यूपी चुनावः बनारस में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विश्वनाथ कॉरिडोर की लोकप्रियता का असल इम्तिहान

पूर्वांचल में हिन्दुत्व की लहर पैदा करने में जुटी भारतीय जनता पार्टी का असल इम्तिहान अबकी बनारस में होगा। इम्तिहान सिर्फ भाजपा का नहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके काशी विश्वनाथ कॉरिडोर की लोकप्रियता का भी होगा। यूं तो सियासी बिसात पर बनारस ने कई मोड़ देखे हैं, लेकिन इस बार न कोई लहर नजर आ रही है, न मोदी मैजिक। कोई नहीं लगा पा रहा वोटरों के मन की थाह। बनारस में करीब 800 करोड़ की लागत से निर्मित जिस काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के बहाने हिन्दुओं को लुभाने की कोशिश की गई, उससे यूपी विधानसभा चुनाव में भाजपा को कोई संजीवनी मिलती नहीं दिख रही है।
उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव से कुछ ही महीने पहले भाजपा ने काशी विश्वनाथ कॉरिडोर कार्ड को जिस होशियारी से चला उससे साफ़ जाहिर था कि विपक्ष के पास सिवाय चुप रहने के कोई विकल्प नहीं। मंदिर के भव्य स्वरूप के सामने मस्जिद छुप गई है और चर्चा में रही सिर्फ कॉरिडोर की भव्यता। वाराणसी में नवनिर्मित काशी विश्वनाथ कॉरिडोर को कुछ लोग जहां भारत की आध्यात्मिक चेतना के पुनरुत्थान के प्रतीक के रूप में देख रहे थे, तो कुछ लोग इसे मान रहे थे यूपी चुनाव में भाजपा के पक्ष में सियासी बढ़त दिलाने वाला हथियार। काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के नाम पर कुछ महीने पहले भाजपा ने बनारस के लोगों के पास एक ''महीन सियासी संदेश'' भेजा, लेकिन बनारसियों ने उसे अपने माथे पर चस्पा नहीं किया। ''बनारस की सरकार'' ने हाल ही में कई और पुरातन मंदिरों पर बुल्डोजर चलवा दिया है, जिसे लेकर काशी के आस्थावान लोग बेहद कुपित और आहत हैं और इसका खामियाजा भाजपा को ही भुगतना होगा।
साल 2014 से बनारस, पीएम नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र है। हालांकि काशी विश्वनाथ मंदिर का अधिग्रहण दशकों पहले कांग्रेस के शासन काल में हुआ था। बाद की बसपा और सपा ने इस मंदिर से आए राजस्व को सरकारी खाते में डालकर अपने लिए वाहवाही बटोरी। कॉरिडोर के लोकार्पण के बहाने मोदी-योगी ने भी अखबारों में खूब सुर्खियां बटोरी, लेकिन बनारसियों को इनका मेगा इवेंट रास नहीं आया।
क्या कॉरिडोर होगा चुनावी मुद्दा?
काशी पत्रकार संघ के पूर्व अध्यक्ष प्रदीप श्रीवास्तव कहते हैं, ''विश्वनाथ कॉरिडोर के मुद्दे पर भाजपा का जयकारा वही लोग लगा रहे हैं जिन्हें प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से कारोबारी फायदा हुआ है। जिनके कारोबार खत्म हुए हैं अथवा उजाड़े गए हैं उनके मन में गुस्सा है और खीझ भी। ये लोग हर साल में योगी सरकार की विदाई चाहते हैं। कॉरिडोर के लोकार्पण से पूर्वांचल की कौन कहे, बनारस में भी कोई खास असर नहीं है। भाजपा ने मंदिर के प्रसाद के साथ मोदी की तस्वीरों वाली पुस्तिका भी घर-घर बंटवाई, लेकिन वह बनारस के