कोरोना महामारी और महिलाओं पर बढ़ती घरेलू हिंसा

"यह याद रखा जाएगा कि उन देशों के पास परमाणु व अन्य विनाशकारी अस्त्र तो थे जो सारी दुनिया को अनेकों बार नष्ट करने की क्षमता रखते थे। परन्तु जब घातक महामारी ने दस्तक दी तो उन्हीं देशों के पास वैंटिलेटर, दवाइयां, डॉक्टर व अस्पताल नहीं थे। " -कीर्ति सिंह
तालाबंदी के दौरान महिलाओं के प्रति घरेलू हिंसा को लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ तक को चिंता व्यक्त करनी पड़ी है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेज ने दुनियाभर की सरकारों से अपील की है कि कोरोना वायरस वैश्विक महामारी से निपटने की कार्रवाई में घरों में महिलाओं की रक्षा को भी सरकारें प्राथमिकता पर लें। उन्होंने कहा कि लॉकडाउन के दौरान महिलाओं और लड़कियों के लिए वहीं पर सबसे ज्यादा ख़तरा है जहां उन्हें सबसे सुरक्षित होना चाहिए यानी उनके अपने घरों में। गुटेरेज ने यह भी कहा कि पिछले कुछ सप्ताह में आर्थिक व सामाजिक दबावों के अभूतपूर्व स्तर तक बढ़ने से तमाम तरह की कठिनाई बढ़ी हैं। ऐसे में घरेलू हिंसा में वैश्विक स्तर पर ही खतरनाक बढ़ोत्तरी नोट की गई है। अतः उन्होंने सभी सरकारों से कोविड -19 के खिलाफ राष्ट्रीय कार्यवाही योजनाओं में महिलाओं की सुरक्षा योजनाओं का अहम हिस्सा बनाने का आग्रह किया है। इसके साथ ही उन्होंने विश्व भर के परिवारों के भीतर अतिरिक्त सद्भावना व संवेदनशीलता की भी अपील की है।
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संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रकट की गई यह चिंता निश्चित रूप से सराहनीय व समयोचित है। क्योंकि हम लोग व हमारी संस्था "हिम्मत" जो महिलाओं के लिए काम करते हैं उनके सामने आए दिन महिलाओं की ओर से घरेलू हिंसा की घटनाओं के अनेकों मामले आ रहे हैं। राष्ट्रीय स्तर की सरकारी हैल्पलाइन पर भी तालाबंदी के पहले 11 दिन में ही बच्चों व महिलाओं के साथ हिंसा की 92,000 शिकायतें दर्ज हो चुकी थी। हरियाणा में तो स्वयं सिरसा की सीजेएम तक की पति द्वारा पिटाई की घटना मीडिया में सुर्खियां बन चुकी है।
महिलाओं की मदद करने वाले पुलिस के अलावा प्रशासनिक ढांचे कमोबेश काम नहीं कर रहे हैं और इस हालात में वे एकदम पुलिस के पास अपना मसला ले जाना भी नहीं चाहती। ऐसे में न केवल उनके बल्कि उनके परिवारों व बच्चों के लिए भी यह एक तरह से भारी यंत्रणा का समय चल रहा है। दूर-दूर से रिश्तेदार गहरी चिंता के साथ हमें फोन करते हैं। हम भी हाथ पैर मारते हैं। परंतु जब तक सरकारें इस पहलू को संबोधित करने को आगे नहीं आएंगी, तब तक ये परिवार, खास तौर पर महिलाएं व बच्चे अनेक तरह की यंत्रणा से गुजरते हुए कोरोना के लिए भी आसान शिकार बनने के खतरे में हैं।
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न केवल वो परिवार बल्कि अड़ोसी -पड़ोसी भी महिला की चीख-पुकार सुनाई दे तो सोशल आइसोलेशन को छोड़ इंसानी फर्ज के तहत भागदौड़ कर इकट्ठे होते हैं। प्रशासन को फोन लगाते हैं जो इस समय पर ये काम नहीं कर रहे। फिर स्वयं ही कुछ न कुछ रास्ता निकालने को मजबूर होते हैं। जाहिर है उनकी भी बेचैनी व बीमारी के लिए संवेदनशीलता बढ़ती है।
