कैसे करें भारत की जैव विविधता की रक्षा?

सबसे पहले जैव विविधता को समझने की कोशिश करते हैं। जैव विविधता से तात्पर्य ‘जैविक विविधता’ से है। यह शब्द पृथ्वी पर जीवित-प्रजातियों की विशाल विविधता, विशेषकर पौधों की किस्मों को परिभाषित करने की कोशिश करता है। इसमें प्रजातियों की दुनिया के भीतर बहुत व्यापक आनुवंशिक विविधताएं शामिल हैं। कुल मिलाकर, ये सब मिलकर एक अभिन्न पारिस्थितिकी तंत्र बनाते हैं।
जैव विविधता मानवता के लिए क्यों महत्वपूर्ण है? जैव विविधता ही है, जिसकी वजह से प्राकृतिक पर्यावरण बड़ी गड़बड़ियों के बावजूद संतुलन बनाए रखता है। जलवायु परिवर्तन, प्राकृतिक आपदाओं और महामारी के प्रकोप से लोग प्रभावित होते हैं। और, जैव विविधता ही है जो इन आपदाओं से बचाव करके और प्राकृतिक पर्यावरण में साम्य और संतुलन बहाल करके मानवता को बचाती है।
उदाहरण के लिए, यदि वायु प्रदूषण और तापमान में वृद्धि के कारण मधुमक्खियां गायब हो जाएंगी, तो परागण (Pollination) नहीं होगा और पौधे हमारे लिए सब्जियां और फल देने में सक्षम न होंगे।
घनी हरियाली न केवल हमारी हवा को साफ करती है, बल्कि बारिश को भी लाती है और हमारे लिए स्वच्छ पेयजल की आपूर्ति सुनिश्चित करती है।
वे मिट्टी को पोषक तत्वों से समृद्ध बनाते हैं और इससे हमारी कृषि और खाद्य सुरक्षा को लाभ होता है।
मनुष्यों के लिए हानिरहित जीवाणु प्रजातियों को बढ़ावा देकर, प्रकृति हानिकारक जीवाणुओं पर भी अंकुश लगाती है।
जैव विविधता में कोई भी गंभीर गड़बड़ी प्रकृति द्वारा हमें प्रदान किए जाने वाले इन सभी फायदों को भी बाधित कर देगी। यदि जैव विविधता खतरे में होगी, तो मानव स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था भी खतरे में होगी। केवल आयुर्वेद ही प्राकृतिक जड़ी-बूटियों पर निर्भर नहीं है। अनेक एलोपैथिक (Allopathic) दवाओं के निर्माण की स्रोत सामग्री भी पौधों से ही आती है। किसानों को अब एहसास हुआ है कि प्राकृतिक रूप से विकसित स्थानीय पौधों और जानवरों की नस्लें, कृत्रिम रूप से उत्पादित हाइब्रिड मवेशियों और पौधों की नस्लों की तुलना में, बीमारियों का बेहतर मुकाबला कर सकती हैं।
जीवन-विज्ञान (Life-Sciences) का एक संपूर्ण अनुशासन जैविक रूप से विविध पारिस्थितिक तंत्रों के अध्ययन पर केंद्रित होकर विकसित हो रहा है। वे न केवल पारंपरिक अर्थशास्त्र और स्वास्थ्य विज्ञान बल्कि दर्शन और सिस्टम सिद्धांतों (System Theories) के लिए भी कठिन चुनौतियां पेश करते हैं। जीव विज्ञान का सामना करते समय भौतिकी अपनी सीमाएं खोजती है। जैविक रूप से विविध पारिस्थितिक तंत्रों के अध्ययन में हमारी मौजूदा ज्ञान प्रणालियों में क्रांति लाने की क्षमता है।
इतिहास में, जैन धर्म जैसे कुछ धर्मों ने जीवन-प्रजातियों के विनाश के खिलाफ शिक्षा दी थी और प्राकृतिक पर्यावरण की सुरक्षा का प्रस्ताव रखा था। यहां तक कि 1500 ईसा पूर्व के वैदिक काल से लेकर 600 ईसा पूर्व तक, भारतीय समाज ने इस शब्द का उपयोग किए बिना भी जैव विविधता का सम्मान किया। उदाहरण के लिए, ऋग्वेद का एक भजन जिसे पृथ्वी सूक्त के नाम से जाना जाता है, पृथ्वी को पोषण करने वाली और जीवन-निर्वाह करने वाली इकाई के रूप में महिमामंडित करने के लिए समर्पित था। यह पृथ्वी पर पाए जाने वाले जीवन-रूपों की प्रचुरता और विविधता का जश्न मनाता है। यह विभिन्न जीवन-रूपों के अंतर्संबंध और पारिस्थितिकी तंत्र में उनके महत्व को स्वीकार करता है। प्रकृति की रक्षा करना भारत में सभी धर्मों द्वारा सिखाई जाने वाली नैतिकता का प्रश्न रहा है।
अब, हाई-टेक कंक्रीट के जंगलों में फंसकर, जब मानवता स्वयं अस्तित्व के खतरे का सामना कर रही है, तो प्रकृति को बचाना पूरी मानवता के लिए एक गहरा नैतिक मुद्दा बन गया है क्योंकि यह अस्तित्व का भी मुद्दा है। पहले, मानवता की प्रगति की पहचान प्रकृति पर "विजय" से की जाती थी, यह विचार कुछ मार्क्सवादियों द्वारा भी साझा किया गया था। अब, इस तरह के रवैये में बुनियादी बदलाव आया है। प्रकृति के साथ सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व और उसके सतत लाभकारी उपयोग को प्रगति के सिद्धांत के रूप में पहचाना जा रहा है।
जैव विविधता के विरोधी कौन हैं?
