पट्रोल पर असीम टैक्स वृद्धि ने तोड़ी आम आदमी की कमर, सरकार गा रही जन कल्याण का राग

जब भी पेट्रोल का दाम बढ़ता है तो सरकार के समर्थकों की तरफ से सुनाई देता है कि सरकार पैसा वसूल कर अपने जेब में नहीं रखती है बल्कि वह उसे जनता पर ही खर्च करती है। पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान भी पेट्रोल की कीमत बढ़ने के पीछे कई बार इसी कारण को बात चुके हैं। अभी हाल में मध्य प्रदेश के ऊर्जा मंत्री प्रद्युम्न सिंह तोमर ने कहा कि पेट्रोल-डीजल से हो रहे मुनाफे को लोगों के इलाज में खर्च किया जा रहा है। यह ऐसा तर्क है जिसके गिरफ्त में ढेर सारे लोग फंस जाते हैं और सही सवाल पूछने की बजाए सरकार को रहनुमा के तौर पर मानने लगते हैं।
जैसा कि सबको मालूम है कि भारत के कई इलाकों में पेट्रोल की कीमत ₹100 के आंकड़े को पार कर चुकी है। हर हफ्ते पेट्रोल की कीमतों में उतार-चढ़ाव देखने को मिलता है। इस तरह हर हफ्ते पेट्रोल की कीमतों में उतार-चढ़ाव पहले नहीं हुआ करता था। लेकिन अब हो रहा है। इसकी वजह है साल 2014 में अपनाई गई डीकंट्रोल की नीति। जिसका मतलब है कि तेल की कंपनियां तय करेंगी कि उन्हें उपभोक्ताओं से कितनी कीमत वसूल करनी है। सरकार की इसमें कोई भागीदारी नहीं होगी। इसका मतलब यह होना चाहिए कि जैसे ही कच्चे तेल की कीमत नीचे गिरे उपभोक्ताओं से कम कीमत वसूली जाए और जैसे ही कच्चे तेल की कीमत ऊपर चढ़े उपभोक्ताओं से अधिक कीमत वसूली जाए। सैद्धांतिक तौर पर यह होना चाहिए था। लेकिन यह नहीं होता है। जो होता है, वह यह है कि सरकार के पास टैक्स लगाने का अधिकार है। और सरकार जनता को ध्यान में रखकर नहीं, बल्कि अपनी जेब को ध्यान में रखकर पेट्रोल डीजल पर टैक्स लगाती है। इसीलिए भले तेल की कीमत बहुत अधिक कम क्यों न हो जाए? लेकिन सरकार पेट्रोल और डीजल पर लगने वाला टैक्स कम नहीं करती है। इसलिए पेट्रोल कीमतें कभी भी कच्चे तेल की कीमतों के आधार पर बढ़ती और कम नहीं होती बल्कि सरकार के जरिए लगाए गए टैक्स के आधार पर बढ़ती और कम होती हैं।
और जहां तक टैक्स का खेल है तो वह यह है कि साल 2014 में सरकार पेट्रोल पर सेंट्रल एक्साइज ड्यूटी लगा कर तकरीबन ₹10 वसूल करती थी और डीजल पर तकरीबन ₹4। पेट्रोल पर सेंट्रल एक्साइज ड्यूटी का पैसा बढ़कर अप्रैल 2020 में तकरीबन ₹22 हो गया और डीजल पर बढ़कर तकरीबन ₹18 हो गया। पिछले साल अप्रैल से लेकर फरवरी 2021 तक फिर से इसमें ₹10 का इजाफा हुआ है। मौजूदा समय में तकरीबन पेट्रोल पर सेंट्रल एक्साइज ड्यूटी के तौर पर ₹32 और डीजल पर ₹31 की वसूली की जा रही है। जबकि रिफाइंड कच्चे तेल की प्रति लीटर कीमत मात्र ₹32 है।
