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वनभूमि पर बसे लोगों का संघर्ष

उत्तराखंड के दो गांव हैं बग्घा-54 और बिंदुखत्ता। बग्घा-54 चंपावत के खटीमा में वनभूमि पर बसा हुआ है। बिंदुखत्ता हल्द्वानी के लालकुआं के पास वनभूमि पर बसा हुआ है। इन दोनों ही गांवों में चार दशक से अधिक समय से लोग रह रहे हैं। दोनों ही गांव इस समय अपना अस्तित्व बचाने और खुद को राजस्व ग्राम घोषित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
अपनी ज़मीन के लिए संघर्ष

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की महत्वकांक्षी योजनाओं में से एक है प्रधानमंत्री आवास योजना। जिसके तहत हर परिवार के पास अपना आशियाना होगा। करोड़ों की इस योजना के तहत हजारों लोगों को बसाने के दावे भी किये जा रहे हैं। इससे ठीक उलट, उत्तराखंड में ऐसे गांव हैं, जहां चालीस बरस से भी अधिक समय से लोग बसे हुए हैं। उनके पास अपने घर, सड़क, स्कूल, अस्पताल और दूसरी जरूरी सुविधाएं उपलब्ध हैं। लेकिन उनके पर उनके घर छीने जाने की तलवार लटकी हुई है। अपने जीवन की सारी कमाई लगाकर जो आशियाना बनाया, उसके उजड़ने का खतरा बना हुआ है।

उत्तराखंड के दो गांव हैं बग्घा-54 और बिंदुखत्ता। बग्घा-54 चंपावत के खटीमा में वनभूमि पर बसा हुआ है। बिंदुखत्ता हल्द्वानी के लालकुआं के पास वनभूमि पर बसा हुआ है। इन दोनों ही गांवों में चार दशक से अधिक समय से लोग रह रहे हैं। दोनों ही गांव इस समय अपना अस्तित्व बचाने और खुद को राजस्व ग्राम घोषित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। राज्य में कुछ और ऐसे गांव है, जो इसी हालात से गुजर रहे हैं।

अपने अस्तित्व को बचाने के कई वर्षों से चल रहे संघर्ष के बीच, फरवरी महीने में सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी, इन गांवों के लिए मुश्किल हालात ले आया। सर्वोच्च अदालत ने 20 फरवरी को देश के 17 राज्यों के जंगलों से करीब 20 लाख आदिवासियों को बाहर निकालने का जारी किया। साथ ही राज्य सरकारों को जंगल में रहनेवालों को चिह्नित कर सही संख्या अदालत में बताने को कहा। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही आदेश पर फिलहाल रोक लगा दी है। लेकिन अभी डर बना हुआ है।

क्या उजड़ जाएगा बग्घा-54 गांव

नैनीताल हाईकोर्ट ने सितंबर महीने में एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए बग्घा-54 गांव को तीन महीने के अंदर खाली कराने के आदेश दिये थे। लोगों के घर जब घर खाली कराने के नोटिस पहुंचने लगे, तो उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। 

खटीमा में सुरई वनरेंज में खाली पड़ी करीब एक हज़ार हेक्टेअर की वनभूमि वर्ष 1975 में टोंगिया पद्धति के आधार पर, उस समय भूमिहीन परिवारों को खाने-कमाने को दी गई थी। तब शर्त थी कि वनस्पतिविहीन बग्घा चौवन में बसाए जाने वाले लोग, अपनी मेहनत से बंजर ज़मीन में पेड़-पौधे उगाएंगे और जब पेड़ बड़े हो जाएंगे, तो वन विभाग ज़मीन वापस ले लेगा। यहां बसे परिवारों को सरकार कहीं और बसाएगी। इस बारे में शासनादेश आने के बाद लगभग पांच सौ भूमिहीन परिवारों को यहां वनभूमि आवंटित की गई। शासनादेश की प्रति डीएम नैनीताल और पीलीभीत को जारी हुई थी। मौजूदा समय में बग्घा वनभूमि पर लगभग एक हजार परिवार वर्ष 1970 से रह रहे हैं। राजस्व अभिलेखों में बग्घा वनभूमि से लगे राजस्व ग्राम पंचायत सरपुड़ा का क्षेत्रफल 383.5964 हेक्टेयर दर्ज है। जबकि वन भूमि पर बसे बग्घा चौवन का क्षेत्रफल वन विभाग के रिकार्ड में 500 हेक्टेयर से अधिक है।