वोटरों के दिलों में पैठ नहीं बना सकी। बनारस में विश्वनाथ कॉरिडोर का रास्ता जिस तरफ से जाता है वह भाजपा है मजबूत बड़ा गढ़ शहर दक्षिणी। विश्वनाथ कॉरिडोर के नाम पर यहां जिस तरह से पुरातन मंदिर मंदिरों पर बुल्डोजर गरजा, उसे लेकर वोटरों के मन में अनगिनत सवाल पैदा हो गए हैं। ऐसे सवाल जिसका जवाब न भाजपा के पास है और न ही पीएम नरेंद्र मोदी के पास। विश्वनाथ कॉरिडोर देखने के लिए पर्यटकों का हुजूम भले ही बनारस में जुट रहा है, लेकिन नेमी दर्शनार्थियों की तादाद नहीं के बराबर है। यह मंदिर अब आस्था का नहीं, पर्यटन का केंद्र बनकर रह गया है। मंदिर को देखने के लिए जो लोग आ रहे हैं, उनमें आस्था कम, घूमने की ललक ज्यादा है।''
प्रदीप यह भी कहते हैं, ''बाहर से आने वाले सैलानी बनारस के वोटर नहीं हैं। जो बनारस के वोटर हैं वो पूरी तरह खामोश हैं, जिनके मन की थाह किसी भी सियासी दल को नहीं मिल पा रही है। अलबत्ता तमाम मंदिरों को तोड़े जाने से जो आहत हैं वो अब खुलकर बोलने लगे हैं और इस चुनाव में कॉरिडोर के पैरोकारों को सबक सिखने के लिए अल्टमेटम भी देने लगे हैं। मौजूदा चुनाव में विश्वनाथ कॉरिडोर एक बड़ा मुद्दा रहेगा, लेकिन वो भाजपा के लिए संजीवनी की तरह काम करेगा, यह कह पाना कठिन है। विश्वनाथ मंदिर के आसपास जिनका पर्यटन का कारोबार है, वो विश्वनाथ कॉरिडोर से खुश हैं, लेकिन जिन छोटे कारोबारियों की दुकानें कॉरिडोर की भेंट चढ़ गई हैं, वो बेहद आहत हैं। वह लोग ज्यादा खफा है जो विश्वनाथ मंदिर के आसपास कई पीढ़ियों से रह रहे हैं। कॉरिडोर की चकाचौध से सिर्फ वही लोग प्रभावित हैं जो बनारस अथवा पूर्वांचल से बाहर के हैं या फिर जो लोग शुरू से ही मोदी को अपने अराध्य के रूप में देखते आ रहे हैं। बाहरी लोगों को यह जरूर लग रहा है कि मोदी ने बहुत अच्छा काम किया है, लेकिन बनारसियों के मन में सुरक्षाबलों के बुलेट का खौफ ज्यादा है। मंदिरों पर बुल्डोजर चलवाने और दुकानों को उजाड़े जाने, पपंरराओं के टूटने और सैकड़ों साल से आस्था के केंद्र रही मूर्तियों के अपमान से आहत लोग बैलेट के जरिए सत्तारूढ़ दल भाजपा को करारा जबाब देना चाहते हैं।''
चुनावी मुद्दा बनेगा कॉरिडोर
काशी विश्वनाथ कॉरिडोर का निर्माण करने वाली अहमदाबाद की कंसल्टेंट कंपनी चार चरणों में इसका निर्माण कार्य कर रही है। पहले चरण में मंदिर और आस-पास का इलाके का विस्तारीकरण किया गया, जबकि तीसरे चरण में गंगा घाट के किनारे से शुरू किया गया। इसमें नेपाली मंदिर से लेकर ललिता घाट, जलासेन घाट और मणिकर्णिका घाट के आगे सिंधिया घाट तक के करीब एक किलोमीटर लंबे हिस्से को शामिल किया गया है। वहीं दूसरे और चौथे चरण का निर्माण घनी आबादी क्षेत्र में होने के कारण यहां भवनों की खरीद और ध्वस्तीकरण का काम पहले शुरू कर दिया गया था।
