चीन-अमेरिका व्यापार युद्ध: चिप से लेकर रेयर अर्थ तक

दुनिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बीच डिकप्लिंग (decoupling) यानी आर्थिक अलगाव की रफ्तार अब तेज़ हो गई है। अमेरिका, जिसने पहले चीन के साथ टैरिफ (tariff) युद्ध में एक तरह की “संधि” बना ली थी, ने 29 सितंबर 2025 को एक नया नोटिफिकेशन जारी कर चीन के सेमीकंडक्टर (semiconductor) उद्योग पर एक्सपोर्ट कंट्रोल्स (export controls) और कड़े कर दिए। इस आदेश का नाम है — “Expansion of End-User Controls To Cover Affiliates of Certain Listed Entities”।
इसके जवाब में चीन ने रेयर अर्थ (rare earths) पर पलटवार किया — उसने भी अपने रेयर अर्थ एक्सपोर्ट पर नए एंड यूज़र रूल्स (end-user rules) लागू कर दिए, जिससे अमेरिका की कई अहम इंडस्ट्री — डिफेंस, एयरोस्पेस और शिपबिल्डिंग — प्रभावित होंगी। अमेरिका ने इसका जवाब और सख़्त दिया — चीन से आने वाले सभी सामान पर 100 प्रतिशत टैरिफ लगाकर अपने बाज़ार से चीनी उत्पादों को लगभग बाहर कर दिया। इस तरह दोनों अर्थव्यवस्थाएं अब व्यावहारिक तौर पर अलग हो गई हैं।
रेयर अर्थ मिनरल्स (rare earth minerals) का इस्तेमाल नागरिक और सैन्य दोनों क्षेत्रों में होता है — इलेक्ट्रिक मोटर्स, विंड टर्बाइन्स, मोबाइल फोन्स, और मिसाइलों से लेकर फाइटर जेट तक। उदाहरण के लिए, अमेरिका अपने F-35 फाइटर जेट, पनडुब्बियों, ड्रोन और स्मार्ट बमों में इन्हें बड़े पैमाने पर इस्तेमाल करता है।
डोनाल्ड ट्रंप ने चीन के इस फैसले को “पूरी दुनिया पर युद्ध” कहा है, लेकिन यह वही अमेरिका है जो कई देशों — भारत सहित — पर अपने घरेलू कानूनों के तहत एक्स्ट्रा-टेरेटोरियल सैंक्शंस (extraterritorial sanctions) लागू करता रहा है। उदाहरण के लिए, रूस से तेल खरीदने पर अमेरिका और NATO देशों की पाबंदियां भारत पर भी लागू की गईं, जबकि भारत ने किसी अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन नहीं किया था।
इसी तरह अमेरिका और कुछ यूरोपीय देशों ने रूस की तथाकथित shadow fleet पर “प्रतिबंध” लगाया — यानी ऐसे जहाज़ जो पश्चिमी बीमा कंपनियों के कवर में नहीं आते।
हालांकि इस ट्रेड वॉर (trade war) की शुरुआत ट्रंप के पहले कार्यकाल में हुई थी, लेकिन जो बाइडन (2022 में) ने इसे और बढ़ाया। अमेरिका की चिप वॉर (chip war) का निशाना मुख्यतः चीन था, पर उसने इसका दायरा अपने सहयोगी देशों — नीदरलैंड, ताइवान, दक्षिण कोरिया और जापान — तक बढ़ा दिया।
सबसे अहम मामला नीदरलैंड की कंपनी ASML का था, जिसके पास दुनिया की सबसे एडवांस EUV (EUV – Extreme Ultraviolet) लिथोग्राफी मशीन का लगभग मोनोपॉली है। यही मशीन 5 नैनोमीटर या उससे छोटे चिप बनाती है।
अमेरिका ने कहा कि उसकी घरेलू export laws के तहत कोई भी विदेशी कंपनी जो अपने निर्माण में अमेरिकी तकनीक का इस्तेमाल करती है, वह भी US export control laws के दायरे में आती है। चूंकि ASML के लेज़र अमेरिकी तकनीक से विकसित हैं, इसलिए वह भी अमेरिकी कानूनों के अधीन है।
2018 में Huawei की वाइस प्रेसिडेंट मेंग वानझोउ (Meng Wanzhou) की कनाडा (Vancouver) में गिरफ्तारी भी इसी कानूनी दावे का हिस्सा थी — अमेरिका ने आरोप लगाया था कि Huawei ने ईरान को उपकरण बेचकर अमेरिकी एक्सपोर्ट कंट्रोल लॉ का उल्लंघन किया, जबकि न Huawei अमेरिकी कंपनी थी न ईरान अमेरिकी जुरिस्डिक्शन में था।
अमेरिका का तर्क था कि उसका कानून दुनिया में कहीं भी लागू हो सकता है अगर उसका “राष्ट्रीय हित” प्रभावित होता है — ऐसा ही उसने पहले पनामा (Panama) के पूर्व शासक मैनुअल नोरिएगा के साथ भी किया था।
2024 में जाते-जाते बाइडन प्रशासन ने चीन पर नई सैंक्शंस लगाईं। अमेरिकी वाणिज्य सचिव जीना रेमोंडो (Gina Raimondo) ने Financial Times को बताया कि इन पाबंदियों का मकसद चीन की सेना के आधुनिकीकरण के लिए इस्तेमाल होने वाले एडवांस चिप निर्माण की क्षमता को “कमज़ोर करना” है।
वास्तविकता यह है कि सबसे एडवांस चिप्स मुख्यतः iPhone, PC और AI जैसे वाणिज्यिक उत्पादों में इस्तेमाल होते हैं, न कि सैन्य प्रयोजनों में।
