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RSS@100: सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता

कुल मिलाकर यह कि इनने भारत को एक ऐसे मुकाम पर लाकर खडा कर दिया है जहां इनके रहते अब उसे किसी बाहरी दुश्मन की जरूरत ही नहीं है।
Savarkar Golwalkar Hedgewar

विडम्बनाएं भी कभी कभी इतनी विडम्बनामयी दुविधा में फंस जाती हैं कि एक काव्यात्मक त्रासदी का रूप धारण कर लेती हैं। इस 2025 का 2 अक्टूबर ऐसा ही दिन है : इस दिन महात्मा गांधी, जिनके नाम से भारत को दुनिया में जाना और पहचाना जाता है उनकी जयंती है और ठीक उसी दिन दशहरा होने के चलते गांधी के सोच विचार के एकदम विपरीत और उनकी हत्या में आरोपी और इसके चलते प्रतिबंधित होने वाले संगठन  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की 100वीं सालगिरह भी है। पाखण्ड की हद यह है कि अपनी स्थापना की सौवीं सालगिरह पर यह संगठन एक तरफ शस्त्रपूजन करने जा रहा है वहीं – जैसी कि खबर है – दूसरी तरफ उसके लोग गांधी प्रतिमा पर जाकर उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए गांधी की प्रिय रामधुन का जाप भी करने वाले हैं। 

वैसे इस तरह की कलाबाजियां दिखाने में संघ जन्मना दक्ष है। शताब्दी वर्ष से पहले विचार का खाका तैयार करने के लिए वर्ष 2022 में अहमदाबाद में हुई इसकी अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक के समय लगाई गयी आधिकारिक प्रदर्शनी में इसने जिन 200 राष्ट्रभक्तों की तस्वीरें लगाई थीं उनमे मोहम्मद अली जिन्ना भी थे ; उन्हें भी सच्चा राष्ट्रभक्त बताया गया था। होने को तो इस फोटो गैलरी में वे मृणालिनी साराभाई और सैम पित्रोदा भी थे जिनके पीछे आजकल यह गिरोह हाथ धोकर पीछे पड़ा हुआ है।

शताब्दी वर्ष में इस तरह के और भी कई प्रहसन होने जा रहे हैं। नए मुखौटे, नए नए छद्म आवरणों की धजा सजाई जाने वाली हैं। जब ऐसा होगा तो स्वाभाविक है इन सौ वर्षों में इस ‘संगठन’  की कारगुजारियों का आंकलन भी किया जाएगा। 

हालांकि इसे संगठन कहना इसके रूप स्वरूप को कम करके आंकना होगा। संगठन वे होते हैं जिनका संविधान होता है, सदस्यता होती है, खाते और अकाउंट होते हैं। एक विधिवत निर्धारित कार्यपद्धति और उसके निर्वाह की सार्वजनिकता होती है, खुलापन और उत्तरदायित्वता होती है ; आरएसएस में इनमे से कुछ भी नहीं है। बहरहाल इसके किये धरे के समग्र लेखे जोखे को बाद के लिए छोड़ते हुए फिलहाल उन ‘मूल्यों’ की कसौटी पर ही एक सरसरी निगाह डाल लेते हैं जिनके लिए यह स्थापित होने का दावा करता  है। 

इसका दावा है कि “संघ का मिशन सहस्राब्दियों पुरानी विरासत के अनुरूप है,  जिसमें मानव जाति की एकता, सभी धार्मिक परंपराओं की अंतर्निहित एकता, मानव की मूल दिव्यता, सजीव और निर्जीव, सभी प्रकार की सृष्टि की पूरकता और अंतर्संबंध, तथा आध्यात्मिक अनुभव की प्रधानता में विश्वास शामिल है।”  

यह भी दावा करता है कि “संघ सभी नागरिकों और जीवन की सभी गतिविधियों में देशभक्ति के संचार को प्राथमिकता देने में अद्वितीय है। राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के लिए राष्ट्रीय चरित्र,  मातृभूमि के प्रति अटूट समर्पण, अनुशासन, संयम, साहस और वीरता का पोषण आवश्यक है। इन सद्प्रेरणाओं का सृजन और पोषण देश के समक्ष सबसे चुनौतीपूर्ण कार्य है - जिसे स्वामी विवेकानंद ने संक्षेप में मानव-निर्माण कहा है।”