परिसर बनने से पूर्व मंदिर के प्रवेश द्वारों के नाम स्थानीय मोहल्लों और इलाकों के नाम पर थे, चौक-विश्वनाथ मंदिर मार्ग पर पड़ने वाले रास्ते को पहले वीआईपी, छत्ताद्वार और ज्ञानवापी गेट कहा जाता था। इसी तरह गोदौलिया चौराहे से आने वाले मार्ग के रास्ते को ढुंढिराज प्रवेश द्वार, साथ ही दशाश्वमेध घाट, ललिता घाट, कालिका गली से मंदिर जाने वाले प्रवेश मार्ग को सरस्वती द्वार और मणिकर्णिका घाट से आने वाले मार्ग के प्रवेश द्वार को नीलकंठ गेट कहा जाता था। इनमें से अधिसंख्य स्थान अब भौगोलिक रूप से गायब हो गए हैं। मकराना और चुनार के पत्थरों से बने इस परिसर में अलग-अलग दिशाओं में 34 फीट की ऊंचाई वाले नए प्रवेश द्वार बनाए गए हैं। घाट से आने वाला रास्ता ललिता घाट की तरफ से है, जहां से मंदिर का शिखर देखा जा सकता है। मंदिर चौक का हिस्सा अर्धचंद्राकार है और परिसर से लेकर गंगा घाट तक कुल 24 इमारतें बनी हैं। इनमें मंदिर परिसर, मंदिर चौक, जलपान केंद्र, गेस्ट हाउस, यात्री सुविधा केंद्र, संग्रहालय, आध्यात्मिक पुस्तक केंद्र और मुमुक्षु भवन आदि शामिल हैं।
गांव-गिरांव के संपादक श्रीधर द्विवेदी कहते हैं, ''उत्तर प्रदेश में भाजपा के तीन शक्ति केंद्र अयोध्या, काशी और मथुरा हैं। अयोध्या के बाद भाजपा ने बड़ी चतुराई से काशी के मामले को अपने नैरेटिव में ढालने की कोशिश की है। मथुरा और काशी दोनों ही स्थानों पर मस्जिद और मंदिर एक परिसर में दिखते हैं। ऐसे में भाजपा ने नए ढंग से विश्वनाथ कॉरीडोर बनवा कर भव्य स्वरूप दिया। विपक्ष की मजबूरी यह है कि बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक की वर्तमान राजनीति में कोई भी विपक्षी दल बहुसंख्यकों के विरोध में जाकर बीजेपी को और मजबूत नहीं करना चाहता। इसलिए कॉरिडोर के मुद्दे पर विपक्ष ने चुप्पी साध रखी है। भाजपा ने बनारस की सभी सीटों पर अपने प्रत्याशी उतार दिए हैं। ज्यादातर पुराने महारथियों पर ही उसने दांव लगाया है। प्रत्याशियों को लगता है कि मोदी है तो कुछ भी मुमकिन है। मार्च के पहले हफ्ते में वो आएंगे और अपने जादू से हवा का रुख मोड़ देंगे। हालांकि अबकी मंजर बदला हुआ है। बनारस में पीएम मोदी का जो मैजिक पहले काम करता था, अब वो बेअसर हो चुका है।''
काशी विश्वनाथ मंदिर के महंत राजेंद्र तिवारी को लगता है कि जिस आतताई तरीके से पुरातन मंदिरों पर बुल्डोजर चलाया गया है उससे बनारसियों के बीच कोई अच्छा संदेश नहीं गया है। जिन लोगों ने काशी विश्वनाथ मंदिर और इस शहर की जीवंतता देखी है, बुल्डोजर उनके हृदय पर सीधे-सीधे प्रतिघात है। राजेंद्र तिवारी कहते हैं, ''चुनाव में बहुत सारे मुद्दे उठ रहे हैं, लेकिन भाजपा विकास के मुद्दों को उठाने से बच रही है। उसका जोर अपनी उपलब्धियों का बखाने करने पर कम, विपक्ष पर प्रतिघात करने पर ज्यादा है। विधानसभा चुनाव में काशी विश्वनाथ कॉरिडोर भी मुद्दा रहेगा। बनारस में पर्यटकों की भीड़ से गदगद मोदी लहालोट हैं, लेकिन आस्था का भाव कहां गायब हो गया है, इसका जवाब उनके पास नहीं है। दुनिया जानती है कि काशी साधन की नहीं, साधना की नगरी है। इसे पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित किए जाने से समूचे पूर्वांचल के लोग कतई खुश नहीं है। अवध में भाजपा एक नारा जोरों से उछाल रही है, ''जो राम को लाए हैं, हम उनको लाएंगे।'' पूर्वांचल में चुनावी सरगरमी बढ़ेगी तो ये नारा उछाल देंगे, जो विश्वनाथ कॉरिडोर को लाया है, हम उसे जिताएंगे।''
