बड़ी ऑटो कम्पनियों का भारत छोड़ना मोदी के मेक-इन-इंडिया के लिए भारी धक्का

मेक-इन-इंडिया के अपने नारे के साथ, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विदेशी कम्पनियों के लिए ‘रेड कार्पेट’ बिछाने में जुटे हुए हैं, ताकि वे भारत में निवेश कर हमारे देश में उत्पादन शुरू करें। पर ऑटो उद्योग में काम कर रही बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियां भारत में अपना कारोबार बंद करके एक-के-बाद-एक भारत छोड़ रही हैं। एक भी बड़े ऑटोमोबाइल प्लांट का बंद होना किसी देश की अर्थव्यवस्था और सामाजिक जीवन में दुर्घटना बनकर उसे बुरी तरह हिला सकता है। भारत कोई अपवाद नहीं होगा, जबकि एक नहीं, बड़ी वैश्विक ऑटो कम्पनियों की एक श्रृंखला भारत में अपना कारोबार बंद करके भारत छोड़ रही है।
मोदी अपना सीना ठोंक रहे हैं कि भारतीय उद्योग पुनर्जीवित हो रहा है। वे दावा कर रहे हैं कि 2021 के अप्रैल-जून त्रैमास में 20.1 प्रतिशत विकास हुआ है, पर वे चालाकी से यह तथ्य छिपा लेते हैं कि यह विकास अप्रैल-जून 2020 के 24.4 प्रतिशत नकारात्मक विकास के बाद हुआ है। महामारी-पूर्व समय से तुलना की जाए तो रिकवरी काफी कम है। पर भारतीय उद्योग का जो प्रमुख हिस्सा है वह है ऑटोमोबाइल उद्योग, जिसपर बड़ी वैश्विक कम्पनियों का वर्चस्व है, और वह ताज़ा संकट में डूब रहा है।
9 सितम्बर 2021 को फोर्ड मोटर्स ने औपचारिक घोषणा की कि वह मोदी के अपने राज्य, गुजरात में 2021 के अन्त तक अपना साणंद प्लांट बंद करेंगे और चेन्नई प्लांट को 2022 के मध्य तक बंद कर देंगे।
दोनों प्लांट मिलाकर 4000 कर्मचारी तो प्रत्यक्ष रूप से नौकरी खो बैठेंगे।
रिपार्ट के अनुसार 150 फोर्ड डीलरों के 300 शोरूम और मेंटेनैन्स वर्कशॉपों में 40,000 कर्मचारी भी बेरोज़गार हो जाएंगे। केवल चेन्नई में फोर्ड मोटर्स की 100 से अधिक सहायक या ऐन्सिलियरी इकाइयों में 20,000 श्रमिक काम करते हैं। इनकी नौकरियां भी दांव पर लगी हैं।
बड़ी धूम-धाम के साथ मेक-इन-इंडिया की घोषणा के 6 वर्षों के अंदर फोर्ड छठी बड़ी ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री है जो बंद हो रही है।
* दूसरी अग्रणी बड़ी अमेरिकन ऑटो कम्पनी जनरल मोटर्स ने मोदी के गुजरात में हालोल वाले भारतीय प्लांट को 2017 में बंद किया था और तालेगांव, पुणे में अपने प्लांट को भी दिसम्बर 2020 में बंद करने की घोषणा की है। पर महाराष्ट्र सरकार ने बंदी के लिए अनुमति नहीं दी और 70 प्रतिशत से अधिक कर्मचारियों ने बंदी को सुगम बनाने के लिए दिये गए बढ़े वीआरएस पैकेज को स्वीकार नहीं किया। तो अब भी बंदी का मामला अधर में लटका हुआ है;
* प्रतिष्ठित अमेरिकी 2-व्हीलर कम्पनी हारली डेविडसन का बावल, हरियाणा में स्थित भारतीय प्लांट, जोकि अमेरिका से बाहर हारली डेविडसन का एकमात्र उद्योग था, और 2014 में चालू किया गया था, 2020 में बंद हो गया;
* जमर्न ऑटी कम्पनी वोक्सवैगन की सब्सिडियरी मैन ट्रक्स ने पीथमपुर, मध्य प्रदेश में अपने प्लांट को 2018 में बंद कर दिया;
