भारत में नौकरी संकट जितना दिखता है उससे अधिक भयावह है!

रेलवे भर्ती बोर्ड परीक्षाओं को लेकर पूरे बिहार और उत्तर प्रदेश में हाल ही में छात्रों का विरोध प्रदर्शन भारत में बढ़ते नौकरी संकट का एक लक्षण है, जो जितना दिखने में आ रहा है उससे कहीं अधिक गंभीर है। इसे सिर्फ बिहार या यूपी की परिघटना के बतौर नहीं देखा जा सकता है। इसके बावजूद, ये दोनों राज्य एक पाठ्यपुस्तिका के समान उदाहरण पेश करते हैं कि कैसे सरकारी सेवाओं और विभिन्न भर्ती बोर्डों में चीजें गलत हो रही हैं, जिसके चलते युवाओं के बीच में भारी गुस्सा है। सबसे ज्यादा अचंभे की बात यह है कि इस मुद्दे को हल करने के मामले को लेकर सरकार पूरी तरह से उदासीन नजर आ रही हैं ।
आइये समझते हैं कि मूल समस्या कहाँ पर है। बिहार को एक उदाहरण के तौर पर लें, जिससे कि आप बेहतर तरीके से समझ सकते हैं कि रोजगार का गंभीर संकट क्यों बना हुआ है। कुछ बेहद कठोर और स्पष्ट आंकड़े हैं – आरआरबी द्वारा विज्ञापित ग्रुप सी की सेवाओं के लिए 35,000 से अधिक पदों के लिए 1.25 करोड़ अभ्यर्थियों ने आवेदन किया था। राज्य सरकार के मोटे अनुमानों से पता चलता है कि इनमें से अधिकांश आवेदक यूपी और बिहार से हैं। रेलवे के लिए ऐसी दीवानगी की क्या बताती है?
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इसका उत्तर यह है कि बिहार में उद्योग ना के बराबर हैं, और इसके परिणामस्वरूप यहाँ पर निजी क्षेत्र में नौकरियां ही नहीं हैं। ऐसे में शिक्षित युवाओं के पास आजीविका के लिए क्या बचता है? स्वाभाविक तौर पर वे सरकारी नौकरियों के पीछे भागते हैं क्योंकि यहीं से उन्हें नौकरी की सुरक्षा और अच्छे वेतन की गारंटी संभव है। बिहार में बेरोजगारी का स्तर इतना अधिक है कि औसतन तकरीबन 20 लाख युवा हर साल रेलवे, बैंक एवं अन्य सरकारी नौकरियों के लिए आवेदन करते हैं।
रेलवे और बैंक देश के सबसे प्रमुख सार्वजनिक क्षेत्र के नौकरी प्रदाताओं में से हैं, जिनमें बिहार से कई लोगों को स्थान प्राप्त होता है। रेलवे में नए कर्मचारियों के लिए ग्रुप डी से लेकर ग्रुप ए की तनख्वाह 17,000 रूपये प्रतिमाह से लेकर 50,000 रूपये प्रतिमाह तक है, और यह राशि उनके कैरियर में पदोन्नति के साथ बढ़ती जाती है। कल्पना कीजिये किसी व्यक्ति को छोटे-मोटे काम से प्रति माह 4000 रूपये की कमाई हो पाती है, उसके लिए रेलवे में ग्रुप डी की नौकरी से 17,000 रूपये से अधिक की कमाई करना कितना मायने रखता होगा। यही वजह है जिसके चलते हमें बिहार और यूपी की सड़कों पर हंगामा देखने को मिल रहा है।
बिहार में 18-23 वर्ष की आयु के बीच में लगभग 1.25 करोड़ लोग हैं, जिन्हें कॉलेज जाना चाहिए। लेकिन इनमें से 50 लाख कक्षा 10 पास होंगे, तकरीबन 35 लाख कक्षा 12 पास होंगे और सिर्फ 25 लाख या उसके आसपास स्नातक होंगे। बड़ी संख्या में स्कूली शिक्षा छोड़ने वाले भी बेरोजगार युवाओं का एक बड़ा हिस्सा निर्मित करते हैं। ऐसे में जो शिक्षित हैं उनके पास रोजगार के नाम पर ले-देकर एकमात्र साधन बचता है और वह है सरकारी नौकरी का।