मानव जाति की एकता और सभी धार्मिक परम्पराओं की अंतर्निहित एकता में इसका विश्वास कितना है यह भारत की जनता के द्वारा माने जाने वाले विभिन्न धर्मों के प्रति इसके खुले वैमनस्य और उनके प्रति खुलेआम की जाने वाली हिंसा के रूप में बिना किसी अंतराल के इन दिनों तो लगभग हर रोज, उजागर होता रहता है। यह चर्चों और उनसे जुड़े संस्थानों को फूंकने, मस्जिदों पर चढ़कर भगवा झंडे फहराते हुए उत्पात मचाने, स्कूल कॉलेज में लड़कियों की पढाई उनके परिधानों के आधार पर रोकने, सार्वजनिक सांस्कृतिक समारोहों में दूसरे धर्मों के लोगों का प्रवेश प्रतिबंधित करने  और रेलगाड़ियों में सोते हुए यात्रियों को जगाकर उनका धर्म पूछकर उन्हें गोली मार देने तक पहले ही जा पहुंचा था। इस तिरस्कार और द्वेष से इसने पृथ्वी के इस हिस्से  में जन्मे बौद्ध, जैन, सिख, आजिविक और श्रमण धर्मों को भी नहीं बख्शा। इन दिनों इसने अपना दायरा और बढ़ाकर उसकी चपेट में उन पंथों और सम्प्रदायों और धार्मिक धाराओं को भी ले लिया जिन्हें आमतौर से  व्यापक हिंदू धर्म परम्परा का हिस्सा माना जाता था। 

हिन्दू धर्म के आधार पर हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का दावा अब हिन्दू धर्म की बात करना ही बंद कर चुका है ; उस सनातन पर लौट आया है जिसके खिलाफ हुए तीखे संघर्ष ने ही इस देश की धार्मिक और दार्शनिक परम्परा को समृद्ध किया था। कुछ हद तक मानवीय बनाया था ।

रही “सभी नागरिकों और जीवन की सभी गतिविधियों में देशभक्ति के संचार को प्राथमिकता देने” की बात तो इस मामले में तो सचमुच संघ का रिकॉर्ड अद्वितीय है। राजनीतिक भौगोलिक रूप से इस भारत देश का निर्माण जिस 90 वर्ष के महान स्वतंत्रता संग्राम से हुआ उसमें 1925 में अपनी स्थापना के बाद से आरएसएस ने जो भूमिका निबाही है उसे  इसके अंधभक्तों को छोड़कर बाकी देश और दुनिया अच्छी तरह जानती है । स्वतन्त्रता संग्राम का विरोध, 15 अगस्त 1947 के दिन काले झंडे फहराना, राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे को अपशकुनी बताते हुए धिक्कारना, नए भारत के संविधान निर्माण के खिलाफ आन्दोलन करना इतिहास में दर्ज है। 

आजादी के मात्र साढ़े पांच महीने के भीतर ही  देश के सबसे बड़े व्यक्ति महात्मा गांधी की हत्या कर राष्ट्र को अस्थिर बनाने की साजिश रचना इनकी देशभक्ति का एक और उदाहरण है । इनके विचार आराध्य सावरकर की इंग्लैंड की महारानी को लिखी चिट्ठियाँ आज भी माफीनामों के लेखन का आदर्श प्रतिरूप बनी हुई हैं। 

