गोला-बारूद और युद्ध सामग्री बनाकर दुर्बल राष्ट्रों का दलन कराए।"
प्रेमचंद ने अपने लेख में इस तथ्य को अच्छी तरह ज़ाहिर दिखलाया कि इस लूट-मार की आज़ादी के बदले सोवियत रूस में जनता को खुशहाल और सुसंस्कृत ज़िंदगी बसर करने की सच्ची आज़ादी है ।
सोवियत रूस के प्रति लगाव का एक बड़ा कारण वहां के लोगों में पुस्तकों रुचि भी थी। 'सोवियत रूस में प्रकाशन’ लेख में प्रेमचंद ने 1927 तक के आँकड़े देते हुए लिखा था- "रूस की जनसंख्या 12 करोड़ के लगभग है। इस जनसंख्या के लिए लगभग 8 करोड पुस्तकें प्रकाशित हुई ।" फिर हिंदुस्तान से उसकी तुलना की और लिखा "यहाँ 1930 में अंग्रेजी में 2,332 पुस्तकें, और हिंदुस्तानी भाषाओं में 14,815 पुस्तकें निकलीं। कहाँ 8 करोड़ और कहां 15 हजार!" प्रेमचंद ने इस स्थिति के लिए गरीबों को दोषी नहीं ठहराया क्योंकि यहाँ साहित्य से थोड़ा-बहुत जो प्रेम है वह उन्हीं को है जो अभाव से पीड़ित हैं? उन्हें क्रोध आया है संपत्तिशाली लोगों की विरक्ति पर। पैंतीस करोड़ हिंदुस्तानियों के लिए मात्र 15 हजार किताबें !
प्रेमचंद के रचनात्मक जीवन में टर्निंग प्वांयट, महत्वपूर्ण मोड़ क्या है? वो है 1917 का साल। इसी वर्ष उनकी पहली कहानी ' उपदेश'’ आती है जिसमें राष्ट्रीय सवाल आते हैं। 1917 महात्मा गॉंधी के चंपारण सत्याग्रह का साल था, साथ ही साथ अन्तराष्ट्रीय स्तर पर लेनिन के नेतृत्व वाला बोल्शेविक क्रांति का भी साल था। इन दोनों घटनाओं का प्रेमचंद के लेखन पर ये निर्णायक प्रभाव बना रहता है। प्रेमचंद धीरे-धीरे गांधीवाद से मार्क्सवाद की ओर बढ़ रहे थे। प्रेमचंद पहले खुद को महात्मा गांधी का 'कुदरती चेला' कहा करते थे। लेकिन बाद में अपनी पत्नी शिवरानी देवी से यहां तक कहा ‘‘ मुझे तो लगता है कि भारत की मुक्ति का रास्ता वही है जो बोल्शेविकों का रास्ता है, लेनिन का रास्ता है।’’
'प्रेमचंद घर में' पुस्तक में शिवरानी देवी जी ने प्रेमचंद को उद्धृत करते हुए कहा है कि हर जगह शहज़ोर कमज़ोर को चूसते हैं, "हाँ, रूस है, जहाँ पर कि बड़ों को मार-मारकर दुरुस्त कर दिया गया, अब वहाँ गरीबों का आनंद है। शायद यहाँ भी कुछ दिनों के बाद रूस जैसा ही हो।" जब शिवरानी देवी ने पूछा कि क्रांति हुई तो वे किसका साथ देंगे, तब प्रेमचंद ने उत्तर दिया, "मज़दूरों और काश्तकारों का। मैं पहले ही सबसे कह दूँगा कि मैं तो मज़दूर हूँ। तुम फावड़ा चलाते हो, मैं कलम चलाता हूँ। हम दोनों बराबर हैं।"
