चुनावी घोषणापत्र: न जनता गंभीरता से लेती है, न राजनीतिक पार्टियां

अभी दो बरस भी नहीं बीते हैं इस बात को जब भाजपा से नाराज़ मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने पार्टी दफ्तर में भाजपा का 2014 के लोकसभा चुनाव का घोषणा पत्र जला दिया था। मामला था दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने का। केजरीवाल को इस विरोध का अधिकार मिला था भाजपा के मेनिफेस्टो से। वही मेनिफेस्टो जिसके तहत चुनाव से पहले दिल्ली वासियों को ये विश्वास दिलाया गया था कि केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद केंद्र सरकार से निवेदन करके दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाया जायेगा।
घोषणापत्र सत्ताधारी पार्टी का प्रश्नपत्र होता है और सत्ताकाल उसका परीक्षाकाल। इस दस्तावेज़ के ज़रिए पार्टी अपनी ओर से जनता को दी जाने वाली सुविधाओं का जिक्र करती है और जनता उनके आधार पर चुनाव करती है। जबकि ज़मीनी हकीकत बिल्कुल इसके उलट है। आज की तारीख में या कहा जाये कि यहाँ की पृष्ठभूमि में जनता और घोषणापत्र के बीच आशिक और माशूक का वही रिश्ता है, जहां मोहब्बत में चाँद तारे तोड़ने के वादे तो होते है मगर रिश्ता होने के बाद चैप्टर बंद हो जाता है।
चुनाव आयोग द्वारा लोकसभा और विधानसभा के चुनाव संचालन का अधिकार संविधान देता है। इसका ज़िक्र संविधान के आर्टिकल 324 के तहत किया गया है। चुनाव आयोग पार्टियों और उम्मीदवारों से सम्बंधित नियमों का निर्धारण करता है। इन निर्धारित नियमों के आधार पर ही चुनाव लड़े जा सकते हैं। इसके अंतर्गत हर पार्टी के लिए नियम होते हैं। पार्टी इन नियमों के आधार पर चुनाव प्रचार करती है। यहाँ ख़ास बात ये है कि घोषणा पत्र को लेकर भी कई प्रकार के नियम हैं।
चुनाव आयोग के अनुसार दिशा-निर्देशों के मुताबिक़ राजनीतिक पार्टियों को इस तरह के वादे नहीं करने होंगे, जिनसे चुनाव प्रक्रिया के आदर्शों पर कोई प्रभाव पड़े अथवा उससे किसी भी वोटर के मताधिकार पर किसी तरह का असर पड़ने का अंदेशा हो।
चुनाव की ये प्रकिया अगर आदर्श रूप में देखी जाए तो एक शालीन माहौल के साथ चुनाव संपन्न कराने का खाका प्रस्तुत करती है। इस तरह के चुनाव संचालन में मतदान से पूर्व प्रत्येक पार्टी को केवल इतना करना होगा कि अपना मेनिफेस्टो तैयार कराये और मीडिया, डाक या किसी भी उचित माध्यम से मतदाता तक इसे पहुंचा दे। प्रत्येक मतदाता हर पार्टी का चुनाव घोषणापत्र अच्छी तरह से देखने के बाद विचार विमर्श के आधार पर उस पार्टी को अपना मत दे जिसे वह मुनासिब समझे।
इन सबके विपरीत यहाँ का चुनावी परिदृश्य चुनाव करीब आते-आते चीख पुकार और नौटंकी का रूप लेने लगता है। एक से एक लुभावने तरीकों से मतदाताओं को रिझाने के हथकंडे उन्हें सीधे और सरल तरीके से दूर करते जाते हैं। प्रचार का शोर पार्टी के मेनिफेस्टो की पड़ताल और उसपर विमर्श के माहौल को भटकाने का काम करता है। अपने अधिकार से बेखबर जनमानस महज़ वोट डालना ही अपना कर्तव्य समझते हुए अपना फ़र्ज़ पूरा करता है और खुद को एक ज़िम्मेदार नागरिक की कतार में महसूस करता है। जबकि जनतंत्र का जन ये भूल जाता है कि उसकी असली ड्यूटी तो वोट डालने के बाद शुरू होती है।