महंत राजेंद्र यह भी कहते हैं, ''सरकारें देश और समाज हित के लिए बनती हैं। यहां तो चुनावी प्रचार में विकास कम, वितंडाबाद पर ज्यादा जोर है। जुमला उछालने वाले शायद यह भूल गए हैं कि काशी में आकर झूठ बोलने वालों को धरती पर कहीं जगह नहीं मिलती। 7 फरवरी 2022 को विश्वनाथ कॉरिडोर परिसर के परिधि में आने वाले कई पुरातन मंदिरों का वजूद मिटा दिया गया। इनमें काली की वह बाल प्रतिमा भी थी जो देश में सिर्फ तीन स्थानों पर स्थापित की गई थी। इनमें एक प्रतिमा बनारस में थी, जिसका इतिहास करीब तीन-चार सौ साल पुराना है। चोरी-छिपे राम मंदिर, लक्ष्मी नारायण मंदिर, राधा-कृष्ण मंदिर के विग्हों को हटा दिया गया। यह शिव भक्ति नहीं, शिवद्रोह है। पौराणिक शिव विग्रहों को तोड़कर फेंकवाने का कृत्य कोई आतताई ही कर सकता है। जिन मंदिरों को तोड़ा गया है उनके विग्रहों का कहीं कोई हिसाब-किताब नहीं है। जिस तरह से मूर्तियों को गायब किया जा रहा है उससे लोगों के मन में तमाम तरह की आशंकाएं जन्म ले रही हैं। लगता है कि कुछ लोग दुर्लभ मूर्तियों को गायब करने में लगे हुए हैं, अन्यथा उन्हें मीडिया के जरिए इन उनका ब्योरा रखना चाहिए। यह भी बताना चाहिए कि मंदिरों को क्यों तोड़ा गया और उसमें से निकाली गई मूर्तियों का कहां रखा गया है? एक व्यक्ति के अहंकार के लिए समूची काशी की गरिमा के साथ जिस तरह का खिलवाड़ हो रहा है, उसका खामियाजा तो राजा को ही भुगतना होगा। जो लोग छलने की नीयत से बनारस आए हैं उनका मंसूबा इसी चुनाव में चकनाचूर हो जाएगा।''
मंदिरों व मूर्तियों का हिसाब नहीं
विश्रवनाथ मंदिर के नियमित दर्शनार्थी वैभव कुमार त्रिपाठी कहते हैं, ''काशी विश्वनाथ कारिडोर के नाम पर ये लोग कुछ भी कर सकते हैं। जनता को पता होना चाहिए कि मूर्तियां क्यों उखाड़ी गई, कहां रखी गई हैं और उनका क्या होगा। हमारे मन में शंका है कि अंतरराष्ट्रीय गिरोह के साथ मिलकर कुछ अफसर मूर्तियों की तस्करी करा रहे हैं। अगर ऐसा नहीं है तो मंदिरों से उखाड़ी गई सैकड़ों मूर्तियों और विग्रहों का हिसाब उन्हें जनता के बीच रखना चाहिए। जब जनता के सवालों का जवाब नहीं मिल रहा है तो लोग ऐसा कयास लगाने के लिए मजबूर तो होंगे ही।''
मणिकर्णिका घाट इलाके के बुजुर्ग रामजी गुप्ता कहते हैं, ''यूपी चुनाव में लाभ उठाने के लिए सदियों पुराने मंदिरों को जमींदोज किया जा रहा है। हम लोग क्या बोलेंगे इस सरकार में। एकदम डरे हुए हैं। जो बोलेगा, वह लाठी खाएगा और जेल भी जाएगा। हमारी नजरों के सामने ही मां काली की मूर्ति तोड़ी गई और मंदिर को जमींदोज कर दिया गया। कॉरिडोर के चलते हमारा रोजगार पहले से खत्म हो गया है। जिंदगी की गाड़ी खींचने के लिए कोई साधन नहीं है। चुनाव आने दीजिए, हम जैसे लोग बता देंगे कि सिर्फ नारे गढ़ऩे से नहीं, दिल में उतरने से वोट मिलता है। कॉरिडोर को लेकर अखबारों में