'महाजनी सभ्यता' वाले लेख में सोवियत संघ और मार्क्सवाद का प्रभाव परिलक्षित होता है। अब प्रेमचंद ' वर्ग' की श्रेणी को यानी यानी दुनिया के मनुष्य-समाज को दो हिस्सों में बंटे हुए देखने के आदी होने लगे थे -" बड़ा हिस्सा तो मरने और खपनेवालों का है, और बहुत ही छोटा हिस्सा उन लोगों का, जो अपनी शक्ति और प्रभाव से बड़े समुदाय को अपने बस में किए हुए हैं। उन्हें इस बड़े भाग के साथ किसी तरह की हमदर्दी नहीं, ज़रा भी रू-रियायत नहीं । उसका अस्तित्व केवल इसलिए है कि अपने मालिकों के लिए पसीना बहाए, खून गिराए और एक दिन चुपचाप इस दुनिया से विदा हो जाए ।"
जिस सोवियत संघ के प्रति प्रेमचंद को इतनी श्रद्धा थी उनके निधन के बाद भारत के बाहर सबसे पहले सोवियत लेखकों ने ही अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर उनका महत्व पहचाना। सोवियत लेखकों ने पहचाना कि कृषि प्रधान भारत देश के प्रतिनिधि रचनाकार हैं प्रेमचंद। 1926 में ही बरान्निकोव ने उनकी 'सौत' कहानी का अनुवाद उक्रेनी भाषा में किया था। तब से उनकी रचनाओं के अनुवाद वहाँ बराबर प्रकाशित होते रहे, उन पर आलोचनात्मक पुस्तकें प्रकाशित हुई।
'गोदान' के रूसी अनुवाद की भूमिका में श्री ई. कोंपात्सेव ने भारतीय स्वाधीनता आंदोलन की चर्चा करने के बाद लिखा है-"यह थी वह परिस्थिति जिसमें आधुनिक हिंदी-उर्दू साहित्य के निर्माता, भारत के महान् लेखक, शब्दों के अनुपम जौहरी प्रेमचंद की ज्वलंत मौलिक प्रतिभा असाधारण शक्ति से विकसित हुई।" विश्व साहित्य में प्रेमचंद के योगदान को रेखांकित करते हुए उन्होंने यह भी जोड़ा "विश्वविद्यालय में शिक्षा न पा सकने के बावजूद वह अपने समय के अत्यंत सुपठित व्यक्तियों में थे। वह विश्व-साहित्य से भलीभांति परिचित थे और उसके विकास में उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया।" एक अन्य रूसी आलोचक के अनुसार "प्रेमचंद की कृतियों से हिंदुस्तान के बारे में जो जानकारी मिलती है उसके महत्त्व को जितना भी बढ़ाकर कहा जाए थोड़ा है। भारतीय साहित्य में किसानों की सही जिंदगी की जीती-जागती और बोलती हुई तस्वीरें देनेवाले वे पहले लेखक हैं।"
प्रेमचंद साहित्य में किसान
प्रेमचंद अपने युग के प्रतिनिधि बन सके उसकी मुख्य वजह यही थी कि उन्होंने किसानों को अपने साहित्य का मुख्य विषय बनाया। प्रेमचंद के साहित्य में हिंदुस्तान का किसानी जीवन मुख्य रूप से चित्रित होकर आया है। प्रेमचंद के तीन प्रमुख उपन्यास 'प्रेमाश्रम' और 'कर्मभूमि' के साथ 'गोदान' हिदुस्तानी किसानों के वृहत्रयी का निर्माण करते हैं जिनके बगैर किसानों का जीवन ठीक से नहीं समझा जा सकता। प्रेमचंद और उनका युग’ रामविलास शर्मा कहते हैं " हिंदुस्तान की बहुसंख्यक जनता किसानी करती है। इस जनता को छोड़कर औरों के बारे में लिखने से उपन्यासकार अपने देश और युग का प्रतिनिधि कैसे होता ? इसलिए उन्होंने किसानों के बारे में लिखा।"
