यूएस ट्रेजरी सेक्रेटरी की एक निरर्थक यात्रा

यूएस ट्रेजरी सेक्रेटरी डॉ . जेनेट एल. येलेन ने 12 नवंबर 2022 को यूएस-इंडिया इकोनॉमिक एंड फाइनेंशियल पार्टनरशिप (US-India Economic and Financial Partnership) की नौवीं बैठक में भाग लेने के लिए भारत का दौरा किया। एक दिन पहले उन्होंने भारतीय वित्त मंत्री सुश्री निर्मला सीतारमण के साथ बैठक की थी। हालांकि यह 2010 में स्थापित यूएस-इंडिया इकोनॉमिक एंड फाइनेंशियल पार्टनरशिप की एक नियमित बैठक थी, फिर भी जिस राजनीतिक पृष्ठभूमि में यह यात्रा हो रही थी, उसने जेनेट येलेन की यात्रा के बारे में जरूर कुछ जिज्ञासा पैदा की।
येलेन की यात्रा की पृष्ठभूमि
दूसरे शब्दों में सुश्री येलेन की यात्रा ने यूक्रेन युद्ध की पृष्ठभूमि में और यूक्रेन पर रूस के आक्रमण की निंदा और विरोध करने में पश्चिमी लोकतंत्रों के गठबंधन में शामिल होने से भारत के दृढ़ इंकार की पृष्ठभूमि में महत्व ग्रहण किया। भारत का रुख, हालांकि स्पष्ट रूप से क्वाड (Quad) में अपनी सदस्यता के विपरीत था। यह आश्चर्य की बात नहीं थी क्योंकि भारत का अमेरिका और अन्य पश्चिमी शक्तियों से सापेक्ष स्वतंत्रता का दावा करने का इतिहास रहा है। आश्चर्य की बात यह थी कि रूस को समर्थन देने के बावजूद भारत के प्रति अमेरिका और यूरोपीय शक्तियों की बाहरी शत्रुता और खुले तौर पर तीखी नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं देखी गई।
अमेरिका और पश्चिमी शक्तियाँ रूस और भारत के बीच कूटनीतिक रूप से एक खाई पैदा करने की उम्मीद पाले हुए थे और सावधान भी थे कि भारत को रूस के और करीब न धकेल दें।
अमेरिका में मीडिया के कुछ हल्कों की राय आलोचनात्मक थी कि बाईडेन प्रशासन भारत के रूस समर्थन का "विश्वासघात" करने के बावजूद उसके साथ नरमी का व्यवहार कर रहा था।
दूसरी ओर, अमेरिकी नेतृत्व यह तर्क देने में लगा हुआ था कि यह अमेरिका के लिए कोई बड़ी कूटनीतिक क्षति नहीं थी। वास्तव में, अमेरिकी विदेश विभाग के एक प्रवक्ता हाल ही में 8 नवंबर 2022 को एक प्रेस वार्ता में तर्क दे रहे थे कि भारत का रुख कोई प्रमुख रणनीतिक बदलाव को चिह्नित नहीं करता और यह शीत युद्ध (Cold War) के दौरान भारत द्वारा अपनाए गए रुख के संग निरंतरता (continuity) में था।
अमेरिकी नीति निर्माताओं के कुछ वर्गों ने भी भारत की रूसी हथियारों और तेल पर निर्भरता के संदर्भ में इसकी व्याख्या करने की कोशिश की ताकि भारत की रणनीतिक स्वतंत्रता के दावे को कम करके आंका जा सके।
दोनों द्वारा कूटनीतिक संतुलन का प्रयास
यूक्रेन युद्ध की शुरुआत में अपनी रणनीतिक प्राथमिकताओं को स्पष्ट करने के बाद जैसे-जैसे महीने बीतते गए भारतीय कूटनीति के लिए संतुलन साधने का समय आ गया था। भारतीय प्रधानमंत्री श्री मोदी का चर्चित बयान सितंबर 2022 में आया कि यह युद्ध का युग नहीं था और उन्होंने युद्धविराम और शत्रुता को तत्काल समाप्त करने और बातचीत शुरू करने का आह्वान किया।
भारतने रूस के खिलाफ सभी यूएनएससी (UNSC) प्रस्तावों में भाग नहीं लिया, हालांकि उसने रूस द्वारा परमाणु खतरे के आह्वान की निंदा करने वाले प्रस्ताव में अवश्य पश्चिम के साथ मतदान किया।
पश्चिम ने भी भारत को लुभाना शुरू कर दिया। अमेरिका ने रूसी हथियारों पर भारत की निर्भरता को कम करने की उम्मीद में भारत को हथियार बेचने की पेशकश की। उसने रूस के साथ भारत के तेल व्यापार को प्रतिबंधों से मुक्त कर दिया। य़द्यपि भारत-अमेरिका सुरक्षा वार्ता या सैन्य संबंधों में कोई नाटकीय प्रगति नहीं हुई, व्यापक रूप से यह उम्मीद थी कि भारत के साथ अपनी बढ़ती आर्थिक साझेदारी को मजबूत करके अमेरिका कूटनीतिक रूप से यूक्रेन के बाद के परिदृश्य में उत्पन्न स्थिति को कुछ हद तक सम्भाल लेगा। काफी समय से लंबित व्यापार सौदा और आव्रजन (immigration) के मुद्दे एजेंडे में थे और कुछ लोगों को उम्मीद भी थी कि अमेरिका इन पर विचार करेगा।
इसके अलावा जेनेट येलेन भारत का दौरा उस समय कर रही थीं, जब दोनों देश मिस्त्र में चल रही COP27 बैठक में एक-दूसरे के संग क्रिया-प्रतिक्रिया में उलझे थे। मिस्र में विवाद का प्रमुख मुद्दा होगा जलवायु वित्त पोषण, विशेष रूप से विकसित देशों द्वारा $100 बिलियन वार्षिक वित्त पोषण के वादे का सम्मान करना, जो 10 साल पहले कोपेनहेगन में किया गया था और 2021 में पेरिस में दोहराया गया था ताकि विकासशील देशों को नेट-ज़ीरो तक जलवायु संक्रमण करने में मदद मिल सके।
चूंकि 12 नवंबर 2022 को भारत-अमेरिका की बैठक का मुख्य पहलू जलवायु वित्त पर एक समर्पित सत्र था, इसलिए यह भी उत्सुकता बनी हुई थी कि इस संबंध में बैठक से क्या निकलकर आएगा?