लोकलुभावनी बातें छपती हैं तो हमारा दिल जलता है। लोग समझते हैं बड़ा अच्छा काम हो रहा है। हमें देखिए, लकड़ी की दुकान पर बैठे हैं और मुर्दा अगोर रहे हैं। हमारा गेस्ट हाउस ढाई बरस से बंद है। यहां कोई टूरिज्म नहीं है। कॉरिडोर तो यूपी चुनाव में लाभ उठाने का हथकंडा है। मणिकर्णिका इलाके के प्रभात सिंह कहते हैं, ''हमारा मकान उन सैकड़ों इमारतों में से एक था, जिसे कॉरिडोर के गलियारे के लिए रास्ता बनाने के लिए तोड़ दिया गया। ''भव्य काशी, दिव्य काशी'' का नारा यूपी चुनाव में राजनीतिक बढ़त हासिल करने के लिए का जरिया ज़रूर है, लेकिन इससे सत्तारूढ़ दल को कोई लाभ नहीं मिलने वाला है।''
नेपाल राज्य के तीर्थ पुरोहित कृष्ण शंकर दुबे भी काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के कामकाज से नाखुश हैं। वह कहते हैं, ''इससे किसी को सियासी फायदा नहीं होने वाला। यहां विकास नहीं, विनाश हो रहा है। प्राचीन इतिहास को ढहाकर नया और अतिआधुनिक इतिहास गढ़ने की कोशिश की जा रही है। मोदी ने यहां बहुत कुछ अनुचित किया है। बाबा विश्वनाथ मंदिर को तहस-नहस कर दिया है। अब तो गर्भगृह में कुत्ते भी चले जाते हैं।''
आहत हैं नेपाल राज्य के तीर्थ पुरोहित
''कितने पुरातन मंदिरों के नाम गिनाएं, जिन्हें कॉरिडोर के नाम पर कुर्बान कर दिया गया। सैकड़ों साल पुराना काली मंदिर तो अब तोड़ा गया है, इससे पहले सनमुख बिनायक मंदिर को ढहाकर मैदान बनाया जा चुका है। राम-सीता, कृष्ण, गणेश के कई पुरातन मंदिरों का अब कहीं अता-पता नहीं है। हमारे मणिकर्णिका तीर्थ का लोप हो रहा है। इसका पाप देश के मुखिया को भुगतना पड़ेगा। मोदी ने तो हद ही कर दी है। गंगा को भी नहीं छोड़ा। इस पवित्र नदी को पाटकर एक बड़े इलाके को छिछला कर दिया गया।''
विश्वनाथ परिसर में मलबे के ढेर में बदल गई काली मंदिर
दिलचस्प होगा मुकाबला
बनारस में शहर दक्षिणी, शहर उत्तरी और कैंट विधानसभा सीटें भाजपा की गढ़ मानी जाती हैं। भाजपा ने तीनों सीटों पर अपने पुराने महारथी नीलकंठ तिवारी, रविंद्र जायसवाल और सौरभ श्रीवास्तव को मैदान में उतारा है। अबकी तीनों सीटों पर भाजपा की प्रतिष्ठा दांव पर है। जिस विश्वनाथ कॉरिडोर के रास्ते भाजपा चुनावी मैदान मार लेना चाहती है, उसकी राह में इस बार कड़ी चुनौतियां हैं। विश्वनाथ कॉरिडोर वाराणसी के दक्षिणी विधानसभा क्षेत्र के उस इलाके का हिस्सा जहां ज्यादातर लोग बुनकरी के धंधे पर आश्रित हैं। इस सीट पर सभी दलों ने अपने प्रत्याशियों का ऐलान कर दिया है। भाजपा ने नीलकंठ को तो कांग्रेस ने मुदिता कपूर को अपना प्रत्याशी बनाया है। हालांकि इनका चेहरा बनारसियों ने अभी अखबारों में ही देखा है। कोई करिश्मा न हो जाए तो मुख्य मुकाबला सपा और भाजपा के बीच ही होगा। जो सीन बन रहा है, उसमें समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी किशन दीक्षित भाजपा को काफी परेशान करते नजर आ रहे हैं। कांग्रेस ने जिस प्रत्याशी को मैदान में उतारा है उससे सपा की मुश्किलें काफी आसान हुई हैं। कांग्रेस प्रत्याशी मुदिता