पेट्रोलियम प्लानिंग एंड एनालिसिस सेल की डेटा से पता चलता है कि मोदी सरकार को साल 2014-15 में जब वह चुनकर आई थी तब पेट्रोल पर लगने वाली सेंट्रल एक्साइज ड्यूटी के तौर पर तकरीबन 99000 करोड रुपए की राशि मिली थी। साल 2019-20 के वित्त वर्ष में यह राशि बढ़कर 2 लाख 35 हजार करोड़ के पास पहुंच गई। साल 2020-21 का आंकड़ा कहता है कि पेट्रोल और डीजल पर लगने वाले सेंट्रल एक्साइज ड्यूटी की वजह से केंद्र सरकार को तकरीबन 3 लाख करोड रुपए मिले हैं।
साल 2021- 22 के लिए अर्थशास्त्रियों की उम्मीद है कि पेट्रोलियम उत्पादों से केंद्र सरकार 3 लाख करोड़ रुपए से भी अधिक की टैक्स वसूली होगी।
यानी ध्यान से देखा जाए तो साल 2014-15 के बाद मोदी सरकार ने पेट्रोल पर लगने वाले एक्साइज ड्यूटी से होने वाली कमाई को नीति की तरह अपनाया है। केंद्र सरकार ने पेट्रोलियम उत्पाद पर लगने वाले टैक्स से बंपर कमाई की है। केवल केंद्र सरकार ही नहीं बल्कि राज्य सरकार भी पेट्रोल पर वैल्यू ऐडेड टैक्स लगाकर कमाई करती है। दिल्ली में यह तकरीबन ₹21 के आसपास है।
राज्य सरकार इसका विरोध इसलिए नहीं करती है क्योंकि राज्य सरकार द्वारा लगा वैल्यू ऐडेड टैक्स - कच्चे तेल की कीमत, डीलर के कमीशन, और सेंट्रल एक्साइज ड्यूटी तीनों के कुल जमा पर लगता है। यानी सेंट्रल एक्साइज ड्यूटी अधिक होगी तो राज्य सरकार को पेट्रोल पर अधिक राजस्व मिलने की संभावना होगी।
पेट्रोल पर इतना अधिक सेंट्रल एक्साइज ड्यूटी वसूलने के बाद भी केंद्र सरकार के कुल जीडीपी में कुल टैक्स वसूली का हिस्सा 2017-18 के वित्त वर्ष के बाद से घटता ही जा रहा है। साल 2017-18 में कुल टैक्स वसूली जीडीपी का तकरीबन 11 फ़ीसदी हुआ था। यह घटकर अब 10 फ़ीसदी तक पहुंच गया है।
इसका मतलब यह है कि भले सरकार पेट्रोल पर पहले से ज्यादा टैक्स की वसूली कर रही हो, लेकिन कुल टैक्स की मात्रा जीडीपी के हिसाब से देखा जाए तो पहले से कम हो गई है। निष्कर्ष के तौर पर अगर यह कहा जाए कि पहले मिलने वाले टैक्स के पैसे से अगर जनकल्याण की नीतियां ढंग से लागू नहीं हो पाई तो अब मिलने वाले टैक्स के पैसे से तो जनकल्याण की नीतियां तो पहले के मुकाबले और भी बुरी तरीके से लागू होंगी क्योंकि कुल टैक्स जरूरत के हिसाब से पहले से भी कम मिल रहा है।
कम टैक्स वसूली के पीछे सबसे बड़ा कारण भारत की जर्जर हो चुकी अर्थव्यवस्था को मिला कोरोना का साथ तो है ही। लेकिन दूसरा बड़ा कारण यह भी है कि धीरे-धीरे सरकार ने कॉरपोरेट् टैक्स की वसूली बहुत कम कर दी है। और वह भी तब जब कारपोरेट महामारी के दौर में भयंकर कमाई कर रहे हैं।
साल 2020 में 100 बिलेनियर की संपत्ति में हुए इजाफे को अगर सबसे गरीब 10 फ़ीसदी लोगों में बांट दिया जाए तो हर एक व्यक्ति को तकरीबन ₹1 लाख मिल सकता है। इस तरह की प्रवृत्ति वाले समाज में जहां पर अमीर कॉरपोरेट्स अमीर हुए जा रहे हैं, वहां पर कॉरपोरेट को खुली छूट दी गई है। साल 2018 में कॉरपोरेट को रियायत के तौर पर तकरीबन 1 लाख 45 हजार करोड रुपए की छूट दी गई।