संघ के संस्थापक डॉ हेडगेवार की देशभक्ति की गाथा 1920 के दशक में, जब संघ के सह-संस्थापक हेडगेवार इसके पहले सरसंघचालक बने तो जिन बालाजी हुद्दार को पहला सरकार्यवाह नियुक्त किया गया था उनने लिखी हुई है। हुद्दार बताते हैं कि जब वे नेताजी सुभाष चन्द्र बोस से मुलाकात के लिए समय लेने हेडगेवार के पास पहुंचे तो उन्होंने अपने स्वाथ्य का बहाना बना कर किस तरह नेताजी से मिलने तक से मना कर दिया था। वे लिखते हैं कि सरसंघचालक उस दिन खूब मजे में स्वयसेवकों के साथ हंसी ठिठोली कर रहे थे, बीमार नहीं थे : संघ आजादी के आंदोलन में शामिल होकर अंग्रेजों की नाराजगी मोल लेना नहीं चाहता था। उन दिनों वह अंग्रेजी सेना तथा पुलिस में भर्ती करने के अभियान में जुटा हुआ था और अंग्रेजी सरकार के  फूट डालो और राज करो की नीति को आगे बढ़ा रहा था।

देशभक्ति की ‘अद्वितीयता’ की यह परम्परा आज तक जारी है : पिछले डेढ़ दशक में  पाकिस्तान की आईएसआई के लिए जासूसी करते हुए जितने भी लोग पकडे गए हैं उनमें जितने इनकी राजनैतिक वैचारिक संबद्धता वाले है उतने किसी और के नहीं। अभी दो साल पहले खुद प्रधानमंत्री के प्रत्यक्ष नियंत्रण में चलने वाले सुरक्षा संस्थान डीआरडीओ में पकड़ा गया साईंटिस्ट प्रदीप कुरुलकर तो तीन पीढ़ी से संघ संस्कारित स्वयंसेवक था। रही चरित्र निर्माण और व्यक्ति निर्माण की तो ये जितना चुप्प रहें उतना ही इनके लिए अच्छा होगा। आर्थिक भ्रष्टाचार, व्यापमं से लेकर धार्मिक मेलों और मंदिरों तक के नाम पर जितने घोटाले इस कुनबे ने किये हैं उसका मुकाबला तो सकल ब्रह्माण्ड में  कोई नहीं कर सकता : ऐसा करते में इनने अपने उन भगवानों को भी नहीं बख्शा जिनके नाम पर सत्ता में पहुंचे । इस देश में सीडी उद्योग तो इन्ही के कारनामों के आधार पर खड़ा और फलाफूला है ; इस धतकरम में भी  इन्होने अपने कुनबाईयों को प्राथमिकता देना नहीं भूला।

राष्ट्र के एकीकरण और उसे मजबूत शक्ति के रूप में विकसित करने का इनका दावा कितना सच्चा है यह इनके राज में हुए मणिपुर और इन दिनों हो रहे लद्दाख से साफ़ हो जाता है। बात मजबूती की करते रहे और राष्ट्र को भीतर और बाहर दोनों तरह से कमजोर करते रहे। भारतीय अवाम के भीतर उसके समुदायों, सम्प्रदायों, जातियों और राज्यों, भाषाओं और संस्कृतियों में एक दूसरे के प्रति अविश्वास, एक दूजे से अलगाव का जो काम पाकिस्तान और अमेरिका मिलकर पिछले 70 साल में कई अरब डॉलर खर्च करके नहीं कर पाया वह विग्रह, विभाजन और विखंडन का काम सत्ता का आश्रय  पाने के बाद आरएसएस ने महज एक दशक में कर दिखाया।  सेना में भर्ती पर रोक, अग्निवीर जैसी आत्मघाती और अदूरदर्शी योजनाओं और रक्षा उत्पादनों के निजीकरण और राफेल जैसे महाघोटालों से इस देश की सामरिक सामर्थ्य में जो दीमक लगाई है उसकी भी दुनिया में कोई मिसाल नही है।

यही संकीर्ण और दिवालिया विचारधारा है जिसने एक जमाने में विश्व के सवा सौ देशों के नेता रहे भारत को आज दुनिया भर में इस कदर अलग थलग कर दिया है कि एक भी पड़ोसी के साथ भी संबंध अच्छे नहीं बचे है। कुल मिलाकर यह कि इनने भारत को एक ऐसे मुकाम पर लाकर खडा कर दिया है जहां इनके रहते अब उसे किसी बाहरी दुश्मन की जरूरत ही नहीं है । 