कपूर ने इस सीट पर सपा को मजबूती दी है। इसकी वड़ी वजह यह है कि मुदिता बनारस के जाने-माने सराफा कारोबारी कन्हैया लाल दामोदर दास परिवार की बेटी हैं। यह ऐसा परिवार है जिनका शहर दक्षिणी इलाके में काफी रसूख है। शहर दक्षिणी विधानसभा में अग्रवाल समुदाय की तादाद ठीक-ठाक है। बनारस में आधा दर्जन से अधिक सिनेमा हॉल इन्हीं के रहे हैं। बनारस के कारपेट कारोबारी अशोक कपूर (खत्री) की बहू मुदिता कपूर खुद एक होटल की मालकिन हैं। मुदिता उन लोगों का वोट ज्यादा काटेंगी, जिनके दम पर भाजपा दशकों से यह सीट अपने नाम करती आ रही है। कांग्रेस खत्री समाज में घुसपैठ करेगी, जिससे भाजपा का नुकसान तय है। कांग्रेस जितना वोट पाएगी, वह भाजपा को ही पछाड़ेगी। मुदिता कपूर के मैदान में उतरने से भाजपा नेताओं की सांसें अटक सी गई हैं। पिछली मर्तबा पूर्वांचल में मोदी की लहर थी, जिसे बीजेपी ने आसानी से भुना लिया। अबकी मंजर बदला हुआ है। यह सीट सपा और भाजपा के बीच फंसी हुई नजर आ रही है।
सपा प्रत्याशी किशन दीक्षित बनारस के प्रसिद्ध महामृत्युंजय महादेव मंदिर के महंत परिवार से आते हैं। वह लंबे समय से समाजवादी पार्टी में सक्रिय हैं। इनका टार्गेट शहर दक्षिणी के वो 90 हजार वोटर हैं, जिनमें से ज्यादातर की आजीविका बनारसी साड़ियों से जुड़ी हुई है। जातीय आधार पर आंकलन करें तो नीलकंठ तिवारी और किशन दीक्षित दोनों ही ब्राह्मण समुदाय के हैं। इस सीट पर मराठी, गुजराती और सारस्वत ब्राह्मण ज्यादा हैं। ऐसे में बीजेपी के नीलकंठ तिवारी की राह कंटकमय हो सकती है, क्योंकि अबकी सपा का प्रत्याशी यहां उन्हें चुनौती देने की स्थिति में है। अगर नीलकंठ विश्वनाथ कॉरिडोर से जुड़े रहे हैं तो किशन के साथ महामृत्युजंय मंदिर की आस्था जुड़ी है। काशी में इस मंदिर की भी बड़ी मान्यता है। दूसरी ओर, भाजपा प्रत्याशी नीलकंठ के व्यवहार से भी वोटरों को ज्यादा शिकायत है। आरोप यह भी चस्पा है कि वो काफी एरोगेंट हैं। किसी जनप्रतिनिधि के लिए दोनों चीजें सकारात्मक नहीं है।
शहर दक्षिणी भाजपा का गढ़
शहर दक्षिणी की जो बनावट है उसमें यह सीट लंबे समय से भाजपा के साथ रही है। शुरुआती दौर में यहां कांग्रेस और सीपीआई के बीच जोरदार मुकाबला होता रहा है। साल 1951 और 1957 में संपूर्णानंद के खिलाफ चुनाव लड़ने वाले सीपीआई के रुस्तम सैटिन को पराजय का समाना करना पड़ा। साल 1962 में कांग्रेस के गिरधारी लाल ने रुस्तम सैटिन को पराजित किया, लेकिन साल 1967 में सैटिन ने पहली बार फतह हासिल की। पांच साल बाद भारतीय जनसंघ के सचिंद्र नाथ बख्शी ने उन्हें मात दी। वाराणसी के दक्षिणी विधानसभा चुनाव में बड़ा बदलाव तब आया, जब यहां भगवा लहराया था। इसके बाद 1980 और 1985 में दो ही मौके आए जब कांग्रेस के कैलाश टंडन और डॉ. रजनी कांत दत्ता चुनाव जीते। इसके बाद से दक्षिणी विधानसभा पर पूरी तरह से भगवा का कब्जा हो गया। साल 1989 से 2012 तक लगातार सात बार बीजेपी से अकेले श्यामदेव राय चौधरी चुनाव जीते। साल 2017 के विधानसभा चुनाव के दौरान यहां सियासत तब गरमा गई जब भाजपा के वरिष्ठ नेता श्यामदेव राय चौधरी का टिकट काटा गया। भाजपा कार्यकर्ता नाराज तो बहुत हुए, लेकिन मोदी मैजिक के चलते नतीजा भाजपा के ही पक्ष में ही आया। भाजपा प्रत्याशी डॉ. नीलकंठ तिवारी ने 92560 मतों के साथ कांग्रेस के दिग्गज नेता और पूर्व सांसद डॉ. राजेश कुमार मिश्रा को 17226 वोटों के मार्जिन से हरा दिया था।