इसी पृष्ठभूमि में जेनेट येलेन ने भारत का दौरा किया था। यात्रा से ठोस क्या हासिल हुआ?
दौरे का नतीजा
दुर्भाग्य से बैठक का परिणाम एक राजनयिक " नेट-ज़ीरो " था! जेनेट येलेन और निर्मला सीतारमण के बीच मंत्रिस्तरीय बैठक के बाद जारी संयुक्त बयान के अनुसार , दोनों पक्षों ने व्यापक आर्थिक दृष्टिकोण (macro-economic outlook), विशेष रूप से मंदी की संभावना, यूक्रेन युद्ध और उसके प्रभाव जैसे व्यवधानों के मध्य आपूर्ति श्रृंखला लचीलापन (supply-chain resilience), जलवायु वित्त, COP27 और WTO जैसे बहुपक्षीय जुड़ाव (multilateral engagement), वैश्विक ऋण कमजोरियों (global debt vulnerabilities), मनी लॉन्ड्रिंग विरोध और आतंकवाद के वित्तपोषण का मुकाबला करना सहित कई मुद्दों पर चर्चा की। अंतिम दो ऐसे मुद्दे ऐसे हैं जिन पर भारत पिछले कुछ समय से संघर्ष कर रहा है। लेकिन कोई निर्णय नहीं हुआ और इनमें से किसी भी मुद्दे पर कोई समझौता नहीं हुआ।
उदाहरण के लिए अमेरिका के साथ भारत के प्रस्तावित व्यापार समझौते को लघु-व्यापार सौदे के प्रस्ताव में तब्दील कर दिया गया। वह भी अब अधर में लटक गया है। मार्च 2019 में अमेरिका ने फैसला किया कि भारत अब वरीयता की सामान्य प्रणाली (GSP) बाजार पहुंच और टैरिफ रियायतों का हकदार नहीं था और भारत ने अपने निर्यात के 5.6 बिलियन डॉलर मूल्य के रियायती शुल्क लाभ (concessional duty advantage) खो दिया। एक व्यापार समझौते की उम्मीद के जरिये अधिक बाजार पहुंच को सुगम बनाने की कुछ हद तक आशा की गई थी। भारत के 50 देशों और समूहों के साथ व्यापार सौदे हैं, जिनमें 9 मुक्त-व्यापार समझौते (FTA) और 2 तरजीही व्यापार समझौते (PTA) शामिल हैं।
मार्च 2023 तक भारत की यूके के साथ एफटीए में प्रवेश करने की उम्मीद है। लेकिन अमेरिका के साथ व्यापार समझौता मृगतृष्णा बना हुआ है। उम्मीद थी कि येलेन की ओर से कुछ ठोस घोषणा की जाएगी कि फिर से एक व्यापार सौदे के लिए द्विपक्षीय प्रयास जल्द ही शुरू होंगे। लेकिन प्रस्तावित भारत-अमेरिका व्यापार समझौता ठंडे बस्ते में चला गया लगता है।
अमेरिका ने कोई प्रतिबद्धता नहीं जताई कि वह कोपेनहेगन में किए गए अपने स्वयं के वादे को पूरा करने के लिए 2025 तक अन्य विकसित देशों के साथ $300 मिलियन जुटाएगा । भारत उत्सर्जन नियंत्रण पर पेरिस के लक्ष्यों को पूरा करके सौदेबाजी के अपने पक्ष को पूरा करता रहा है। लेकिन अमेरिकी पक्ष अपनी प्रतिबद्धता पर कायम नहीं रहा। हैरानी की बात यह है कि यह अमेरिकी विश्वासघात नई दिल्ली में चर्चा में भी नहीं आया, जहां एक विशेष सत्र जलवायु वित्त के लिए समर्पित किया गया था।
यदि भारत एक संप्रभु देश है, तो सिद्धांत रूप में, भारत को अपनी कराधान नीतियों (taxation policies) और निर्णयों के अनुसार बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर कर लगाने में सक्षम होना चाहिए। लेकिन भारत को यह मानने के लिए मजबूर होना पड़ा कि वह अक्टूबर 2021 में अमेरिका और अन्य बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर केवल 15% तक कर लगा सकता है। इससे भी बुरी बात यह है कि 15% अधिकतम कर की अमेरिकी मांग को स्वीकार करने के लिए, भारत को अपने घरेलू कंपनियों के लिए कॉर्पोरेट कर दर को भी 15% तक नीचे लाना पड़ा। समर्पण यहीं नहीं रुका। भारत बहुराष्ट्रीय कंपनियों की अन्य आय जैसे लाभांश आय, रॉयल्टी आय आदि पर कितना कर लगा सकता है- इस प्रश्न पर सहमती बनाने के लिए, जेनेट येलेन और निर्मला सीतारमण ने 2023 में एक सम्मेलन करने पर सहमति व्यक्त की।
