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धर्म की सियासत: नाम से पहचान के ज़रिये विभाजन और आर्थिक बहिष्कार की साज़िश

यह मुद्दा बेहद गंभीर है, क्योंकि इस आदेश ने एक झटके में बहुत से मुसलमानों को बेरोज़गार कर दिया है।
kanwar
तस्वीर प्रतीकात्मक प्रयोग के लिए

कुछ चालाक लोग बड़े ‘भोलेपन’ से कह रहे हैं कि दुकानों पर नाम लिखने में क्या बुराई है…इससे कांवड़िये ख़ुद डिसाइड करेंगे कि कहां खाना खाना है, कहां नहीं। किसका सामान लेना है, किसका नहीं…।

लेकिन वे ये नहीं बताते कि इसका असल मक़सद श्रद्धालुओं या कांवड़ियों की सुविधा या आस्था से नहीं है, बल्कि हिंदू-मुस्लिम की विभाजनकारी राजनीति के साथ मुसलमानों के आर्थिक बहिष्कार से है।

इसलिए इस मुद्दे को हल्के में लेने की ज़रूरत नहीं है। यूपी-उत्तराखंड में यह आदेश आते ही कि कांवड़ मार्ग पर सभी दुकानदार, होटल-रेस्टोरेंट यहां तक कि ठेले-रेहड़ी वाले भी अपनी दुकान/ठेले के आगे अपना और अपने कर्मचारियों का नाम मोटे-मोटे अक्षरों में लिखेंगे। ऐसी ख़बरें तेज़ी से आने लगी हैं कि कांवड़ मार्ग पर मुसलमानों के तमाम होटल-रेस्टोरेंट बंद होने लगे हैं। इतना ही नहीं हिंदू मालिकों ने नुकसान के डर से मुस्लिम कारीगर और अन्य कर्मचारियों की छुट्टी कर दी है। यानी उन्हें काम से निकाल दिया है।

यानी इस एक आदेश ने देश के कई हिस्सों में मुसलमानों को एक झटके में बड़े पैमाने पर बेरोज़गार कर दिया है। क्योंकि अब ख़बरें आ रही हैं कि यह आदेश यूपी-उत्तराखंड तक ही सीमित नहीं रहा। जयपुर, उज्जैन समेत देश के कई हिस्सों से सरकारों, या लोकल बॉडी या पुलिस-प्रशासन द्वारा इसी तरह के आदेश दिए जा रहे हैं। क्योंकि सब को हिंदुओं का बड़ा वाला हितैषी दिखना है। हालांकि बीजेपी के सहयोगियों में बेचैनी है और वे इस निर्णय से असहज दिख रहे हैं और विपक्ष ने भी तीखी आलोचना की है। लेकिन इन लोगों की तरफ़ से भी जिस तरह का विरोध होना चाहिए था, वैसा दिखाई नहीं दे रहा।

आपको मालूम है कि इस तरह मुसलमानों के आर्थिक बहिष्कार की कोशिशें या साज़िशें लंबे समय से चल रही हैं। कभी कोई अफवाह उड़ा दी जाती है कि फ़लां मुसलमान ने खाने में थूक दिया है या फ़ला मुसलमान अपने थूक से फलों को साफ़ कर रहा था। कभी कोई और आरोप लगाकर हिंदुत्ववादियों द्वारा मुसलमानों से सामान न ख़रीदने की अपील जारी की जाती हैं।

इसी के साथ मुसलमानों के सामाजिक बहिष्कार की कोशिशें तो और भी पहले से चल रही हैं। कभी आबादी बढ़ने के नाम पर, कभी धर्म परिवर्तन कराने के नाम पर, कभी लव जेहाद के नाम पर। और उत्तराखंड में तो लैंड जेहाद तक का दावा करके मुस्लिमों को निशाने पर लिया गया।

और अफ़सोस…यह किसी एक संगठन, या फ्रिंज़ एलिमेंट के आह्वान पर नहीं हुआ, बल्कि कई बार बाक़ायदा सरकार के स्तर पर इस तरह की बातें फैलाई जाती हैं और कार्रवाई की जाती है।

जहां इस मामले में खाने पीने या किसी अन्य उत्पाद के बारे में हर उपभोक्ता के जानने का हक़ के बारे में तर्क दिया जा रहा है तो उन्हें मालूम होना चाहिए कि उत्पाद में क्या-क्या है, यानी उसके अवयव (ingredient) क्या हैं, वह किन किन चीज़ों से बना है यह जानने का हक़ सबको है। वेज है, नॉनवेज है यह जानने का भी हक़ है, लेकिन यह जानने का हक़ नहीं कि उसे किस धर्म-मज़हब या जात वाले ने बनाया है।

