महिला दिवस विशेष: क्या तुम जानते हो/ पुरुष से भिन्न/ एक स्त्री का एकांत

बिना किसी भूमिका के आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर पढ़ते हैं कुछ प्रमुख महिला रचनाकारों की कविताएं। इनका चयन बेतरतीब (randomly) किया गया है लेकिन ये कविताएं बेतरतीब नहीं हैं, बल्कि हरेक कविता हमारी सोच, हमारी समझ को एक नयी तरतीब देती है। स्त्री जीवन के नये अर्थ खोलती है। आइए पढ़ते हैं अपने देश की प्रसिद्ध कवि निर्मला पुतुल, अनुराधा सिंह, शोभा सिंह, अनामिका और पोलैंड की नोबल पुरस्कार विजेता विस्वावा शिम्बोर्स्का की चुनिंदा कविताएं।
निर्मला पुतुल: क्या तुम जानते हो
क्या तुम जानते हो
पुरुष से भिन्न
एक स्त्री का एकांत
घर-प्रेम और जाति से अलग
एक स्त्री को उसकी अपनी ज़मीन
के बारे में बता सकते हो तुम ।
बता सकते हो
सदियों से अपना घर तलाशती
एक बेचैन स्त्री को
उसके घर का पता ।
क्या तुम जानते हो
अपनी कल्पना में
किस तरह एक ही समय में
स्वंय को स्थापित और निर्वासित
करती है एक स्त्री ।
सपनों में भागती
एक स्त्री का पीछा करते
कभी देखा है तुमने उसे
रिश्तो के कुरुक्षेत्र में
अपने...आपसे लड़ते ।
तन के भूगोल से परे
एक स्त्री के
मन की गाँठे खोलकर
कभी पढ़ा है तुमने
उसके भीतर का खौलता इतिहास
पढ़ा है कभी
उसकी चुप्पी की दहलीज़ पर बैठ
शब्दो की प्रतीक्षा में उसके चेहरे को ।
उसके अंदर वंशबीज बोते
क्या तुमने कभी महसूसा है
उसकी फैलती जड़ो को अपने भीतर ।
क्या तुम जानते हो
एक स्त्री के समस्त रिश्ते का व्याकरण
बता सकते हो तुम
एक स्त्री को स्त्री-दृष्टि से देखते
उसके स्त्रीत्व की परिभाषा
अगर नहीं
तो फिर जानते क्या हो तुम
रसोई और बिस्तर के गणित से परे
एक स्त्री के बारे में....।
(वर्ष 2004 में प्रकाशित कविता संग्रह ‘नगाड़े की तरह बजते हैं शब्द’ से साभार)
..........
अनुराधा सिंह: ईश्वर नहीं नींद चाहिए
औरतों को ईश्वर नहीं
आशिक़ नहीं
रूखे-फ़ीके लोग चाहिए आस पास
जो लेटते ही बत्ती बुझा दें अनायास
चादर ओढ़ लें सर तक
नाक बजाने लगें तुरन्त
नज़दीक मत जाना
बसों, ट्रामों और कुर्सियों में बैठी औरतों के
उन्हें तुम्हारी नहीं
नींद की ज़रूरत है
उनकी नींद टूट गई है सृष्टि के आरम्भ से
कंदराओं और अट्टालिकाओं में जाग रही हैं वे
कि उनकी आंख लगते ही
पुरुष शिकार न हो जाएं
बनैले पशुओं/ इंसानी घातों के
जूझती रही यौवन में नींद
बुढ़ापे में अनिद्रा से
नींद ही वह क़ीमत है
जो उन्होंने प्रेम परिणय संतति
कुछ भी पाने के एवज़ में चुकाई
सोने दो उन्हें पीठ फेर आज की रात
आज साथ भर दुलार से पहले
आंख भर नींद चाहिए उन्हें।
(वर्ष 2018 में प्रकाशित कविता संग्रह ‘ईश्वर नहीं नींद चाहिए’ से साभार)
...........
शोभा सिंह: घरेलू औरत
जो हर घर में
घरेलू सामान की तरह मौजूद
जिसके न होने से
सभी को थोड़ी बहुत परेशानी
मांग और सप्लाई बाधित
खाने में नमक की तरह
अदृश्य मशीन
गर्मी में ठंडे पंखे सी
चलती रहे
बेनाम
घर की भिश्ती, बावर्ची, खर
किसी के मन में नहीं
हमेशा लुटती-पिटती
अपनी दीवारों को सहेजे
आधी-अधूरी
छोटी सी कविता भी
छिप कर लिखती
वर्जनाओं को टनों मिट्टी के नीचे दबा
हांफती है और
कुछ बेहतर करने की ख्वाहिश
अन्याय को कुचलने की तड़प लिए
अपनी पहचान की कील ठोंकती
बहुत सारा प्यार-दुलार
उस पर टांगती
अपनों के बीच भी अजनबी बनी
अपने स्याह सन्नाटे में
नन्ही खुशियों के दाने
चुग लेती
न जाने कितने दिन-साल
सपनों की रस्सी पर
अपने को साध कर चलती
इतिहास का कोई पीला
पन्ना भी न बनती
दूसरों के लिए नामालूम
तरीके से जीने वाली यह औरत
अक्सर समुद्र तट पर
घरौंदे बनाती तोड़ती है
बच्चों की दूर जाती छवि
आंखों के कैमरे में बंद करती।।
(वर्ष 2014 में प्रकाशित कविता संग्रह ‘अर्द्ध विधवा’ से साभार)
...............