यानी सरल शब्दों में कहें तो मेनिफेस्टो ही वह टूल है जो पार्टी को जनता की कचहरी में घसीटता है। जहां सही मायनों में पार्टी और पार्टी का नेता जनता का जवाबदेह होता है। मगर यही बेख़बरी एक लोकतंत्र को राजशाही में बदल देती है। एक सौ तीस करोड़ आबादी वाले लोकतंत्र में इसी मेनिफेस्टो से बाख़बर जिस जनता को हर लम्हा पार्टी को अपनी अदालत में खड़ा करना चाहिए, उसी मेनिफेस्टो से बेखबर लोग इन पार्टियों के रहमो करम पर होते हैं। मेनिफेस्टो से ये बेख़बरी इन्हे न सिर्फ इनके हक़ से महरूम करती है बल्कि इस हक़ को भीख की तरह जब इनकी झोली में डाला जाता है तो उसी पार्टी का गुणगान और बखान जनता को अपना फ़र्ज़ नज़र आता है।
जिस मेनिफेस्टो की बदौलत प्रत्येक नागरिक को सत्ता से सवाल करने का अधिकार है और जिसपर सत्ता जवाबदेह है, आज उसी मेनिफेस्टो का ज़िक्र बस खानापूरी भर रह गया है। जनता तो दूर जर्नलिस्ट भी अब इस ज़िम्मेदारी से पूरी तरह किनाराकशी कर चुके हैं। जिस व्यवस्था में सत्ता से अनगिनत सवाल पूछे जाने चाहिए ,वहां किसी प्रदेश का मुख्यमंत्री अगर अपने इस अधिकार का उपयोग करता है तो उसकी ये हरकत खबर बन जाती है। ये वो हरकत है जिसे खबर नहीं रूटीन होना चाहिए।
क्यों नहीं इस वारदात की मिसाल देते हुए कोई भी पार्टी अपना प्रचार करते वक़्त ये कहती है कि अगर हम अपने वादे पर पूरे नहीं उतरते तो आप भी आंदोलन कीजिये और अपना हक़ हासिल कीजिए। कुछ गुड़ ढीला और कुछ बनिया की तर्ज़ से होते हुए आज की डेमोक्रेसी ऐसी स्टेज पर आ चुकी है जहाँ लोगों ने अपने हर अधिकार से समझौता कर लिया है। सत्ताधारी पार्टी के मेनिफेस्टो में स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाएँ थीं या नहीं इस बात से बेखबर लोगों के कोविड वाले हालात बीते अभी ज़्यादा दिन नहीं गुज़रे हैं। महामारी की दूसरी लहर में जब त्राहिमाम के हालात थे उस समय लोगों ने अपनी मांगे सोशल मीडिया पर भेजीं और सोशल मीडिया पर ही तमाम लोगों ने एनजीओ, व्यक्तिगत या अपने रसूख के दम पर जितना मुमकिन हुआ उसे मुहैया कराया। इस पूरे प्रकरण में कहीं भी सत्ता या सत्तारूढ़ पार्टी बीच में आयी ही नहीं, न ही बाद में किसी ने अपने इन अधिकारों का जवाब माँगा। इन सबका नतीजा ये हुआ कि जनता ने जनता से गुहार लगा कर अपने दुखों का निपटारा कर लिया और सत्तारूढ़ पार्टियों को क्लीनचिट मिल गई।
आखिर क्या कारण है कि चुनाव से पहले छपने वाले ये घोषणापत्र आम नागरिक को ये बताने से चूक जाते हैं कि वादा खिलाफी की दशा में आप हमारा गिरेबान पकड़ने के हक़दार हैं। या वो कौन सी मजबूरियां है जिनकी बदौलत जनता लोकतंत्र के बेहद अहम टूल मेनिफेस्टो से बेखबर बनी हुई है। जबकि नियमों के मुताबिक़ घोषणा पत्र अधिकार देता है कि वादे को पूरा करने के लिए आवश्यक वित्त की पूर्ति करने के साधनों को लेकर जानकारी दी जानी चाहिए। साथ ही ये भी स्पष्ट करता है कि मतदाता का विश्वास केवल उन्हीं वादों पर मांगा जाना चाहिए जो कि पूरे किए जाने संभव हों। इतना ही नहीं, किए गए वादों के पीछे कोई तर्क या आधार भी होना चाहिए।
मेनिफेस्टो से बेखबरी की भारी कीमत एक लोकतंत्र को चुकानी पड़ती है। ये बेखबरी नागरिक को उसके अधिकार से दूर करते हुए लोकतंत्र को खोखला कर जाती है। इसमे कोई शक नहीं कि मौजूदा हालात मेनिफेस्टो से बेखबरी का नतीजा हैं।
(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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