एक तर्क हलाल और झटका को लेकर दिया जा रहा है कि जब मुसलमान उसका सर्टिफिकेट देखकर सामान ख़ासकर गोश्त खरीदते हैं तो फिर हिंदू श्रद्धालुओं की आस्था का सम्मान क्यों नहीं किया जाए। बिल्कुल किया जाए…लेकिन हलाल और झटका एक प्रक्रिया है…प्रोसेस है। आपको प्रोसेस भी जानने का हक़ होना चाहिए लेकिन मांस व्यापारी हिंदू है या मुस्लिम ये तो कोई नहीं पूछता।

यही वजह है कि दुकानों पर हिंदू-मुसलमान नेम प्लेट की सोच बिल्कुल नॉनसेंस है…बिल्कुल सांप्रदायिक…जातिवादी–नस्लवादी। और सबसे ज़्यादा संविधान विरोधी।

संविधान विरोधी इसलिए क्योंकि हमारे संविधान की प्रस्तावना में ही ‘हम भारत के लोग’ लिखा है…न कि हिंदू या मुसलमान। साथ ही मूल अधिकारों के तहत सभी को समता का अधिकार दिया गया है।

संविधान के अनुच्छेद 14 से 18 में समता के अधिकार के तहत साफ़ उल्लेख है कि– “राज्य, धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर किसी व्यक्ति को भारत के राज्यक्षेत्र में कानून के समक्ष समानता या कानूनों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।

राज्य किसी भी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा।”

इसलिए नाम और पहचान उजागर करने का यह आदेश संविधान के विरुद्ध है।

कोई तर्क दे सकता है कि नाम लिखने का आदेश है…धर्म लिखने का नहीं…लेकिन इसी नाम के ज़रिये धर्म की पहचान की जा रही है। इसका उद्देश्य ही यही है नाम और पहचान उजागर करना।

और अकेले दुकानदार का नाम लिखने से काम नहीं चल रहा। बल्कि दुकान कौन चला रहा है यानी संचालक के साथ उस दुकान का वास्तविक मालिक कौन है। कारीगर कौन है, हेल्पर कौन हैं…उन सबका नाम लिखना होगा।

अभी एक जगह पढ़ा कि एक दुकानदार का नाम बाबू था तो उससे कहा गया कि सिर्फ़ बाबू लिखने से काम नहीं चलेगा। क्योंकि बाबू लाल भी होता है और बाबू ख़ान भी। अब ‘बेचारे’ कांवड़ियों ने बाबू के धोखे में मुसलमान की दुकान पर खाना खा लिया या ठेले से फल खरीद लिए तो उनके धर्म का क्या होगा!

ये बिल्कुल वही हिटलरवाद, नाज़ीवाद है जिसने जर्मनी को बर्बाद कर दिया था। जिसमें यहूदियों के घरों पर निशान लगा दिए जाते थे।

वैसे क्या योगी जी, धामी जी हिंदू दुकानदारों के लिए भी फ़रमान जारी करेंगे कि हर होटल-रेस्टोरेंट वाला यह भी लिखेगा कि वह रोटी बनाने के लिए आटा किस चक्की से लाया और उस चक्की वाले के यहां गेहूं किसके खेत से आया। या चावल किस दुकान या आढ़ती से लिया और उनके यहां किसके खेत से आया। हिंदू के या मुसलमान के।

श्रद्धालुओं को यह भी बताया जाए कि खाना पकाने वाले बर्तन किस दुकान से आए…चाय टाटा की है लेकिन जिस बाग़ान से तोड़ी गई है वो बाग़ान हिंदू का है या मुस्लिम का या चाय पत्ती तोड़ने वाला-तोड़ने वाली कौन है….दूध किसके यहां से आया और दही…

कोई पूछे कि जिस सड़क पर कांवड़िये चल रहे हैं उस पर तो अभी कुछ देर पहले एक मुसलमान के पांव पड़े थे…तो क्या सड़क का वह टुकड़ा अलग कर दिया जाएगा ताकि कांवड़िया अपवित्र न हो।

और नास्तिक हिंदुओं का क्या। हिंदू नाम के धोखे में किसी कांवड़िये ने नास्तिक हिंदू की दुकान से सामान खरीद लिया तो उसके धर्म का क्या होगा।

योगी जी, धामी जी को यह भी बताना चाहिए कि अगर रास्ते में कोई कांवड़िया बीमार हो जाए, हादसा हो जाए तो उसे किसी मुसलमान की गाड़ी में अस्पताल तक ले जाना है या नहीं। क्या ड्राइवर का हिंदू होना ज़रूरी है। मुसलमान डॉक्टर से इलाज करना है या नहीं।

जब कोविड में ख़ून के लिए..प्लाज़्मा के लिए हाहाकार मचा तो किसी ने नहीं पूछा कि ये ख़ून हिंदू का है या मुस्लिम का… प्लाज़्मा किसका है। तब तो बड़ी-बड़ी अपीलें जारी की जा रही थीं। हालांकि बाद में सांप्रदायिक तत्वों ने इसमें भी हिंदू मुस्लिम करना शुरू कर दिया था।