* स्वीडिश स्कानिया, वोक्सवैगन की एक और सब्सिडियरी को जून 2018 में नर्सापुरा, कोलार, बंगलुरु में अपने डिलक्स बस प्लांट को बंद करना पड़ा। यह तब हुआ जब बोफोर्स काण्ड की भांति भारतीय प्लांट के रिश्वत-संबंधी काले कारनामों का भंडाफोड़ स्वीडेन की मीडिया में हुआ। आरोप है कि स्कानिया के उच्च अधिकारियों ने ऑर्डर प्राप्त करने के लिए 6 राज्य सरकारों को रिश्वत दी थी। उन्होंने केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी को भी उनकी बेटी की शादी के लिए एक बस रिश्वत में दी थी।
* यूएम लोहिया का मोटरबाइक प्लांट, जो यूएसए के यूनाइटेड मोटर्स, यूएम और भारत के काशीपुर, यूपी स्थित लोहिया मोटर्स का संयुक्त उद्यम था। उसने जबकि कारोबार 2016 में आरंभ किया था, 2019 में ही बंद हो गया।
भारत में ऑटोमोबाइल उद्योग महामारी के पहले से ही संकट के दौर में प्रवेश कर चुका था और महामारी ने संकट का बढ़ा दिया। साधारण तौर पर हम इसे पूंजीवाद के ‘बूम-एण्ड-बस्ट’ वाले चक्रीय संकट के हिस्से के रूप में समझें, जो ऑटोमोबाइल क्षेत्र में प्रतिबिंबित हो रहा था। महामारी से पहले जो 2019 की आर्थिक मंदी आई थी, उसका प्रभाव ऑटोमोबाइल उद्योग में सबसे अधिक बुरा रहा।
दरअसल वैश्विक स्तर पर 1990 के दशक से ही ऑटोमोबाइल उद्योग में उथल-पुथल चल रहा था। फोर्ड मोटर्स जो विख्यात हेनरी फोर्ड की स्थापित कम्पनी थी, ‘फोर्डिज़्म’ की प्रतीक बन गई और यहीं से शुरू हुआ था असेम्ब्ली लाइन-आधारित व्यापक उत्पादन या ‘मास प्रोडक्शन’। जनरल मोटर्स और क्राइस्लर दूसरे दो सर्वश्रेष्ठ यूएस ब्राण्ड थे। पर दक्षिण कोरिया और जापान, तथा बाद में चीन से बनने वाले सस्ते और अधिक हाई-टेक कारों के प्रवेश के चलते, अमेरिका का ऑटो उद्योग पिछड़ गया। क्राइस्लर को भी कम्पनी बंद करनी पड़ी।
जनरल मोटर्स एक दशक पहले ही दीवालिया हो गया था। और फोर्ड आर्थिक रूप से लड़खड़ाने लगा था। उन्हें जापानी, यूरोपीय और कोरियाई कम्पनियों के साथ साझेदारी करनी पड़ी ताकि वे अपना अस्तित्व बचाए रख सकें।
2009 के वैश्विक आर्थिक संकट ने भी 2010 में ही ऑटोमोबाइल उद्योग के संकट को गहरा बना दिया। टोयोटा के सही समय पर उत्पादन (just-in-time production) और अन्य जापानी कार कम्पनियों के फ्लेक्सी (flexi) उत्पादन ने पूंजिपतियों के लिए उत्पादन प्रणाली की परिभाषाएं बदल दीं और पुराने फोर्डिज़्म की जगह ले ली।
फिर पेट्रोलियम-आधारित ऑटोमोबाइल अनुभाग में संरचनात्मक संकट आया, क्योंकि विद्युत-संचालित वाहन आ गए और सरकार ने इसे काफी समर्थन दिया क्योंकि वे जलवायु परिवर्तन समझौते के तहत कार्बन कंट्रोल मानदंडो के लिए प्रतिबद्ध थे। विद्युत-संचालित वाहनों का उत्पादक टेस्ला, जापान के पेट्रोलियम पर चलेने वाले वाहनों की तुलना में नया आकर्षक ब्राण्ड बन गया। यहां तक कि पेट्रोलियम-आधारित वाहनों को नया उत्सर्जन नियंत्रण तकनीक अपनानी पड़ी। इससे वाहन के दाम भी कुछ लाख रुपये बढ़े।