रामविलास शर्मा आगे कहते हैं “ प्रेमचंद हमें ठेठ किसानों के बीच ले जाते हैं। प्रेमचंद किसानों की प्राचीन परंपरा दिखाते तो यह भी कि कहाँ उनकी कड़ियाँ टूट रही हैं। प्रेमचंद की कला इस बात में है कि वे हिंदुस्तान के बदले हुए किसान का चित्र खींच सके हैं। घटनाएँ साधारण हैं लेकिन उनसे वह अपने पात्रों का पुरानापन और नयापन, उनको पीछे ठेलनेवाली और आगे बढ़ानेवाली विशेषताएँ प्रकट करते हैं।“
लेकिन प्रेमचंद ने किसानों को सिर्फ रोमांटीसाइज ही नहीं क्या उनकी कमजोरियों पर भी उंगली रखी। जैसा कि रामविलास शर्मा बताते हैं " प्रेमचंद के किसान देवता नहीं हैं; वे मनुष्य हैं। उनमें कमजोरियाँ हैं; वे उनसे लड़ते हैं। कभी जीतते हैं, कभी हारते हैं।" साथ ही यह भी ही जोड़ते हैं " किसानों में भी अंधविश्वास है, राग-द्वेष है, एक-दूसरे के खेत तक जला देते हैं, फिर भी इनमें मनुष्यता का प्रकाश कितना प्रखर है । प्रेमचंद इस जनता में विश्वास करना और उसके लिए अपना जीवन बिताना हमें सिखाते हैं। उनका कहानी-साहित्य हमारे जातीय जीवन का दर्पण है । हिंदी-भाषी जनता के उत्कृष्ट गुण उनके पात्रों में झलकते हैं। उनके अधिकांश पात्र हास्य-प्रेमी, जिंदादिल, कठिन परिस्थितियों का धीरज से मुकाबला करनेवाले, अन्याय के सामने सिर न झुकानेवाले होते हैं। प्रेमचंद ने ये सब बातें जनता में देखी थीं, इसलिए कहानियों में उन्हें चित्रित कर सके थे ।"
प्रेमचंद ने किसानों का सवाल इस कारण उठाया कि भारत के स्वाधीनता आंदोलन की रीढ़ किसान आंदोलन को मानते थे। गांधी जी मानते थे कि हमलोगों को अंग्रेज़ों के खिलाफ एकजुट होना चाहिए। प्रेमचंद ये सवाल उठाते हैं कि ठीक है हमें अंग्रेज़ों के उपनिवेशवाद के विरूद्ध लड़ना है, वो बहुत खराब है लेकिन इसे टिकाए हुए कौन है? उसकी स्वदेशी जड़ें कौन लोग हैं ? प्रेमचंद इस निर्णय पर पहुंचते हैं कि वह थे जमींदार, सामंत। किसानों का निर्मम शोषण ये जमींदार किया करते हैं। इन्हीं वजहों से प्रेमचंद ने किसानों के परिप्रेक्ष्य से सवालों को उठाना शुरू किया। प्रेमचंद से पूर्व किसी साहित्यकार ने किसानों के नजरिए से समझने की कोशिश नहीं की थी। इस अर्थ में देखें तो प्रेमचंद इकहरे अर्थों में साम्राज्यवादी नहीं थे की सिर्फ अंग्रेज़ों का तो विरोध करते रहे लेकिन उसके भारतीय दोस्तों पर चुप्पी साधे रहें।
प्रेमचंद, सहजानंद और उपनिवेशवाद का स्वदेशी आधार
जो बात साहित्य में प्रेमचंद उठा रहे थे उस सवाल को भारतीय राजनीति में प्रख्यात स्वाधीनता सेनानी व क्रांतिकारी किसान नेता स्वामी सहजानंद सरस्वती लगभग उसी समय उठा रहे थे, जिनकी प्रधान कर्मभूमि बिहार थी। स्वामी सहजानंद सरस्वती कह रहे थे कि अंग्रेज़ों के उपनिवेशवाद को खत्म करना है तो उनके सामाजिक आधार, जमींदारों, पर चोट करिए। ये जमींदार ही उपनिवेशवाद की स्थानीय सहयोगी हैं। प्रेमचंद के दृष्टिकोण को राजनीति में सबसे पहले उठाने वाले सहजानन्द थे। प्रेमचंद की तरह सहजानन्द भी पहले गांधी के प्रभाव में थे और गांधी से मोहभंग का काल भी दोनों का लगभग एक सा है यानी तीस के दशक के प्रारंभिक वर्ष।