एक अध्ययन के मुताबिक साल 2010 में केंद्र सरकार के प्रति सौ रुपए के राजस्व में कंपनियों से 40 रुपए और आम लोगों से 60 रुपए आते थे। 2020 में कंपनियां केवल 25 रुपए दे रही हैं और आम लोग दे रहे हैं 75 रुपए।
कहने का मतलब यह है कि भारतीय राज्य की कमाई का बड़ा सोर्स आम लोग हैं न कि कॉरपोरेट। एक समय के लिए अगर भारतीय राज्य को एक कंपनी मान लिया जाए तो कंपनी में आम लोगों का पैसा ज्यादा लग रहा है, धनिक लोगों का पैसा कम, लेकिन मुनाफा धनिक लोगों का ज्यादा हो रहा है।
अब आते हैं मंत्री जी के उस बयान पर जिसमें वह कहते हैं कि सरकार टैक्स के तौर पर पैसा लेकर आम लोगों के इलाज पर खर्च कर रही है। हकीकत का एक सिरा तो पहले ही जान लिया कि पेट्रोल और डीजल की कीमत बढ़ाकर आम लोगों को पूरी तरह से निचोड़ने के रास्ते पर चलने के बाद भी सरकार के पास इतना पैसा नहीं जा रहा है जितना उसे जीडीपी के मुकाबले पहले मिलता था। अब कुछ दूसरे सिरे पर बात करते हैं।
हद से ज्यादा टैक्स लगाने की वजह से सबसे बड़ा परिणाम तो यह मिला है कि महंगाई छप्पर फाड़ कर बढ़ रही है। कंज्यूमर प्राइस और होलसेल प्राइस इंडेक्स के जारी आंकड़े के इसी के बारे में बताते हैं। लेकिन यह भी महज आंकड़े हैं।
महंगाई का सही अंदाजा इनसे नहीं लगता। क्योंकि यह साल भर में होने वाले इजाफे को ही बता पाते हैं। सारे विश्लेषक महंगाई के लिए पेट्रोल की कीमतों में टैक्स को लेकर हो रहे इजाफे को दोषी बताते हैं। बीते 7 साल में पेट्रोल-डीजल से टैक्स संग्रह 700 फीसद बढ़ा है। इसका मतलब है कि पिछले 7 साल के पहले की कीमत से तुलना करें तो आज महंगाई बहुत अधिक होगी। महंगाई की भी सबसे अधिक मार गरीब लोगों को झेलने पड़ती है। उनको जो देश की 80 फ़ीसदी आबादी का हिस्सा है और जिनकी कमाई ₹20000 महीने से कम है।
ऐसे में सबसे अधिक टैक्स भी यही वर्ग भुगतान कर रहा है। इसलिए चौराहे पर खड़ा होकर कोई यह सवाल पूछे कि आखिरकार सरकार हमारे टैक्स का पैसा कहां खर्च कर रही है, तो इसमें कोई गलत बात नहीं होगी। असली राष्ट्रवाद तो यही है। अगर सरकार का कहना है कि वह इलाज पर खर्च कर रही है तो भारत की स्वास्थ्य सुविधाएं की व्यवस्था इतनी लचर क्यों है? लोक कल्याण की नीतियां धरातल पर क्यों नहीं उतरती?
आम लोग और सरकार के बीच जनकल्याण को लेकर फासला बढ़ता क्यों जा रहा है? इन सारे सवालों का जवाब हमारे आसपास मौजूद है कि सब कुछ लचर है। न रोजगार मिल रहा है, न कमाई हो रही है, न जीने लायक जीवन स्तर बन रहा है और फिर भी सरकार टैक्स पर टैक्स लगा रही है। आम लोग टैक्स का भुगतान कर रहे हैं और सरकार उलट कर कह रही है कि वह आम लोगों पर पैसा खर्च कर रही है तो इसे कैसे सही माना जाए?
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