फिर आया एक अप्रत्याशित व गहरा तात्कालिक संकट- माइक्रोचिप यानी सेमिकंडक्टर का अभाव। ऑटोमोबाइल डिज़ाइन से लेकर मार्केटिंग, डिलवरी और आफ्टर-सेल्स मेन्टेनेंस के डिजटलाइज़ेशन के चलते सेमिकंडक्टर उद्योग का संकट तेज़ी से ऑटोमोबाइल उद्योग का सकट बन गया।
ब्लूमबर्ग बिज़नेस मीडिया के अनुसार माइक्रोचिप संकट वैश्विक ऑटो उद्योग को 100 अरब डॉलर का घाटा लगवा देगा और 2021 में 39 लाख कम वाहनों का उत्पादन होगा। भारत में, जापानी मारुति सुज़ुकी और दक्षिण कोरियाई ह्युनडाई, जो ऊपरी तौर पर अमेरिकी फोर्ड और जनरल मोटर्स से बेहतर स्थिति में दिख रहे थे, चिप के अभाव से बुरी तरह प्रभावित हुए और भारतीय मारुति को तो अपने सितम्बर के आउटपुट को 60 प्रतिशत घटाना पड़ा।
मोदी को तनिक भी सुराग नहीं है कि इन संकटग्रस्त ऑटो कम्पनियों को कैसे बचाएं, उन्हें अपनी कम्पनी बंद करने और भारत छोड़ने से कैसे रोकें। बहुत देर से सरकार ने अगस्त 2021 में घोषणा की कि जो वाहन 15 वर्ष पुराने हैं और जो निजी वाहन 20 वर्ष पुराने हैं, उन्हें खारिज कर दिया जाएगा। इस नीति का प्रभाव तो कुछ समय बाद ही देखने को मिलेगा, तो इससे कैसे ऑटोमोबाइल सेल बढ़ेगा और उद्योग संकट से बचेगा, इस प्रश्न का जवाब तो मोदी जी ही दे सकते हैं।
विशेष औद्योगिक क्षेत्रों के लिए सरकार ने मार्च 2020 में उत्पादन-संबंधी प्रोत्साहन योजना घोषित की है पर अबतक उसे ऑटोमोबाइल उद्योग के लिए लागू नही किया गया है। ऑटोमोबाइल उद्योग के लिए और कोई विशेष पैकेज भी घोषित नहीं किया गया है। तब कोई आश्चर्य नहीं कि मोदी के मेक-इन-इंडिया का माखौल बन रहा है। आखिर बड़े एमएनसी भारत छोड़ने के लिए कतार में खड़े दिख रहे हैं।
फोर्ड इंडिया की बंदी पर श्रमिकों का प्रतिरोध
भारत में दूसरी जगहों पर किसी प्रमुख ऑटोमोबाइल उद्योग की बंदी ज्यादा-से-ज्यादा सरकार की आर्थिक नीति का प्रतिबिंब लग सकती है। पर तमिलनाडु जैसे राज्य में, जो बहुत अधिक औद्योगीकृत हो चुका है, यह बहुत बड़े सामाजिक-आर्थिक मुद्दे का रूप ले लेता है। प्रत्येक विपक्षी दल अबतक बंदी का विरोध कर चुका है और मांग कर रहा है कि सरकार को इस उद्योग की बंदी को रोकने के लिए हर संभव प्रयास करना चाहिये। डीएमके सरकार सत्ता सम्हालने के कुछ ही समय बाद ऑटो प्लांट की बंदी कतई नहीं चाहती। फोर्ड कम्पनी का बंद होना उनके चुनावी वायदों की धज्जियां उड़ा देगा, जो उन्होंने श्रमिकों के रोज़गार सुरक्षित रखने और उद्योगों को बीमारी से निकालने के बारे में की थीं। दूसरे, डीएमके ने विपक्ष में रहते समय नोकिया और फॉक्सकॉन जैसी बड़ी कम्पनियों की बंदी का जोरदार विरोध किया था। वे अब दोहरे मापदंड लेकर नहीं चल सकती।