1936 में ही ‘ प्रगतिशील लेखक संघ ’ के साथ साथ 'अखिल भारतीय किसान सभा' का गठन किया गया और सहजानन्द सरस्वती इसके पहले राष्ट्रीय अध्यक्ष निर्वाचित हुए। किसान सभा के गठन के पूर्व प्रेमचंद ने किसान सभा की जरूरत को रेखांकित किया। किसान सभा बनी भले 1936 में लेकिन उसकी जरूरत को प्रेमचंद ने 1919 में ही रेखांकित कर दिया था। उन्होंने फरवरी 1919 के 'ज़माना' में लिखा था, "आनेवाला जमाना अब किसानों और मजदूरों का है। दुनिया की रफ्तार इसका साफ सबूत दे रही है।" किसान संगठन की आवश्यकता पर उन्होंने इसी लेख में कहा था, "क्या यह शर्म की बात नहीं कि जिस देश में नब्बे फीसदी आबादी किसानों की हो उस देश में कोई किसान सभा, कोई किसानों की भलाई का आंदोलन, कोई खेती का विद्यालय, किसानों की भलाई का कोई व्यवस्थित प्रयत्न न हो।”
प्रेमचंद की तरह स्वामी सहजानन्द भी सोवियत संघ के महान मित्र थे। किसानों को कोई भी सभा सोवियत रूस की व्यवस्था की प्रशंसा के बिना कभी समाप्त ही नहीं होती थी। बिहार में स्वामी जी की अपने गांव, मंझियावां में हुई सभा के बारे में किसान नेता त्रिवेणी शर्मा 'सुधाकर' के संबंध में लिखा है " स्वामी जी से ही मैंने 1939 में अपने गांव मझियाबों में एक सभा में सुना था- 'दुनिया में एक ऐसा देश है, जहाँ जमींदार नहीं है पूजीपति नहीं है। कमाने वालों का राज है। उनकी कमाई का कोई शोषण नहीं करता। वह देश है सोवियत रूस।"
त्रिवेणी शर्मा सुधाकर आगे बताते हैं " 22 जून 1941 को हिटलर ने सोवियत रूस पर हमला किया। सोवियत पर आक्रमण होने का समाचार पाते ही स्वामी सहजानन्द के दिल पर भारी धक्का लगा । किसान और शोषित पीड़ित जनता के हित की दृष्टि से देखने वाले सहजानंद सरस्वती को यह समझने में देर नहीं हुई कि अब युद्ध का स्वरूप बदल गया है फासिज्म और नाजीवाद की विजय किसानों और मजदूरों के लिए बड़ा नुकसान देह होगा। "
'साहित्य का उद्देश्य' भाषण में प्रेमचंद ने साहित्य को देशभक्ति व राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं अपितु आगे चलने वाली मशाल बताया था। लाहौर के 'आर्य भाषा सम्मेलन' में दिए गए वक्तव्य में कहा - "साहित्य राजनीति के पीछे चलने वाली चीज़ नहीं, उसके आगे-आगे चलने वाला 'एडवांस गार्ड' है।"
इस अर्थ में प्रेमचंद भारत में किसान राजनीति के आगे चले वाली मशाल उसके ' एडवांस गार्ड' थे
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
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