जैव विविधता के असल लक्ष्य को बाधित करने वाले और इसे खतरा पहुंचाने वाले बिंदुओं पर एक नज़र डालते हैं:
प्लान्टेशन इकॉनमी: मोनोकल्चर वृक्षारोपण (Monoculture Plantations) जैव विविधता का नंबर 1 विरोधी हैं। वृक्षारोपण अर्थव्यवस्था ज़्यादातर प्राकृतिक वनों के विनाश पर आधारित है। प्राकृतिक वन जैव विविधता से बहुत समृद्ध होते हैं। 2021 में भारत का कुल वन क्षेत्र 80.9 मिलियन हेक्टेयर था। भारत में प्रति वर्ष कार्बन कटौती में वनों का योगदान 11.25% है। 2022 में वृक्षारोपण ने 4.23 मिलियन हेक्टेयर पर कब्जा कर लिया, और अगर हम इसमें कॉफी, चाय, रबर और मसालों के अलावा नारियल और ताड़ के पेड़ों, बागों, कैसुरिनास/ओक और सागौन की लकड़ी के बागानों के क्षेत्र को भी शामिल करते हैं, तो कुल वृक्षारोपण क्षेत्र 5.72 मिलियन हेक्टेयर हो जाएगा। वृक्षारोपण का क्षेत्रफल कुल वन क्षेत्र के 5.32% के बराबर है। यदि वृक्षारोपण के लिए आवंटित किये गए क्षेत्र भी वनों के रूप में बने रहते, तो इससे कार्बन में 0.6% की अतिरिक्त कमी आती। यह पेरिस समझौते के बाद भारत द्वारा हासिल की जा रही वार्षिक कार्बन कटौती के पांचवें हिस्से के बराबर है। इस प्रकार वन-आधारित जैव विविधता का विनाश जलवायु कटौती लक्ष्यों को प्राप्त करने में भारत के लिए एक बड़ी बाधा है।
लकड़ी के लिए वनों की कटाई: अनुमान है कि भारत में लकड़ी उद्योग ने 2014 में 50 मिलियन क्यूबिक मीटर लकड़ी का उत्पादन किया है। यह 2.5 मिलियन हेक्टेयर भूमि से लकड़ी के बराबर है। यदि जलवायु शमन की दृष्टि से देखा जाए तो प्राकृतिक वनों का मूल्य लकड़ी से प्राप्त मूल्य से कहीं अधिक होगा।
गैर-वन उद्देश्यों के लिए वन भूमि का परिवर्तन: संघ पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने 7 अगस्त 2023 को लोकसभा में बताया कि वन (संरक्षण) अधिनियम के तहत खनन, उद्योग और आवासीय टाउनशिप आदि जैसे गैर-वन उद्देश्यों के लिए वन भूमि का डायवर्जन पिछले 15 वर्षों में 3 लाख हेक्टेयर भूमि तक किया गया। अब, वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 को और अधिक उदार बना दिया गया है और वन भूमि के डायवर्जन को आसान बना दिया गया है। इससे जैव विविधता के विनाश में और भी तेज़ी आना तय है।
प्रदूषण: जैव विविधता, यहां तक कि जंगलों के बाहर भी, औद्योगिक अपशिष्टों के प्रदूषण, वायु प्रदूषण और सूखे के कारण प्रभावित है। विभिन्न अन्य कारकों के चलते जल-जमाव, मिट्टी का कटाव और भूमि क्षरण भी जैव विविधता के विनाश का कारण बनता है। इससे खाद्य-श्रृंखला बाधित हो जाती है।
भारत ने जैव विविधता कानून में संशोधन किया