दक्षिणी सीट पर साल 1989 से 2012 तक श्यामदेव राय चौधरी का कब्जा रहा। साल 1985 में डॉ. रजनीकांत दत्ता कांग्रेस से विधायक बने। फिर 1980 में कांग्रेस के कैलाश टंडन चुनाव जीते। नेपथ्य में देखें तो साल 1977 में राजबली तिवारी जनता पार्टी से निर्वाचित हुए थे। इससे पहले साल 1974 के चुनाव में चरणदास सेठ जनसंघ से विधायक बने। साल 1969 में सचिंद्र नाथ बख्शी जनसंघ से जीते तो साल 1967 में सीपीआई के रुस्तम सैटिन ने बाजी मारी। साल 1962 में गिरधारी लाल ने कांग्रेस को हराया। साल 1957 में डॉ. संपूर्णानंद भी कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीते थे। इसके पहले 1951 में भी डॉ. संपूर्णानंद कांग्रेस से विधायक बने थे।
पिछले तीन-चार दशक में शहर दक्षिणी सीट पर भाजपा ने जब भी किसी दल से यह सीट छीनी है तो वह कांग्रेस ही है। अभी यहां सपा का कभी खाता नहीं खुल पाया है। लेकिन अबकी मंजर बदला हुआ दिख रहा है। लड़ाई का जो नक्शा बन रहा है उसमें फायदा सपा का हो सकता है। नए परिसीमन में इस सीट पर अल्पसंख्यक वोटरों की तादाद ज्यादा है। सपा के किशन दीक्षित का कर्मकांडी परिवार का होने से उन्हें फायदा मिल सकता है।
वरिष्ठ पत्रकार विनय मौर्य कहते हैं, ''भाजपा के नीलकंठ के खिलाफ पार्टी के अंदर तो असंतोष है ही, आम जनता में भी नाराजगी दिख रही है। कांग्रेस की कोशिश इस लड़ाई को तिकौना बनाने की है। बीजेपी प्रत्याशी नीलकंठ की संपत्ति को लेकर जो जनधारणा बन गई है वह उन्हें परेशानी में डालने वाली है। हर तीसरा आदमी कहता नजर आता है कि चुनाव जीतने के बाद नीलकंठ ने बड़ी संपंति जुटा ली है, लेकिन किसी के पास सबूत नहीं है। यह चर्चा कार्यकर्ताओं में भी है और बाहर भी है। लोग इनकी संपत्ति की जांच की मांग कर रहे हैं। हालांकि अभी तक इनके खिलाफ कोई चार्ज फ्रेम नहीं हुआ है। लेकिन जनचर्चा इतनी अधिक है, जिसे आसानी से तोड़ पाना बीजेपी के लिए संभव नजर नहीं आ रहा है। गैर तो गैर इस चुनाव में इनके अपने भी खफा हो गए हैं। इनके सामने चुनौतियां काफी कड़ी हैं।''
बलुआवीर के अमिया मंडी मुहल्ले के एजाज अहमद कहते हैं, ''भाजपा प्रत्याशी नीलकंठ तिवारी योगी सरकार में मंत्री भी रहे, लेकिन पिछले पांच सालों में वो हमारे इलाके में कभी नहीं आए। साल 2017 में जैसा ग्राफ भाजपा का था, वैसा इस बार नहीं है। पिछले चुनाव में तमाम मुसलमानों ने इस फेर में कमल वाली बटन दबाई थी कि डबल इंजन की सरकार आएगी तो बनारसी साड़ी उद्योग के दिन बहुरने लगेंगे, मगर हुआ ऐसा कुछ भी नहीं। अलबत्ता बिजली का बिल जरूर बढ़ा दिया गया। नतीजा, पांच सालों में साड़ी का कारोबार लगभग डूब गया। सिर्फ 40-50 