अनामिका: अनुवाद
लोग दूर जा रहे हैं—
हर कोई हर किसी से दूर—
लोग दूर जा रहे हैं
और बढ़ रहा है
मेरे आस-पास का ‘स्पेस’!
इस ‘स्पेस’ का अनुवाद
विस्तार' नहीं, 'अंतरिक्ष' करूँगी मैं,
क्योंकि इसमें मैंने उड़नतश्तरी छोड़ रखी है।
समय का धन्यवाद
कि मेरी घड़ी बंद है,
धन्यवाद खिड़की का
कि ऐन उसके सींखचों के पीछे
गर्भवती है चिड़िया!
जो भी जहाँ है—सबका धन्यवाद
कि इस समय मुझमें सब हैं,
सबमें मैं हूँ थोड़ी-थोड़ी!
भाँय-भाँय बजाता है हारमोनियम
मेरा ख़ाली घर!
इस ‘ख़ाली’ समय में
बहुत काम हैं।
अभी मुझे घर की उतरनों का
अनुवाद करना होगा
जल की भाषा में,
फिर जूठी प्लेटों का
किसी श्वेत पुष्प की पँखुड़ियों में
अनुवाद करूँगी मैं
फिर थोड़ी देर खड़ी सोचूँगी
कि एक झाग-भरे सिंक का
क्या मैं कभी कर सकूँगी
किसी राग में अनुवाद?
दरअसल, इस पूरे घर का
किसी दूसरी भाषा में
अनुवाद चाहती हूँ मैं
पर वह भाषा मुझे मिलेगी कहाँ
सिवा उस भाषा के
जो बच्चे बोलते हैं?
गले-गले मिल सोए,
पिटे हुए बच्चे,
गालों पर जिनके ढलक आए हैं
एक-दूसरे के आँसू?
इसमें ही हो जाएगी शाम—
किसी सोचते हुए आदमी की
आँखों-सी नम और सुंदर।
ओर इस शाम का अनुवाद
इतना ही करूँगी कि उठूँगी—
खोल दूंगी पर्दे!
अंतिम उजास की छिटकी हुई किर्चियाँ
पल भर में भर देंगी
सारा-का-सारा ‘स्पेस’
और फिर उसका अनुवाद
‘अंतरिक्ष’ नहीं, ‘विस्तार’ करूँगी मैं—
केवल विस्तार!
(जनवरी, 1995)
(वर्ष 2004 में प्रकाशित ‘कविता में औरत’ पुस्तक से साभार)
……..
विस्साव शिम्बोर्स्का: आभार
एहसानमन्द हूँ मैं उनकी
जिनसे मैं प्यार नहीं करती।
कितनी तसल्ली रहती है मुझे यह मान लेने में
कि उनकी किसी और से घनिष्ठता है।
कितनी ख़ुशी कि वे भेड़
और मैं भेड़िया नहीं।
कितने सुकून से मैं उनके साथ हूँ,
कितनी आज़ादी उनसे मुझे मिली हुई है,
और ये वे चीज़े हैं जो प्यार हरगिज़ नहीं दे सकता
या छीनकर नहीं ले जा सकता।
मैं उनके इन्तिज़ार में नहीं रहती
खिड़की से दरवाज़े के बीच बेचैनी से टहलती हुई।
उनके साथ मैं
धूपघड़ी की तरह धैर्यवान होती हूँ,
मैं उनके उन मसलों को हमदर्दी से समझ लेती हूँ
जिन्हें प्यार कभी समझ नहीं पाएगा,
मैं क्षमा कर देती हूँ उन चीज़ों को
जिन्हें प्यार कभी क्षमा नहीं करेगा।
उनसे मुलाक़ात और उनकी चिट्ठी के बीच
अनन्तकाल नहीं
महज़ कुछ दिन या हफ़्ते गुज़रते हैं।
उनके साथ यात्रा बड़े मज़े से कटती है,
संगीत सुना जाता है,
गिरजाघर देखे जाते हैं,
जगहें, दृश्य साफ़ नज़र आते हैं।
और जब हम उनसे जुदा होते हैं तो जो
पहाड़ और समुद्र हमारे बीच में हाइल होते हैं,
वही पहाड़ और समुद्र होते हैं जिन्हें हम
नक़्शों पर सहज पहचान लेते हैं।
इन्हीं लोगों के तुफ़ैल से
मैं तीन आयामी जीवन जी रही हूँ,
जी रही हूँ देश और काल में,
स्थान में जो ग़ैर-काव्यात्मक ग़ैर-नाटकीय है
एक वास्तविक क्षितिज के साथ जो कि चलायमान भी है।
उन लोगों को ख़ुद पता नहीं है कि अपने ख़ाली हाथों से
वे मुझे कितना कुछ दे जाते हैं।
अगर पूछा जाए प्यार से
इन लोगो के बारे में, तो प्यार कहेगा :
"मेरा इनसे क्या वास्ता?"
……..
(अंग्रेज़ी से अनुवाद : असद ज़ैदी। साभार- कविता कोश)
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।