खटीमा से विधायक पुष्कर सिंह धामी कहते हैं कि बग्घा-54 को पिछले कई वर्षों से राजस्व ग्राम बनाने की मांग की जाती रही है। उनका कहना है कि बग्घा गांव में लोगों को बसे हुए चालीस वर्ष से भी अधिक समय हो चुका है। विधायक पुष्कर धामी कहते हैं कि वहां लोग कब्जा करके नहीं बैठे हैं, बल्कि तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने ही इन्हें वहां बसाया था। बग्घा चौवन और सतपुड़ा दो गांव जुड़े हुए हैं। सतपुड़ा से जुड़कर इस गांव में काफी विकास कार्य हुए। स्कूल, अस्पताल, बिजली कनेक्शन, बीएसएनएल टावर जैसे सारे आधारभूत ढांचे मौजूद हैं।

यही नहीं सांसद भगत सिंह कोश्यारी ने इस गांव को सांसद आदर्श ग्राम के तहत भी चुना और सांसद निधि से यहां 70 लाख रुपये से अधिक के विकास कार्य कराये गए। यहां लोगों के पास आधार कार्ड हैं, वोटर आईडी कार्ड हैं। विधायक धामी का कहना है कि पिछली सरकारों की लापरवाही के चलते गांव आज इस हालत में है।

उन्होंने बताया कि मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने मुख्य सचिव उत्पल कुमार सिंह को पत्र भी लिखा था और कहा था कि जिस तरह उत्तर प्रदेश में नई सरकार बनने के बाद वनभूमि पर बसे कुछ गांवों को राजस्व ग्राम का दर्जा दिया गया है, उसी तर्ज पर बग्घा चौवन को भी राजस्व ग्राम का दर्जा देने के लिए कार्य करें। राजस्व विभाग में इस पर कार्रवाई भी चल रही है।

आईआईएम काशीपुर में आईटी डिपार्टमेंट में कार्य कर रहे प्रकाश सिंह इसी गांव के रहने वाले हैं। वे बताते हैं कि यहां एक हजार परिवारों की कुल 6500 आबादी रहती है। इसमें वीर चक्र हासिल करनेवाले सैनिक का परिवार, 350 भूतपूर्व सैनिक परिवार, 75 वीर नारी परिवार और 180 सेवारत सैनिकों के परिवार शामिल हैं। खुद प्रकाश सिंह के पिता भी सेना से रिटायर हुए हैं। वे कहते हैं कि पिताजी ने अपनी मेहनत की कमाई जिस घऱ को बनाने में खर्च कर दी, अब उसी घर को खाली करने का नोटिस है। प्रकाश निराशा जताते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने भी वन भूमि पर बसे गांवों को खाली कराने के आदेश दिये हैं। हमारा गांव भी तो ऐसे ही बसा है।

बिंदुखत्ता गांव रहेगा या हाथी कॉरीडोर

बग्घा-54 की तरह बिंदुखत्ता गांव भी आज अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है। हल्द्वानी ज़िले के लालकुआं के तराई क्षेत्र में वनभूमि पर बसा ये गांव भी पिछले कई वर्षों से खुद को राजस्व ग्राम का दर्जा देने की मांग करता रहा है। इसी मुद्दे पर यहां चुनाव में मतदान होता है। लेकिन चार दशक पहले बसे इस गांव की ये मांग अब तक नहीं पूरी हुई। पिछले वर्ष त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार इस वनभूमि पर हाथी कॉरीडोर बनाने का प्रस्ताव ले आया। प्रमुख वन संरक्षक ने कॉरीडोर के लिए भूमि का निरीक्षण भी किया। इसके बाद से ही बिंदुखत्ता गांव के लोगों ने धरना-प्रदर्शन के ज़रिये आंदोलन तेज़ कर दिया। सीपीआई-एमएल और अखिल भारतीय किसान महासभा इस गांव के लोगों के संघर्ष में साथ है। लोगों की मांग है कि सरकार हाथी कॉरीडोर के प्रोजेक्ट को निरस्त कर, इसे राजस्व ग्राम घोषित करे। वर्ष 1985 तक बस चुके बिंदुखत्ता गांव की आबादी करीब एक लाख तक पहुंच चुकी है।

सीपीआई-एमएल के राज्य सचिव राजा बहुगुणा कहते हैं कि कांग्रेस-बीजेपी दोनों ही ये मानते हैं कि बिंदुखत्ता को राजस्व ग्राम बनना चाहिए। इसके बावजूद किसी सरकार ने इसे राजस्व ग्राम बनाने की पहल नहीं की, बिंदुखत्ता पूरी तरह आबाद गांव है। एक लाख की आबादी वाले इस गांव में सड़क, अस्पताल, स्कूल, बिजली सब है। लेकिन न ये राजस्व ग्राम बना, न वनग्राम। राजा बहुगुणा मानते हैं कि सरकार हाथी कॉरीडोर के नाम पर दरअसल इस वनभूमि को खाली करा, इसे पूंजीपतियों को सौंपना चाहती है।

लोगों से नहीं ‘विकास’ से जंगल को खतरा!