रुपये के मुनाफे पर हम काम कर रहे हैं। भाजपा का नारा-''सबका साथ-सबका विकास'' सिर्फ शब्दों में लगता है, रियल्टी में नहीं। मोदी ने शुरू में बनारस के बुनकरों को खूब सब्जबाग दिखाया। लालपुर में करोड़ों की लागत से बुनकरों के लिए संकुल का निर्माण भी कराया, लेकिन वो सफेद हाथी बनकर रह गया। बीते सात-आठ सालों में हथकरघा उद्योग की सांस उखड़ गई। अब पावरलूम भी आखिरी सांसें गिन रहा है। ऐसी सरकार हमारे किस काम की, जो बुनकरों को रिक्शा-ट्राली चलाने और ईंट-गारे के काम पर मजदूरी करने के लिए मजबूर कर दे। कोनिया, राजघाट से लगायत पीलीकोठी-मदनपुरा तक बुनकरों के घरों से कहीं आहें निकलती हैं, कहीं कराहें।''
दम तोड़ रहा बनारस का साड़ी उद्योग
एजाज की गद्दी के पास बैठे शमीम अहमद कहते हैं, ''पहले दक्षिणी के अल्पसंख्य मतदाता हाथ के पंजे पर बटन दबाते थे, लेकिन अबकी हमारा थोक वोट साइकिल की ओर जा सकता है। बनारस में ओवैसी की पार्टी का कोई जनधार नहीं है। हमें तो लगता है कि यूपी में बंगाल जैसे ही नतीजे आएंगे। पहले की अपेक्षा बिजली की स्थिति थोड़ी जरूर सुधरी है, लेकिन सीवर और सड़कों का हाल जस का तस है। बुनकरों के सामने सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी की है। अखिलेश के बारे में भाजपा के लोग चाहे जो भी हुंकार लगाएं, लेकिन वो सीधे-सच्चे हैं। हम भाजपा के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन जो हमारे बारे में सोचेगा, उसे ही वोट देंगे।'
मोदी आएंगे तो हवा बदल देंगे
भाजपा कार्यकर्ताओं को भरोसा है कि मोदी फिर बनारस आएंगे, रोड शो के दौरान जनता से सीधे संवाद करें और चुनावी हवा का रुख बदल जाएगा। लेकिन सपा इस बार तगड़ी घेरेबंदी में जुटी है। वह चुप बैठने वाली नहीं लगती। जिस समय मोदी बनारस होंगे, तभी बंगाल की सीएम ममता बनर्जी सपा के पक्ष में बनारस आकर वोट मांगेंगी। उसी दौरान कांग्रेस नेत्री प्रियंका गांधी भी काशी को मथती हुई नजर आएंगी। कांग्रेस को लगता है कि प्रियंका घूम गईं तो नजरा बदल जाएगा। अभी यह कहना मुश्किल है कि ऊंट किस करवट बैठेगा, लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि अगर भाजपा से सपा का कड़ा मुकाबला पश्चिम में है तो मुकाबला पूरब में भी जोरदार होगा।
वरिष्ठ पत्रकार अमितेश पांडेय कहते हैं, ''भाजपा के दोबारा रिपीट करने की संभावनाएं धूमिल सी है। सिर्फ शहर दक्षिणी सीट पर ही नहीं, जिले की सभी आठ सीटों पर भाजपा को तगड़ी चुनौती मिल रही है। मोदी कुर्सी लगाकर बैठ जाएं तब भी भाजपा का मुश्किलें आसान नहीं होने वाली। शायद अबकी मोदी भी समझ रहे हैं कि मुकाबला कठिन है। उन्होंने चुनाव अभियान में खुद को इस तरह से खड़ा किया है जैसे ''मैं हूं भी, और नहीं भी हूं।'' भाजपा ने ग्राउंड रियल्टी को भांप लिया है और हालात को समझ भी लिया है। भाजपा की जबर्दस्त बौखलाहट और उछलकूद का नतीजा है कि वह विकास के बजाए यह कहकर वोट मांग रही है भाजपा हारी तो यूपी में गुंडाराज आ जाएगा।''
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