अगर यही सब चलता रहा और इनकी योजनानुसार देश बाकायदा हिंदूराष्ट्र घोषित हो गया तो ये तो फिर अगला फ़रमान जारी करेंगे कि दुकानों पर जाति का नाम लिखना भी अनिवार्य है।

क्यों…क्योंकि बेचारे ब्राह्मण या ठाकुर–बनिया कांवड़िये को तक़लीफ़ हो सकती है कि उसने वाल्मीकि की दुकान पर चाय पी ली या जाटव की दुकान में खाना खा लिया…या पासी के ठेले से फल ख़रीद लिया।

और उसके बाद शायद कांवड़ पर भी लिखना होगा कि ये किस जात वाले की है…अगड़े की है या पिछड़े की…सवर्ण की है या दलित की। क्योंकि हो सकता है कि उसके साथ चलने या उसकी कांवड़ से अपनी कांवड़ छू जाने से कोई ब्राह्मण देवता नाराज़ हो जाए। उनकी भावनाएं आहत हो जाएं।

और ये होगा…और ये हो भी रहा है….अभी अयोध्या में हार से हिन्दुत्ववादी इतने बौखलाए कि इन्होंने अयोध्यावासियों के ही बॉयकाट का ऐलान कर दिया। अब कहीं बद्रीनाथ वासियों का बहिष्कार न हो जाए। क्योंकि वहां भी भाजपा हार गई है। यानी ये सांप्रदायिक हिन्दुत्ववादी…हिन्दुओं के भी सगे नहीं हैं।

ये सब किसलिए? यह इसलिए कि ये न महंगाई कम कर सकते हैं…न आपको रोज़गार दे सकते हैं। न अच्छी शिक्षा दे सकते हैं, न सस्ता इलाज। न ये रेल हादसे रोक पा रहे हैं…न पुलों का टूटना…न पेपर लीक… जनता का आक्रोश, नौजवानों का गुस्सा सड़कों पर न फूट पड़े, मंत्रियों से सवाल न पूछे जाने लगें। तख़्तापलट न हो जाए तो ये सांप्रदायिकता की राजनीति करेंगे…हिंदू-मुसलमान की राजनीति करेंगे। कभी वेज-नॉनवेज में उलझाएंगे…कभी हलाल-झटका में। और कांवड़ियों पर फूल बरसाकर अपनी विफलता छिपाएंगे।

दरअसल ये हिंदुत्ववादी दुकानों पर नेम प्लेट लगवाकर दूसरों की पहचान उजागर नहीं करना चाहते बल्कि अपनी असलियत छिपाना चाहते हैं।

आप चाहे हिंदी में प्रेम करें या उर्दू में मोहब्बत…करते रहें इसका एक सा एहसास है बहुत मीठा…ख़ूबसूरत

और चाहे घृणा कहें या नफ़रत…ये ज़हर ही है..जो आपकी जान ले लेगा।

इसलिए मेरी बातों से आपको चाहे दुख हो या ग़म…सोचिएगा ज़रूर…और अपने भीतर की अच्छाई बचाए रखिएगा।

शायर ओमप्रकाश नदीम कहते हैं (अब आप यह मत पूछने लगना कि ओम भी, प्रकाश भी और नदीम भी…ये कैसे हो सकता है…कौन हैं भाई…कौन सा धर्म हुआ…कौन जात हुई…यह बिल्कुल वैसे ही हैं जैसे रघुपति सहाय फ़िराक़ गोरखपुरी हैं…अपना देश ऐसा ही भइया। रंग-बिरंगा…गंगा-जमुनी तहज़ीब का। यहां सबसे अच्छे भजन मुस्लिम शायरों ने लिखे और मुस्लिम गायकों ने गाए…। यहां तो राधा की चुनरी भी सलमा सीती है। सांप्रदायिक हिन्दुत्ववादी लोग इसी से डरते हैं। तभी तो इसे एक रंग में रंगने की कोशिश की जा रही है। एक भाषा, एक धर्म, एक तरह का खाना, पहनना और सोचना भी। यही कोशिश है देश को अंधकार युग में ले जाने की।)

हां, तो ओमप्रकाश नदीम क्या कहते हैं–वे कहते हैं—

ये सब ग़रीबों के दायरे हैं, फ़लां की मिल्लत, फ़लां का मज़हब

अमीर सारे हैं एक जैसे,कहां की मिल्लत, कहां का मज़हब

इन अमीरों में वर्चस्वशाली, धनाढ्य, पूंजीपति वर्ग के साथ…हाकिम-हुक्मरां..यानी सरकार-सत्ताधीश सबको जोड़ लेना। जिनके लिए धर्म भी उनकी सियासत है, उनका कारोबार और मकसद है आपको बांटकर सिर्फ़ राज करना।

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