औद्योगिक विवाद अधिनियम के बिंदु 25(O), धारा 5B के तहत कोई भी उद्योग, जिसमें पिछले वर्ष 100 से अधिक श्रमिक थे, को प्लांट बंद करने से 3 माह पहले राज्य सरकार से अनुमति लेनी होगी। कम्पनी में अब भी काम जारी है। यदि कम्पनी प्रबंधन काम बंद भी कर दे, श्रमिक कानूनी तौर पर सर्विस में ही माने जाएंगे और प्रबंधन कानूनी तौर पर उन्हें वेतन देने के लिए बाध्य होगा, यदि सरकार बंदी की अनुमति नहीं देती। इस कानून का उल्लंघन तो आसानी से बहुराष्ट्रीय कम्पनियां भी नहीं कर सकतीं।
मोदी जी के अपने गुजरात ने जनरल मोटर्स को हालोल वाले प्लांट को बंद करने की अनुमति दे दी पर महाराष्ट्र सरकार ने उसे तालेगांव में पुणे वाले प्लांट को बंद करने की अनुमति नहीं दी। जनरल मोटर्स प्रबंधन ने श्रमिकों को अपने से छोड़ देने के लिए प्रोत्साहित करने हेतु वीआरएस स्कीम की घोषणा की है। यह इसलिए किया जा रहा था ताकि सरकार की अनुमति के बिना उद्योग बंद किया जा सकेगा। पर 1550 में से केवल 430 कर्मचारी वीआरएस स्कीम को स्वीकार कर रहे थे बाकी बंदी के निर्णय के विरुद्ध अंत तक लड़ने को तैयार थे। उद्धव ठाकरे की सरकार ने वायदा किया था कि वह हर प्रकार का सहयोग देगी यदि जनरल मोटर्स या कोई अन्य उद्योग इस प्लांट को चलाने के लिए तैयार हो।
यद्यपि एम के स्टालिन सरकार ने सार्वजनिक तौर पर खुलके प्रतिज्ञा नहीं की कि वह बंदी की अनुमति नहीं देगी, वह श्रमिकों को आश्वस्त कर रही है कि वह उनके रोज़गार की रक्षा करने के लिए हर संभव प्रयास करेगी। सरकार ने पहले ही वायदा कर लिया है कि यदि कोई अन्य कॉरपोरेट घराना आगे आकर फोर्ड मोटर्स को चला ले, तो राज्य सरकार उन्हें वे सारी छूट देगी जो राज्य में सभी नई औद्योगिक यूनिटों को मिलती हैं।
प्रबंधन जल्द ही आकर्षक पैकेज देगा ताकि श्रमिक समझौते को सहर्ष स्वीकार कर लें। पर श्रमिक किसी भी हालत में समझौता करना नही चाहते। फार्ड मोटर्स जैसी कम्पनी में काम करना श्रमिकों के लिए शान की बात है। श्रमिकों का एक बहुत छोटा हिस्सा ही वरिष्ठ श्रमिकों का है। ज्यादातर श्रमिक नए हैं, जिनकी 5 साल से कम की सविर्स है। यदि उन्हें केवल वैधानिक बंदी क्षतिपूर्ति दी जाती है, वह बहुत कम होगी। सर्वव्यापी ऑटोमोबाइल उद्योग संकट को देखते हुए लगता है कि यदि उसी स्तर का काम उन्हें नहीं मिल पाता, उनका भविष्य अधर में लटक जाएगा।
न्यूज़क्लिक ने कुछ ऐसे स्रोतों से जानकारी ली जो फोर्ड मोटर्स की स्वतंत्र यूनियन के संपर्क में हैं। उनसे पता चला कि यूनियन इस बंदी का पुरजोर राजनीतिक विरोध भी करेगी। सरकार पर श्रमिकों के अन्य हिस्सों और ट्रेड यूनियनों से दबाव बढ़ रहा है कि वे फोर्ड इंडिया प्रबंधन द्वारा बंदी को वैधानिक अनुमति न दे। सैनमिना उद्योग के श्रमिकों ने अपने मुद्दों पर आन्दोलन चलाते हुए, 13 सितम्बर को चेन्नई के ओरोगड़म औद्योगिक क्षेत्र में फोर्ड वर्करों के समर्थन में प्रदर्शन किया। चेन्नई, जो पहले भी बड़े सॉलिडेरिटी एक्शनों के लिए जाना जाता है, अब नए सिरे से वर्ग संघर्ष के लिए कमर कस रहा है।
(लेखक श्रम और आर्थिक मामलों के जानकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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