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इस समस्या को बड़े फ़लक पर देखने की कोशिश करें तो हैरानी होती है कि बिल्कुल हमारे स्थानीय मोहल्ला स्तर पर घट रही घटनाओं और वैश्विक स्तर के रुझानों में कैसी एकरूपता बढ़ती जा रही है। चाहे यह बीमारी हो, हिंसा हो या बेरोज़गारी व अमीरी-गरीबी के सवाल।
वैश्वीकरण के दौर में कोरोना की महामारी ने जहां एक तरफ घटनाओं के अंतरराष्ट्रीय सूत्रों के बढ़ते महत्व को उजागर किया है, वहीं दूसरी तरफ वैश्विक स्वास्थ्य सेवाओं की लचर अवस्था को भी डरावने तरीके से बेपर्दा किया है। अमेरिका जो स्वयं को दुनिया में मानव अधिकारों का ठेकेदार मानता है मात्र तीन दिन में उनका स्वास्थ्य ढांचा चरमराने की स्थिति में पहुँच गया। वहीं चीन जहाँ से यह बीमारी शुरू हुई थी वो स्वास्थ्य के क्षेत्र में कुछ चमत्कारिक करने का श्रेय हासिल करता नजर आ रहा है।
बहरहाल मीडिया की खबरों के आधार पर अगर कोई देखना चाहे तो यह तथ्य भी बार-बार सामने आ रहा है कि दुनिया में जो जितना सामाजिक-आर्थिक स्तर पर कमजोर है वह इस समय उतनी ही भारी क़ीमत अदा करने को अभिशप्त है। लेकिन इसके यह मायने कतई नहीं हैं कि जब गरीब भुगतेगा तो अमीरों को आंच नहीं आएगी। महामारी ने सभी के जीवन को घरों की नीरस चार दीवारों के अंदर बंद कर दिया है। इस स्थिति में कहीं ना कहीं अपने विकास- मॉडलों पर पुनर्विचार करने की मांग भी इस परिदृश्य में छुपी हुई है।
खैर, फिलहाल महिलाओं पर बढ़ती घरेलू हिंसा को समझने व उसके फौरी व दूरगामी प्रभाव और उनके निवारण पर चर्चा आगे बढ़ाते हैं। यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि दुश्वारियों व दबावों के समय में पैदा होने वाला तनाव व एंग्जाइटी हमेशा ही तुलनात्मक दृष्टि से कमजोरों की पीठ पर जाकर पड़ता है। यदि घरों के संदर्भ में देखें तो वहां पर महिलाएं व बच्चे इस श्रेणी में आते हैं। क्योंकि पितृसत्तात्मक समाजों में संबंधों व भावनाओं की संरचना में गैर बराबरी बध्दमूल है। इसका स्वाभाविकरण, सामान्यीकरण व व्यापक स्वीकार्यता भी है। आज जब पूरे के पूरे परिवार व समाज एक अभूतपूर्व व अकल्पनीय स्थिति से गुजर रहे हैं तो हर एक को कम ज्यादा अनिश्चितता, असुरक्षा, शंका, आशंका और भ्रांतियों ने घेर रखा है। अभिव्यक्ति की जगह मिल नहीं रही। तो जाहिर है किसी पर तो यह अदृश्य बोझ जाने अनजाने शिफ्ट होना लाजमी है। जैसा कि आमतौर पर होता भी है। घरों में कोई भी घटना यदि इच्छा अनुसार रूप नहीं ले रही है तो इसकी जिम्मेवारी महिला पर डाल दी जाती है। इस मामले में भी इसके अन्देशे को नकारा नहीं जा सकता।
इस समय सबसे ज्यादा हिंसा के लिए संवेदनशील तबका उन गरीब प्रवासी महिलाओं का है जो अपने ठिकानों से दूर कहीं कैंप में, कहीं अस्थाई आश्रय स्थल, स्टेडियम, ,स्कूल , कॉलेज आदि में रहने को मजबूर हैं। अन्यथा भी हमारे देश की 70% आबादी दो कमरों के मकानों या झुग्गी झोपड़ी में ही गुजारा करती है। इसमें सोशल आइसोलेशन अपनी जगह, परन्तु जब सारा दिन इक्कठे रहना है तो रिश्तों की गठीली जगहों के सामने आने की सम्भावना भी बनी ही रहती है।