सामान्य तथ्य यह है कि ये इच्छुक छात्र सरकारी नौकरियों की आस में रहते हैं, लेकिन बढ़ते निजीकरण, डिजिटलीकरण एवं ऑटोमेशन के चलते सरकारी नौकरियों की संख्या में लगातार कमी होती जा रही है। संघ लोक सेवा आयोग या यूपीएससी, जो सिर्फ अभिजात्य नौकरियों की ही पेशकश करता है, में भी रिक्तियों में कमी देखी जा रही है। पिछले साल लोकसभा में सरकार की ओर से दिए गए जवाब के मुताबिक यूपीएससी की नौकरियों में लगभग 30% की गिरावट दर्ज की गई है। मैंने डीओपीटी (कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग) के एक अधिकारी से इस बारे में बात की, जिन्होंने नाम गुप्त रखे जाने की शर्त पर बताया कि किसी भी भर्ती या रिक्तियों को निर्धारित करने में एक महत्वपूर्ण कारक कैडर प्रबंधन है। सरकार को अपने नवनियुक्त रंगरूटों के कैरियर की प्रगति को ध्यान में रखना पड़ता है, और यही कारण है कि नई भर्तियों में गिरावट का रुझान बना हुआ है।
यूपीएससी के अलावा कई अन्य भर्ती बोर्ड मौजूद हैं। कर्मचारी चयन आयोग या एसएससी का मामला तो और भी बदतर है। 2013 में एसएससी में 20,000 रिक्तियां थीं, जो 2018 में घटकर 12,000 रह गईं और वर्तमान में सिर्फ 8000-9000 रिक्तियां ही रह गई हैं। संदेहास्पद प्रशासनिक प्रक्रिया, परीक्षाओं के आयोजन में ईमानदारी की कमी, और नौकरियों को सृजित कर पाने में सरकार की अक्षमता की वजह से छात्रों को अपनी आवाज को बुलंद करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। आरआरबी एनटीपीसी परीक्षाओं में अनियमितता की बात तो वस्तुतः आटे में नमक बराबर ही है।
आरआरबी एनटीपीसी परीक्षा में भाग लेने वाले छात्रों की चिंताओं की जांच करने के लिए एक कमेटी का गठन किया गया है, लेकिन सरकार को पहले से ही समस्या के बारे में सारी जानकारी है। विधानसभा चुनावों से ठीक पहले एक कमेटी का गठन सिर्फ संकट को टालने के लिए समय काटने की रणनीति से अधिक कुछ नहीं है। क्या सरकार वास्तव में लाखों विद्यार्थियों की समस्याओं के समाधान को लेकर गंभीर है? शायद नहीं। यदि वह वास्तव में गंभीर होती तो इसके लिए एक समयबद्ध प्रक्रिया होनी चाहिए थी जिसका पालन आसानी से किया जा सकता था।
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) के हालिया आंकड़ों से पता चलता है कि बेरोजगारी की दर 8% तक पहुँच गई है, जो साफ़-साफ़ इस बात को दर्शाता है कि सरकार नौकरियों को सृजित कर पाने में नाकाम साबित हुई है। इतना ही नहीं बल्कि इस प्रक्रिया के साथ-साथ रिक्तियों का आकार भी कम किया जा रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि राष्ट्रव्यापी आंदोलन के रूप में एक ज्वालामुखी बस कभी भी फूटने की कगार पर है, और यदि ऐसा होता है तो यह नरेंद्र मोदी सरकार के तख्त के लिए सबसे बड़ा काँटा साबित हो सकता है।
(लेखिका दिल्ली स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं। व्यक्त किये गए विचार व्यक्तिगत हैं। )
अंग्रेजी में प्रकाशित इस आलेख को पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें:-
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