भारत ने जैव विविधता अधिनियम 2002 पारित किया था, जो 2004 में लागू हुआ। हाल ही में, सरकार ने 25 जुलाई 2023 को विधेयक में एक संशोधन पारित कराया। संशोधन विधेयक जैव विविधता संसाधनों की रक्षा के बारे में नहीं है। बल्कि, यह कंपनियों द्वारा जैव विविधता संसाधनों के दोहन को सुविधाजनक बनाने के लिए है।
2002 अधिनियम का उद्देश्य मुख्य रूप से विदेशी कंपनियों को हल्दी, नीम और आंवला जैसे पारंपरिक भारतीय पौधे-आधारित उत्पादों को पेटेंट करने से रोकना था। इसने एक राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण (NBA)की स्थापना की। भारतीय जैविक और आनुवंशिक संसाधन पर अनुसंधान करने वाली सभी विदेशी संस्थाओं के लिए NBA की पूर्व-स्वीकृति अनिवार्य थी और जो उनका उपयोग व्यावसायिक उत्पादन के लिए करते हैं, यहां तक कि किसी प्राकृतिक जैव-उत्पाद के पेटेंट के लिए भी आवेदन करते हैं। इसने विदेशी कंपनियों (या, यहां तक कि विदेशी हिस्सेदारी वाली भारतीय कंपनियों) द्वारा स्थानीय समुदायों के साथ वाणिज्यिक लाभ साझा करना भी अनिवार्य कर दिया था, जहां जैविक स्रोत सामग्री और उनके प्रसंस्करण के लिए पारंपरिक ज्ञान की उत्पत्ति हुई।
कंपनियों द्वारा स्थानीय लोगों के साथ साझा किया जाने वाला लाभ बहुत अधिक नहीं था। 2016 में एक अदालत के आदेश में कहा गया था कि वाणिज्यिक लाभ का 0.1% से 0.5% कंपनियों द्वारा साझा किया जाना था। लेकिन कंपनियों ने इसका भी विरोध किया। सरकार अब उनके दबाव के आगे झुक गई है, क्योंकि इस संशोधन विधेयक ने लाभ बंटवारे के इस प्रावधान को कमज़ोर कर दिया है।
यह संशोधन विधेयक, अनुसंधान, जैव सर्वेक्षण और संसाधनों के जैव-उपयोग करने वाली कंपनियों को स्थानीय लोगों के साथ लाभ साझा करने से उन्हें छूट देता है। अब लाभ-साझाकरण की शर्तें स्थानीय लोगों और कंपनियों द्वारा नहीं बल्कि नौकरशाहों के साथ गठित राज्य जैव विविधता बोर्डों द्वारा तय की जाएंगी।
2002 के अधिनियम में कहा गया था कि भारत में किसी भी हद तक विदेशी शेयर-होल्डिंग के साथ पंजीकृत किसी भी कंपनी को लाइफ-फॉर्म्स के पेटेंट के लिए आवेदन करने और व्यावसायिक उपयोग के लिए जैविक संसाधनों की खरीद के लिए NBA की पूर्व अनुमति लेनी होगी। अब, वर्तमान संशोधन इस प्रावधान को केवल उन कंपनियों तक सीमित करता है जिनके पास नियंत्रण हिस्सेदारी है, अर्थात, 50% से अधिक विदेशी शेयर-होल्डिंग वाली कंपनियां। हालांकि, यह सामान्य ज्ञान है कि 15-20% शेयर-होल्डिंग के साथ भी एक पब्लिक लिमिटेड कंपनी को नियंत्रित किया जा सकता है।
सभी अपराधों को अपराध की श्रेणी से मुक्त करने वाला कानून!
