क्या पंचायतों में धर्म और जाति में उलझ रही है कोरोना से जंग?

विजय राम (40) बिहार के वैशाली जिले के वफापुर बंथु पंचायत के रहने वाले हैं। दलित बिरादरी से आने वाले विजय राम की पत्नी मंजू देवी प्रधान हैं, लेकिन काफी कामकाज़ विजय ही देखते हैं और क्षेत्र में प्रधान (पति) जी के तौर पर जाने जाते हैं। विजय इन दिनों गांव के टोला-मोहल्ला में जा-जाकर लोगों को कोरोना के प्रति जागरूक कर रहे हैं। इसी कड़ी में जब वो सवर्ण जाति से जुड़े किसी बुजुर्ग से मिलते हैं तो उन्हें कुछ इस अंदाज़ में समझाते हैं -
''आप तो हम लोगों से ज्यादा जानकार हैं। आप ही लोगों की वजह से हम भी आज पढ़ लिख पाए और यहां तक पहुंचे हैं। कोरोना के बारे में अब हम आपको थोड़े समझाएंगे, आप तो खुद ही समझदार हैं। सोशल डिस्टेंस मेंटेन करना है और घर में रहना है, याद रखिएगा।''
इस समझाने के तरीके से साफ है कि विजय उच्च जाति के बुजुर्ग व्यक्ति को उनसे बेहतर होने का दिलासा दे रहे हैं। समझाने के इस तरीके पर विजय राम का कहना है, ''गांव देहात में जात बिरादरी बहुत मायने रखता है। हालांकि, नए जमाने के लोग इस बारे में ज्यादा नहीं सोचते, लेकिन जो पहले के लोग हैं उन्होंने इसी में अपनी जिंदगी गुजारी है तो उनको समझाने के लिए यह तरीका आजमाना पड़ता है। हमको तो सबको साथ लेकर चलना है न!''
भारत में कोरोना के मरीजों की संख्या 10 हजार के पार हो गई है। पहले जो मरीज शहरों तक सीमित थे अब वो दूर-दराज के गांव से भी आने लगे हैं। ऐसी स्थिति में ग्राम पंचायतों की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है कि वो कोरोना से बचाव को लेकर क्या कदम उठा रहे हैं। पंचायतें शहरों से अलग होती हैं, यहां की राजनीति से लेकर रहन सहन तक में जाति, धर्म और सामाजिक ताना बाना गहरे तक असर रखता है। ऐसे हाल में पंचायतों में कोरोना से लड़ाई इन तमाम पहलुओं को साधते हुए लड़ी जा रही है।
ऐसी ही लड़ाई उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थनगर जिले के हसुड़ी औसानपुर के प्रधान दिलीप त्रिपाठी (45) भी लड़ रहे हैं। दिलीप रोज सुबह गांव में लगाए गए पब्लिक एड्रेस सिस्टम से कोरोना से बचाव की जानकारी चलाते हैं। साथ ही गांव को सेनेटाइज करने से लेकर लॉकडाउन का पालन कराने तक का काम कर रहे हैं। लॉकडाउन को पालन कराने के लिए कई बार उन्हें पुलिस की सहायता भी लेनी पड़ती है।
दिलीप बताते हैं, ''वैसे तो गांव में सब लॉकडाउन का पालन कर रहे हैं, लेकिन कुछ लोग होते हैं जो जानबूझकर प्रधान की नहीं सुनते। ऐसे लोग हर गांव में मिल जाएंगे। हम इनसे झगड़ा तो कर नहीं सकते, ऐसी स्थिति में पुलिस की सहायता ली जाती है। पुलिस एक चक्कर गांव का लगाती है, दो-चार लोगों को डांटती फटकारती है तो लोग सही होते हैं।''
यह तो हुई लॉकडाउन पालन कराने की बात। इसके अलावा भी अन्य चुनौतियां हैं जिसपर उन्हें काम करना पड़ा था। दिलीप बताते हैं, ''लॉकडाउन से पहले ही हमारे गांव में मुंबई से कुछ लोग आए थे। मैंने उन्हें घर में ही 14 दिन तक रहने की सलाह दी, लेकिन वो मानने को तैयार ही नहीं थे। ऐसे में मुझे सामाजिक तौर पर यह घोषणा करनी पड़ी कि अगर इनके परिवार से कोई मिलेगा तो उसके लिए भी खतरा है। लोग यह बात समझे और मुंबई से आए लोगों से खुद ही दूरी बनाने लगे। इसके बाद मैंने पुलिस को भी इनकी जानकारी दे दी। पुलिस आई और इन लोगों को घर में ही रहने की हिदायत दी, तब जाकर यह लोग माने हैं, लेकिन अब मुझसे तो दुश्मनी पाल ही चुके हैं।''