पर मनीलॉन्डरिंग पर लगाम लगाने को लेकर भारत गुहार लगाता रहा है- कि भारतीयों ने अमेरिकी बैंकों में कितना पैसा निवेश किया है, इसकी सूचना दी जाए। स्विट्जरलैंड और कुछ अन्य यूरोपीय देशों ने भारत सरकार के साथ इस तरह की जानकारी साझा करना शुरू कर दिया है। इस पर भी, येलेन ने कोई प्रतिबद्धता नहीं जताई और भारत मुंह ताकता रह गया। नतीजतन, भारतीय अभिजात वर्ग अपना धन अमेरिका में "सुरक्षित रूप से" रख सकता है।
अमेरिका ने आव्रजन नियंत्रणों (immigration controls) में ढील देने और भारत सरकार द्वारा अपेक्षित संख्या में भारतीय तकनीकी कर्मचारियों को वीजा जारी करने पर सहमति नहीं जताई।
येलेन ने भारत के बुनियादी ढांचे और नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं में अमेरिकी निवेश के संबंध में भी कोई ठोस वादा नहीं किया, हालांकि ये मुद्दे भारत द्वारा उठाए गए थे।
जेनेट येलेन की यात्रा की पूर्व संध्या पर अमेरिका ने भारत के लिए जो एकमात्र फायदेमंद इशारा किया वह अमेरिकी ट्रेजरी विभाग की घोषणा थी कि भारत को अमेरिकी मुद्रा निगरानी सूची (US currency monitoring list) से हटा दिया गया था।
यह निगरानी इस बात की जांच करने के लिए होती है कि क्या भारत अपने लाभ के लिए और अपने व्यापारिक भागीदार, अमेरिका के नुकसान के लिए अपने मुद्रा मूल्य में कृत्रिम रूप से हेरफेर कर रहा है। दूसरे शब्दों में, यह जांचना कि क्या भारत कृत्रिम रूप से अपनी विनिमय दर को अधिक निर्यात करने के लिए नीचे ला रहा है या अपने अमेरिकी आयात को सस्ता बनाने के लिए इसे बढ़ा रहा है।
निगरानी सूची (monitoring list) से भारत को हटाने से आरबीआई को “बिग ब्रदर” अमेरिका के डर के बिना .विदेशी मुद्रा बाजारों में अधिक बार हस्तक्षेप करने में मदद मिलेगी ताकि रुपये के मुक्त गिरावट को रोका जा सके।
हालांकि, यह ट्रेजरी के सचिव या किसी अन्य अमेरिकी अधिकारी द्वारा राजनीतिक विचार के साथ किया गया सोचा-समझा निर्णय नहीं था। यह एक स्वतः होने वाला निर्णय है, जो भारत द्वारा कुछ ऐसे मानकों को पूरा करना बंद कर देने पर लागू होता है, जिन्हें अमेरिकी ट्रेजरी द्वारा किसी देश को निगरानी सूची में रखने के लिए परिभाषित किया गया है। यह महज संयोग है कि यह जेनेट येलेन की यात्रा की पूर्व संध्या पर हुआ।
जॉर्ज बुश (जूनियर) के कार्यकाल के दौरान सौहार्द और भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के बहुचर्चित दिनों के बाद, जो अब पूरी तरह से अधर में लटक गया है, डोनाल्ड ट्रम्प के दिनों में भारत-अमेरिका संबंधों में एक ठंडक देखी गई। बाइडेन प्रशासन के तहत भी यह ठंडक जारी है। उम्मीद थी कि यूक्रेन के बाद एक नई उम्मीद जगेगी। जेनेट येलेन की यात्रा ने उस उम्मीद पर पानी फेर दिया है।
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