इससे भी बुरी बात यह है कि संशोधन विधेयक जैव विविधता शोषण से संबंधित सभी अपराधों को अपराध की श्रेणी से हटा देता है। बल्कि, यह दंड को केवल जुर्माने तक सीमित करता है। बिना अनुमति के दुर्लभ वन जड़ी-बूटियों को हथियाने या औद्योगिक अपशिष्टों को छोड़ कर हज़ारों एकड़ में जैव विविधता को नष्ट करने के लिए कोई भी जेल नहीं जाएगा।
इसके अलावा, संशोधन विधेयक 'पारंपरिक ज्ञान' को इतने अस्पष्ट तरीके से परिभाषित करता है कि कुछ भी और किसी को भी जैव विविधता अधिनियम के दायरे से छूट दी जा सकती है।
संसदीय समिति की जांच को हरी झंडी देना
यह संशोधन विधेयक शुरुआत में 16 दिसंबर 2021 को संसद में पेश किया गया था, इसके बाद 20 दिसंबर 2021 को संसद की एक संयुक्त समिति को भेजा गया और जेपीसी ने 2 अगस्त 2022 को अपनी रिपोर्ट सौंपी। मसौदा विधेयक की पूरी तरह से जांच करने के बाद, जेपीसी ने 21 सिफारिशें कीं। जेपीसी की सिफारिशों में से एक यह थी कि दंड अपराध के पैमाने के अनुरूप होना चाहिए। विधेयक में केवल 1 लाख रुपये से 50 लाख रुपये तक के जुर्माने का प्रस्ताव है, जबकि कंपनियों द्वारा जैव संसाधनों की अवैध लूट हज़ारों करोड़ रुपये तक हो सकती है। जेपीसी ने राज्य जैव विविधता बोर्डों के बजाय क्षेत्र-आधारित स्थानीय जैव विविधता प्रबंधन समितियों को निर्णायक प्राधिकारी के रूप में प्रस्तावित किया। सरकार ने उनमें से 20 को नजरअंदाज कर दिया और विधेयक के अंतिम पारित संस्करण में केवल एक को शामिल किया।
पारंपरिक औषधियां अब एक बड़ा व्यवसाय है
यदि पूंजीवादी बागानों ने पहले के दशकों में बड़े पैमाने पर जैव विविधता संसाधनों को नष्ट कर दिया था, तो अब आयुर्वेदिक और अन्य हर्बल दवाओं का विपणन करने वाले कॉर्पोरेट फार्मास्युटिकल व नॉन-टिम्बर वन उपज और वन-आधारित खाद्य उत्पादों का विपणन करने वाली कंपनियों ने जैव विविधता संसाधनों को लूटना शुरू कर दिया है। पश्चिम में एलोपैथिक दवाओं की सीमाएं और दुष्प्रभाव अधिक से अधिक लोगों को पारंपरिक भारतीय और चीनी दवाओं की ओर धकेल रहे हैं और पश्चिमी देशों में इन दवाओं का बाज़ार काफी बढ़ रहा है। विदेश मंत्रालय ने नई दिल्ली में विकासशील देशों के लिए अनुसंधान और सूचना प्रणाली (RIS) की स्थापना की है, और इस थिंक टैंक संस्थान ने भारतीय पारंपरिक चिकित्सा पर एक फोरम (FITM) लॉन्च किया है। प्रेस सूचना ब्यूरो की 21 मार्च 2023 की एक समाचार विज्ञप्ति में कहा गया है कि इस मंच द्वारा आयुष क्षेत्र पर एक शोध रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि वैश्विक बाज़ार में आयुष दवाओं के बाज़ार का आकार 18.1 बिलियन अमेरिकी डॉलर है। अजीब बात है कि उनका नया संशोधन विधेयक आयुष दवाओं (जैसे आयुर्वेद, सिद्ध और यूनानी और अन्य पारंपरिक भारतीय चिकित्सा किस्मों) को भी 2002 के अधिनियम के दायरे से बाहर रखता है।
विडंबना यह है कि आयुष के तहत पारंपरिक भारतीय चिकित्सा प्रणालियों को बढ़ावा देने के नाम पर, जो लोग राष्ट्रवादी होने का दावा करते हैं, वे आयुष और भारतीय जैव विविधता संसाधनों पर कॉर्पोरेट कब्जे को बढ़ावा दे रहे हैं। 'व्यापार करने में आसानी' के नाम पर, हाल ही में संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित यह जैव विविधता (संशोधन) विधेयक, केवल विदेशी हिस्सेदारी वाले कॉर्पोरेट घरानों द्वारा जैव विविधता संसाधनों के 'दोहन में आसानी' की सुविधा प्रदान करता है।
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