पहले समाज के किसी तबके पर कोई अनहोनी आती थी तो कोई दूसरा तबका उससे लाभान्वित होने वाला भी होता था। इस महामारी में किसी को अपने कल का भरोसा नहीं है। मध्यमवर्ग जो आमतौर पर सेफ -जोन में स्वयं को पाता था आज उनमें भी कहीं बच्चा विदेश में बैठा है, कहीं काम का भरोसा नहीं रहा और कहीं वेतन कटौती है। कहीं बच्चों का रोजगार दांव पर है तो कहीं स्वयं का, यह सारी अनिश्चितताएं हैं। उन्हें भी अनेकों चिन्ताएँ घेरे हुए हैं। दूसरी तरफ महिलाओं पर घरेलू कार्यों का बोझ इस दौरान बढ़ा है। हमारी पारिवारिक संस्कृति में आम तौर पर पति तो परमेश्वर हैं उन्हें काम बताएं कैसे। जिन्हें काम वाली कहते हैं वो आ नहीं रही। बच्चों में भी कुछ उदारता पैदा होने के बावजूद मां के श्रम की अनदेखी का रुझान अभी भी हावी है। अत: यहां मैहरी सिंड्रोम ज्यादा परेशानी पैदा करता है खाना पकाना, कपड़े धोना, बर्तन सफाई सभी की देखभाल करना। यह उन महिलाओं की कमर को दोहरा कर रहा है तो इस स्थिति का रिश्तों में भी असर आना तो स्वाभाविक है।
एक तरफ जहां काम की मारी महिलाएं हैं वहीं दूसरी तरफ टाइम पास न होने की समस्या वाले मर्द भी हैं। उनकी कामेच्छाएं भी इस दौरान बढ़ती ही नजर आती है। तो यौन हिंसा के लिए और खासतौर पर बच्चों के साथ होने वाली यौन हिंसा की घटनाओं की स्पेस भी बढ़ी हुई है। पहले परिवारों में आवागमन लगा रहता था जो मारपीट, हिंसा की घटनाओं पर एक तरह का अंकुश लगाता था। अब वह भी बन्द है।
सो, जो जहां मजबूत है हाथ चलाने में स्वयं को निरंकुश महसूस कर रहा है। दारू पीने वाले पीने की आड़ में और भी ज्यादा ऐसा करते हैं। मानसिक रोग के शिकारों की भी ज्यादा हिंसक होने की घटनाएं काफी सामने आ रही हैं। वहीं किशोर व युवा लडकियाँ साइबर क्राइम का दंश झेल रही हैं।
इस पूरी परिस्थिति से निपटने में अभिभावक समुदाय, प्रशासन, सरकार की अपनी-अपनी भूमिका बनती है। परंतु कोरोना के संदर्भ में सोशल -आइसोलेशन के चलते प्रशासन व सरकार को ही अहम भूमिका निभानी होगी। उसके सभी ढांचे चुस्ती -दुरुस्ती से कार्य करें यह सुनिश्चित करना होगा। सामाजिक व महिला संगठनों से भी तालमेल बनाकर चलना होगा। सबसे जरूरी है तुरंत घरेलू हिंसा विरोधी हेल्पलाइन का शुरू होना व अन्य हेल्पलाइनों द्वारा अपना काम निपुणता से करना । उनका नेटवर्क और भी ज्यादा बढ़ाए जाने की ज़रूरत है।
इसके साथ इस समस्या का एक पहलू तमाम राहत कार्यों के दक्षता से निपटाने व अंजाम दिए जाने से भी जुड़ता है। क्योंकि अगर वे ऐजेंसी सही तरीके से काम करती हैं तो नागरिकों को भरोसा रहेगा कि हम सामूहिक रूप से इस महामारी से विजय हासिल कर सकते हैं। ये उनके अनावश्यक तनाव को कम करने में बड़ी मदद करेगा। बाकी तो इस तात्कालिकता के दबाव में हम अपने दीर्घकालिक उपायों व विजन को क्षणिक भी आंखों से ओझल ना होने दें। अपने अपने मोर्चों पर मजबूती से तैनात रहें। इसी से महामारी व हिंसा से निपटने में कामयाबी मिलेगी।
(जगमति सांगवान एक महिला एक्टिविस्ट और समाज सेवी हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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