यही हालत इनके राष्ट्रवाद की है : अब किसी जमाने में जम्बू द्वीप कहे जाने वाला कश्मीर से कन्याकुमारी और अटक से कटक तक की भौगोलिकता में बंधा राष्ट्र इनका राष्ट्र नहीं है ; अब अडानी ही राष्ट्र है – राष्ट्र ही अडानी है। इस कदर कि देश, संविधान, राजनीति यहाँ तक कि धर्म तक की आलोचना की जा सकती है किन्तु उनकी नहीं। 

हर फासिस्ट, हर तानाशाह, हर आतंकी मूलतः कायर होता है – वह अपने से बड़े को अपना बड़ा मानता है। जब जब, जो जो बड़ा होता जाए उसे बड़ा मानता रहता है । सौ साल के हो रहे संघ के साथ भी यही है । इसके संस्थापक लिखापढ़ी में अपने जमाने के सबसे बड़े जालिम हिटलर को अपना आदर्श मानते थे, यहूदियों का सफाया करने के उसके बर्बरतम काम की सराहना करते हुए उससे सीखने की बात करते थे। आज वे यहूदीवादी नरसंहारी बेंजामिन नेतन्याहू के दीवाने बन उसकी आराधना कर रहे हैं। खुलेआम उस अमेरिकी साम्राज्यवाद के पिछलग्गू बनने के लिए बिछे जा रहे हैं जिसने कभी भारत के साथ सहानुभूति नहीं रखी : हमेशा उसके बिखराव और घेराव की साजिशें रचीं। उस ट्रम्प को लुभाने के लिए मयूर नृत्य कर रहे हैं जो न केवल सार्वजनिक रूप से भारत को जलील कर रहा है, उस पर टैरिफ और आर्थिक व्यापारिक प्रतिबन्ध लगा रहा है बल्कि पाकिस्तान को अपने दस्तरखान और ऊंचे मकामो पर बैठा रहा है । लगता है, राष्ट्र को गौरवशाली और महान बनाने का संघी तरीका यही है ।

गरज यह कि यह एक ऐसा ‘संगठन’ है जिसने जब जब, जो जो करने का दावा किया है तब तब ठीक उससे उलटा किया है। पहले से मौजूद शक्ति और सामर्थ्य को बढाने की बजाय उसे कमजोर और ध्वस्त करने का किया है।  यही सलूक देश के भविष्य को अज्ञान के अँधेरे में धकेलते हुए उसे विश्वगुरु बना बताने के लिए किया जा रहा  है । इसके लिए हर प्रदेश में हजारों और देश भर में लाखों की तादाद में सरकारी स्कूल बंद करने, उच्च शिक्षा और खासकर विश्वविद्यालयों में पलीता लगाने, पाठ्यक्रम को अंधविश्वास और अंधश्रद्धा और अवैज्ञानिकताओं की मूर्खताओं से लबालब भरने  की मोडस ओपरेंडी अपनाई जा रही है। महिलाओं के खिलाफ मुहिम तो और भी भयानक है। मकसद एक ऐसा समाज बनाना है जहां कोई सर उठाकर चलने की सोच भी न सके। असली उद्देश्य वर्णाश्रम आधारित, मनु की ढाली बेड़ियों में जकड़े ब्राह्मणवादी सामाजिक ढाँचे की बहाली है। इन पूरे एक सौ साल आर एस एस इसी की ओर बढ़ता रहा ; सता में आने के बाद उसी तरफ लौटने  की रफ़्तार तेज की है। स्वाभाविक भी है : ब्राह्मण युवाओं के आक्रामक संगठन के रूप में  संघ की स्थापना उस दौर में हुई थी जब महाराष्ट्र जाति की जड़ता के खिलाफ आंदोलनों के तूफानों में जाग रहा था। जोतिबा फुले से लेकर शाहू जी महाराज जैसों की अगुआई में आयी जगार ने ब्राह्मणवादी सोच और जीवन शैली की चूलें हिला दी थीं। सत्यशोधक समाज एक राजनीतिक शक्ति बन रहा था – कम्युनिस्ट मजदूर किसानों के बीच आधार बना रहे थे ।