कुछ ऐसी ही रंजिश की कहानी उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले के पीपरी सादीपुर गांव में भी देखने को मिल रही है। इस गांव के रहने वाले सहबान अली (20) दिल्ली में सिलाई का काम करते थे। लॉकडाउन के बाद जब प्रवासी मजदूर दिल्ली छोड़ रहे थे तो सहबार भी अपने गांव के 18 लोगों के पैदल ही गांव के लिए निकल गए थे।
दिल्ली से अपने गांव के लंबे सफर के बाद जब सहबान गांव पहुंचे तो उन्हें और उनके साथ आए लोगों को गांव के ही स्कूल में 14 दिन के लिए क्वारंटाइन किया गया। यहां उन्हें खाना नहीं मिलता था तो उन्होंने इस बात की शिकायत एक जानने वाले पत्रकार से कर दी। ख़बर छपी और प्रधान पर कार्रवाई हो गई। सहबान के मुताबिक, इस घटना के बाद से ही प्रधान के घर वाले उनसे रंजिश रख रहे हैं। अभी सहबान 14 दिन का क्वारंटाइन का वक्त गुजार कर घर चले आए हैं और उन्हें सलाह दी गई है कि 14 दिन और वो घर में अलग रहें, जिसका वो पालन कर रहे हैं।
सहबान बताते हैं, ''प्रधान के घर वाले दुश्मन बने हैं वो तो और बात है, गांव वाले भी मेरे परिवार को गलत तरीके से ही देख रहे हैं। जबसे जमात वाला मामला सामने आया है लोग मेरे परिवार को भी कोरोना फैलाने वाला कहते हैं। हम इन बातों से डर लगता है। लोगों को समझना चाहिए कि हम क्यों बीमारी फैलाएंगे, इससे हमें क्या फायदा होगा।''
सहबान और उसके परिवार के साथ जो हो रहा है वो कितना ख़तरनाक हो सकता है कि इसका अंदाजा हिमाचल प्रदेश की एक ख़बर से लगाया जा सकता है। बताया जाता है कि हिमाचल के ऊना जिले के बनगढ़ गांव में मुस्लिम समुदाय से ताल्लुक रखने वाले मोहम्मद दिलशाद (37) ने इसलिए आत्महत्या कर ली क्योंकि गांव के लोग उसे ताने मारते थे। जमात के लोगों के संपर्क में आने के बाद दिलशाद ने कोरोना टेस्ट भी कराया था, जोकि नेगेटिव आया, इसके बाद भी गांव वाले उसका सामाजिक बहिष्कार कर रहे थे। इस बात से दिलशाद इतना आहत हुआ कि उसने आत्महत्या कर ली।
यह तो हुई आत्महत्या की बात। इसके अलावा गांव में कोरोना वायरस के संदिग्धों की जानकारी स्वास्थ्य विभाग को देने पर एक युवक की हत्या भी हो चुकी है। मीडिया में आई ख़बरों के मुताबिक बिहार के सीतामढ़ी जिले के मधौल गांव के बब्लू ने महाराष्ट्र से आए दो लोगों की जानकारी स्वास्थ्य विभाग को दी थी। इसके बाद स्वास्थ्य विभाग की टीम गांव पहुंची और इन लोगों से पूछताछ की गई। इस बात से यह दोनों युवक इतना नाराज हुए कि घर वालों के साथ मिलकर बब्लू की पिटाई करने लगे, उसे इतना मारा कि उसकी मौत हो गई। इस मामले में 7 लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया है।
पंचायतों की यह कहानियां बताती हैं कि गांव में कोरोना से लड़ाई कितनी मुश्किल है। इन कहानियों से आप समझ पाए होंगे कि कैसे पंचायतों में कोरोना से लड़ाई का स्वरूप ही बदल जाता है। ऐसा नहीं कि गांव में सेनेटाइजेशन से लेकर सोशल डिस्टेंसिंग जैसे बचाव के काम नहीं होते, वहां भी यह सब होता है, लेकिन उसके समानांतर ही ऐसी घटनाएं भी चल रही हैं जो जाति, धर्म और राजनीति का अलग स्वरूप दिखाती हैं।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
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