10,000 लापता तमिल हिंसा में मारे गए

2009 में समाप्त हुए श्रीलंकाई गृहयुद्ध के एक दशक से अधिक समय गुज़रने के बाद राष्ट्रपति गोताबाया राजपाक्षे ने आख़िरकार 10,000 तमिलों के मौत की बात को स्वीकार कर लिया है जो जातीय हिंसा के दौरान लापता हो गए थे। पहला ऐसा मौक़ा है जब किसी उच्च अधिकारी ने तमिल समाज के लोगों की गुमसुदगी और उनकी मौत के मामले में सरकार के मिलीभगत को लेकर ये बात स्वीकारी है।
राजपाक्षे उस वक़्त खुद रक्षा सचिव थे जब श्रीलंकाई सरकार ने देश के उत्तरी हिस्से को नियंत्रित करने वाले लिब्रेशन टाइगर ऑफ तमिल ईलम (लिट्टे) के नेतृत्व में तमिल सैनिकों के ख़िलाफ़ अपना क्रूर अभियान शुरू किया था। उन पर कई मानव अधिकारों के समूहों द्वारा सामूहिक हत्याओं के करने, जबरन गुमसुदगी और मारने का आरोप लगाया गया है लेकिन राजपाक्षे ने अपने ख़िलाफ़ लगाए गए आरोपों से बार-बार इनकार किया है।
वास्तव में, राजपाक्षे के नेतृत्व वाली श्रीलंकाई सरकार द्वारा स्वीकार किया गया हालिया बयान भी ऐसे समय में आया है जब उनकी पार्टी एक ऐसा कानून लाने की कोशिश कर रही है जो उन लोगों को रक्षा प्रदान करेगा जो गृह युद्ध के दौरान होने वाली व्यापक हिंसा के लिए ज़िम्मेदार थे।
स्थानीय रिपोर्टों के अनुसार, राजपाक्षे ने कोलंबो में संयुक्त राष्ट्र के प्रतिनिधि के सामने कहा कि उनकी सरकार तमिलों को आधिकारिक मृत्यु प्रमाण पत्र प्रदान करने की पहल कर रही है।
1983 में हिंसक रूप लेने वाले सिंहली और तमिलों के बीच 26 साल के नस्लीय संघर्ष में हिंसा ने लगभग एक लाख लोगों की जान ले ली। हाई कमिश्नर फॉर ह्यूमन राइट के संयुक्त राष्ट्र कार्यालय के अनुसार, श्रीलंका की सेना तमिलों के ख़िलाप़ "गैर-कानूनी हत्याओं, गुमसुदगी और लिंग आधारित हिंसा में में शामिल है।"
2007 और 2009 के बीच की अवधि ये संघर्ष जब अपने आखिरी चरण में था तब इसे उपमहाद्वीप में सबसे बुरे अनुभव के तौर पर बताया गया है जिसमें तमिल समुदाय के खिलाफ सरकारी सैनिकों द्वारा किए गए अत्याचारों के भयानक प्रमाण मौजूद हैं। संयुक्त राष्ट्र ने भी इस संघर्ष पर अपनी कई रिपोर्टों में स्वीकार किया है कि कैसे सरकारी सैनिक व्यवस्थित रूप से नागरिकों को मार रहे हैं: "भारी मात्रा में हथियारों को भी 'नो फायर जोन' में बार-बार लॉन्च किया गया था, जिसके परिणामस्वरूप लगभग 70,000 तमिल नागरिक मारे गए थे।"
साभार : पीपल्स डिस्पैच
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