देहरादून में वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड के तराई क्षेत्र के टीम लीडर डॉ. अनिल कुमार सिंह का कहना है हाथियों, बाघों समेत दूसरे जंगली जानवरों की आवाजाही की जगहें लगातार विकास की भेंट चढ़ती जा रही हैं। उनका मानना है कि गांव की बसावट या लोगों के रहने से हाथी कॉरीडोर को दिक्कत नहीं होती है, बल्कि विकास के लिए किये जा रहे निर्माण कार्यों से ज्यादा दिक्कत होती है। वे बताते हैं कि गोला नदी के किनारे हाथियों के आने जाने को जो रास्ता हुआ करता था,राज्य सरकार ने वही ज़मीन रेलवे को स्लीपर फैक्ट्री बनाने के लिए हस्तांतरित की। वहीं पर इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन को ऑयल डिपो बनाने के लिए लैंड यूज़ बदलकर ज़मीन दी गई। बाद में वन क्षेत्र में ही आईटीबीपी के कैंपस के लिए भी ज़मीन दी गई। वहीं बिंदुखत्ता गांव बसा है।

डब्ल्यू.डब्ल्यू.एफ इंडिया के लिए कार्यरत डॉ. अनिल कहते हैं कि विकास से जुड़ी गतिविधियों के चलते वर्ष 2004 के बाद वो पूरा इलाका जानवरों की आवाजाही के लिए ब्लॉक होता चला गया। अब कभी-कभार ही वहां हाथी आते हैं। उस समय जंगल की ज़मीन को हस्तांतरित करते समय किसी ने ये ध्यान नहीं दिया। वन विभाग ने भी इसके लिए अनुमति दे दी। वे बताते हैं कि वर्ष 2004 से पहले वहां हाथियों की खूब आवाजाही हुआ करती थी।

डॉ. अनिल कहते हैं कि ऐसा सिर्फ लालकुआं में ही नहीं हुआ, बल्कि आमतौर पर पूरे तराई क्षेत्र में ऐसी ही स्थिति है। बिना जंगली जानवरों की आवाजाही के पैसेज का ध्यान दिये हुए, निर्माण कार्य हुआ, जिससे पूरी जगह आवाजाही के लिहाज से खंडित हो गई। वे बताते हैं कि गोला कॉरीडोर की तरह ही चीला मोती चूर कॉरीडोर या सौंग रिवर कॉरीडोर में भी पहले जंगली जानवरों की खूब आवाजाही हुआ करती थी। लेकिन अब उस पूरे क्षेत्र में एक या दो ही पैसेज बचे हैं,जहां से जानवर गुजर सकते हैं।

वन पंचायत संघर्ष मोर्चा के अध्यक्ष तरुण जोशी कहते हैं कि जंगल से लोगों का अधिकार छीना जा रहा है। वन आच्छादित उत्तराखंड में लोगों से उनके पारंपरिक अधिकार छीने जा रहे हैं। इसीलिए जंगल पर भी खतरा बढ़ गया है। वन अधिकारों को लेकर संघर्ष कर रहे तरुण जोशी कहते हैं कि उत्तराखंड सरकार वन अधिकार अधिनियम को लागू करने के लिए तैयार नहीं है।

राज्य के प्रमुख वन संरक्षक जयराज कहते हैं कि  आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक उत्तराखंड में वनविभाग की 9,500 हेक्टेअर भूमि पर अलग-अलग तरह से अतिक्रमण किया गया है। जिसमें मामले कोर्ट में लंबित हैं। इसके साथ ही देहरादून के बापूग्राम के पास, या हल्द्वानी के बिंदुखत्ता गांव में लोगों की बहुत बड़ी बसावट हो चुकी है। इन्हें हटाना अब संभव नहीं रह गया है। इन लोगों के लिए कुछ और विकल्पों पर कार्य करना होगा।

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