संघ के सौ साल इस सर्वथा अस्वीकार्य को स्वीकार्य बनाने का माहौल बनाने के लिए लगातार पाखंड के सौ साल हैं। उन्हें पता है कि भले वह भेड़ की  कितनी ही खालें ओढ़ ले लोग आसानी से झांसे में नहीं आयेंगे। इसीलिये कभी वह बिना यह बताये कि उन्होंने असल में संघ के बारे में क्या कहा था गांधी के शाखा में आने की अफवाह फैलाता है तो कभी डॉ अम्बेडकर के आने का झूठ फैलाता है। कभी दावा करता है कि 1963 की गणतंत्र दिवस की परेड में उसने भाग लिया तो कभी न जाने कितनी आपदाओं में सेवाकार्यों के अतिरंजित दावे करता है। इस तरह के उधार की आभा से वह अपनी असलियत को छुपाना चाहता है। मगर अब लोग इस पाखंड को समझ गए हैं। मजे की बात यह है कि सब कुछ के बावजूद ज्यादातर संघी अभी भी खुद को संघी बताने में झेंपते सकुचाते हैं ।

सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा चीफ जस्टिस गवई की माँ कमलताई गवई के संघ के एक शताब्दी कार्यक्रम में बुलाने का झूठा एलान इसी तरह का था जिसका सटीक जवाब देते हुए श्रीमती गवई ने कह दिया कि “वे बाबासाहेब आंबेडकर के विचारों और भारतीय संविधान के प्रति प्रतिबद्ध हैं, लिहाज़ा ऐसे किसी भी कार्यक्रम का हिस्सा नहीं बन सकतीं हैं, जो सामाजिक चेतना को नुकसान पहुंचाता हो। उन्होंने मीडिया में किए जा रहे उस प्रचार को निंदनीय बताया, जिसमें कहा जा रहा है कि वे संघ के कार्यक्रम में भाग लेंगी। उन्होंने स्पष्ट किया कि न तो संघ की ओर से किसी ने उनसे संपर्क किया है और न ही उन्होंने संघ के कार्यक्रम में शामिल होने की स्वीकृति दी।” इस तरह की प्रतिक्रिया किसी भी स्वाभिमानी संगठन को शर्मसार करने वाली है मगर संघ संघ है उसने अब इस बुजुर्ग महिला के खिलाफ ही घृणित अभियान छेड़ दिया है।

यही निर्लज्ज पाखण्ड है जो सरसंघचालक के शताब्दी वर्ष के दशहरा भाषण के मुख्य अतिथि के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविद का चयन करके किया गया है। इसके पीछे उनका पूर्व राष्ट्रपति होना कम, वह दलित सामाजिक पृष्ठभूमि का होना ज्यादा है जिसकी वजह से उन्हें नयी संसद के शिलान्यास और उनके बाद बनी मुर्मू को उदघाटन में नहीं बुलाया गया था। ऐसा ही पाखण्ड  टिकिट और सिक्का जारी करते हुए कटु और कर्कश वचनों के महारथी स्वयंसेवक प्रधानमंत्री ने किया जब उन्होंने दावा ठोका कि  "100 वर्ष में, कुछ अच्छा, कम अच्छा हुआ मगर संघ ने कभी कटुता नहीं दिखाई !!"

इस टिप्पणी का शीर्षक अमीर मीनाई साहब की मशहूर ग़ज़ल से लिया गया है ; इसी  के शेर में कहें  तो संघ को यह गुमान है कि “वो बेदर्दी से सर काटें 'अमीर' और मैं कहूँ उन से / हुज़ूर आहिस्ता आहिस्ता जनाब आहिस्ता आहिस्ता।” उन्हें यह भ्रम है कि इस तरह के शिगूफों की आड़ में उसके इरादे छुप जायेंगे । पूरे एक सौ साल में ऐसा नहीं हुआ। हालांकि यह गलतफहमी पालना भी ठीक नहीं होगा कि  संघ के मंसूबे पूरी तरह पूरे न होने की स्थिति हमेशा बनी रहेगी। आँख मूंदने से खतरे नहीं टलते, खतरे तभी टलते हैं जब उन्हें उनकी समग्रता में चीन्हा जाए और उनका मुकाबला किया जाए। यह अलग विषय है – इस पर अलग से कभी।

(लेखक लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।) 

 

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