अमेरिका के इन क़दमों की असली विशेषता है उनकी एक्स्ट्रा-टेरेटोरियलिटी (extraterritoriality) — यानी अमेरिकी कानून उन कंपनियों और व्यक्तियों पर भी लागू होते हैं जो अमेरिकी टेक्नोलॉजी का किसी भी रूप में उपयोग करते हैं, चाहे वे किसी भी देश में क्यों न हों।
US Export Control Laws का दायरा इतना बढ़ा दिया गया है कि अब यह तय करने में देश की सीमाएं मायने नहीं रखतीं। अगर कोई वस्तु अमेरिकी उत्पाद, उपकरण या सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल करके बनी है, तो वह वस्तु अमेरिकी कानूनों के अधीन होगी।
ट्रंप का यह कहना कि चीन ने अब पूरी दुनिया पर “नया युद्ध” छेड़ दिया है, विडंबनापूर्ण है — क्योंकि चीन तो बस वही कर रहा है जो अमेरिका लंबे समय से करता आया है।
भारत को भी इस तरह की पाबंदियों का अनुभव रहा है। शीत युद्ध (Cold War) के दौर में COCOM (Coordinating Committee for Multilateral Export Control) नामक व्यवस्था थी, जिसका घोषित उद्देश्य था पश्चिमी देशों की तकनीकी बढ़त बनाए रखना और भारत जैसे स्वतंत्र खिलाड़ियों के उभरने को रोकना।
COCOM के तहत न केवल परमाणु तकनीक बल्कि उच्च स्तरीय मशीन टूल्स, हीट एक्सचेंजर, और कंप्यूटर तक पर रोक थी। भारत के BARC (भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर) और फर्टिलाइज़र प्लांट्स तक को तकनीकी प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा, क्योंकि वही उपकरण हैवी वॉटर प्रोडक्शन में भी काम आ सकते थे।
इसी तरह अमेरिका ने भारत के स्पेस प्रोग्राम के लिए आवश्यक लिक्विड फ्यूल रॉकेट्स और हाई-एंड कंप्यूटरों पर भी बैन लगाया। यहां तक कि जापान की Toshiba पर भी सोवियत संघ को मशीन बेचने के कारण US laws के तहत कार्रवाई हुई।
अब चीन ने उसी तर्ज़ पर रेयर अर्थ एक्सपोर्ट कंट्रोल्स लागू किए हैं। CSIS (Centre for Strategic and International Studies) के मुताबिक, “चीनी वाणिज्य मंत्रालय की Announcement No. 61 of 2025 अब तक की सबसे सख्त रेयर अर्थ एक्सपोर्ट पॉलिसी है।”
लेखिका ग्रेसेलिन बास्करन (Gracelin Baskaran) के शब्दों में:
“इन नए नियमों के तहत चीन पहली बार Foreign Direct Product Rule (FDPR) का प्रयोग कर रहा है — ठीक वैसे ही जैसे अमेरिका ने 1959 से सेमीकंडक्टर एक्सपोर्ट पर किया था। अब विदेशी कंपनियों को चीनी सरकार की अनुमति लेनी होगी अगर वे ऐसे मैग्नेट एक्सपोर्ट करती हैं जिनमें चीनी रेयर अर्थ का कण भर भी शामिल हो, या जो चीनी तकनीक से बने हों।”
यानी चीन अब वही कर रहा है जो अमेरिका दशकों से करता आ रहा है — बस अब क्षेत्र सेमीकंडक्टर से रेयर अर्थ तक फैल गया है।
अब सवाल यह है कि चीन ने यह क़दम अभी क्यों उठाया? विशेषज्ञ मानते हैं कि चीन अब ASML के बराबर तो नहीं, पर उसके करीब तकनीक विकसित कर चुका है। साथ ही, DeepSeek जैसे चीनी AI मॉडल्स ने दिखाया है कि कम कंप्यूटिंग पावर में भी स्मार्ट एल्गोरिद्म से अमेरिका की बराबरी की जा सकती है।
इसके अलावा अगर कम क्षमता वाले ज़्यादा चिप्स का प्रयोग किया जाए तो परिणाम वही मिल सकते हैं, बस ऊर्जा की खपत थोड़ी अधिक होगी — और यहां चीन को फायदा है क्योंकि उसके पास सस्ती और विस्तृत बिजली इन्फ्रास्ट्रक्चर है, जिसमें रिन्यूएबल एनर्जी का बड़ा हिस्सा भी शामिल है।
यानी जहां अमेरिका तकनीकी दृष्टि से आगे है, वहीं चीन ऊर्जा लागत और स्मार्ट कंप्यूटिंग में अपनी बढ़त बनाए हुए है। शायद इसी विश्वास के साथ चीन ने अब रेयर अर्थ पर अपने नए नियंत्रण लगाकर अमेरिका को सीधी चुनौती दी है।
स्पष्ट है कि अमेरिका, उसके यूरोपीय सहयोगी और चीन के बीच यह टेक वॉर (Tech War) अब सिर्फ़ AI या चिप्स तक सीमित नहीं रही। यह लड़ाई अब पूरे तकनीकी ढांचे, ऊर्जा संसाधनों और वैश्विक सप्लाई चेन के विभाजन तक फैल चुकी है।
भविष्य में वैश्विक व्यापार कई खंडों में बंट सकता है। ग्लोबल सप्लाई चेन (global supply chains) पूरी तरह टूटेंगी नहीं, पर यह ज़रूर होगा कि दुनिया कई ब्लॉक्स में विभाजित हो जाएगी। भारत के लिए चुनौती यही है — कि वह शीत युद्ध की तरह फिर से एक संतुलित मिडल पाथ (middle path) निकाले।
मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित यह आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें–
China-US Trade War: From Chip to Rare Earths
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।