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भारत के कोविड-19 संकट के पीछे का असली ‘सिस्टम’ पूंजीवाद है

ज़ाहिर है, निजी मीडिया चैनलों ने सत्ताधारी सरकार को बेरहम आलोचनाओं से बचाने के लिए इस तटस्थ ’सिस्टम’ को बहुत ही चतुराई के साथ बतौर सेफ़्टी वॉल्व इस्तेमाल कर लिया है और जब सरकार ने सत्ता की कमान थामे रखने का अपना नैतिक आधार खो दिया है, तब इस ‘सिस्टम’ के सहारे उसकी वैधता की परत चढ़ाने की कोशिश की जा रही है।
भारत के कोविड-19 संकट के पीछे का असली ‘सिस्टम’ पूंजीवाद है
फ़ोटो साभार: रॉयटर

कुछ ही दिनों पहले भारतीय मीडिया एक नया शब्द ‘सिस्टम’ लेकर आया है, और कोविड-19 महामारी से जूझ रहे भारतीयों की दुर्दशा का सारा दोष इसी अमूर्त शब्द पर मढ़ दिया है। छोटी तादाद, मगर ताक़तवर उदारवादियों ने इसका जवाब ‘मोदी ही सिस्टम है’ कहकर दिया है, जबकि हिंदुत्व के जोशीलों ने भी ‘सत्तार साल से क्या किया?’ जैसे जुमलों से जवाब तो दिया, लेकिन उनकी ज़बान में इससे पहले वाली गर्मी नहीं है।

ज़ाहिर है, निजी मीडिया चैनलों ने सत्ताधारी सरकार को बेरहम आलोचनाओं से बचाने के लिए इस तटस्थ ’सिस्टम’ को बहुत ही चतुराई के साथ बतौर सेफ़्टी वॉल्व इस्तेमाल कर लिया है और जब सरकार ने सत्ता की कमान थामे रखने का अपना नैतिक आधार खो दिया है, तब इस ‘सिस्टम’ के सहारे उसकी वैधता की परत चढ़ाने की कोशिश की जा रही है।भारत से रिज़ाइनमोदी हैशटैग ट्रेंड कर रहा था, मगर फ़ेसबुक ने वर्चुअल विरोध के इस स्वरूप को भी ब्लॉक कर दिया, हालांकि फिर बहाल कर दिया गया।

प्रतीकात्मक शब्द, ’सिस्टम’ का निहितार्थ न तो नरेंद्र मोदी हैं और न ही भारतीय जनता पार्टी है, बल्कि सही मायने में पूंजीवाद है। हालांकि सत्तारूढ़ सरकार भारत की उन सबसे बड़ी सार्वजनिक संपत्ति को बेचने की शुरुआत करके इस सिस्टम के प्रतिनिधियों, यानी पूंजीपतियों के लिए ख़ासकर दरियादिली दिखाती रही है, जो कि 2 लाख करोड़ रुपये की है, साथ ही साथ इस सरकार के ऐतिहासिक कॉर्पोरेट कर में कटौती से प्रत्यक्ष कराधान में सालाना 1.5 लाख करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ा है और इसका लाभ शीर्षस्थ 1% पूंजीपतियों को देकर ऐसा किया गया है। यह राशि टीकाकरण(केंद्र सरकार की प्रति टीका 150 रुपये की दर) के लिए पर्याप्त होती, यानी इतनी राशि से सभी भारतीयों को छह बार से ज़्यादा मुफ़्त टीके उपलब्ध करा दिये जाते!

पूंजीवाद समाज के विभाजन को दो बड़े वर्गों, यानी पूंजीपति वर्ग और सर्वहारा वर्ग में बांटने वाली एक सहज प्रणाली है। पूंजीवति वर्ग, सर्वहारा के श्रम पर ऐश करता है, जबकि सर्वहारा के पास जीने के लिए अपनी श्रम शक्ति को बेचने के अलावा कोई चारा नहीं होता है। ऐतिहासिक रूप से कहा जाये, तो मानव जाति के इतिहास में यह पहली प्रणाली है, जिसमें मानव जाति का सबसे बड़ा तबका, यानी श्रमिक ख़ुद को ज़िंदा रखने के लिए अपने वेतन को छोड़कर बाक़ी तमाम संपत्ति से पूरी तरह बेदखल कर दिये जाते हैं। इस शर्त के पूरा हुए बिना पूंजीवाद काम कर ही नहीं सकता, क्योंकि इसका इकलौता मक़सद बाज़ार में मानव जाति की सभी सेवाओं और ज़रूरतों को बेचना है। इसमें स्वास्थ्य, शिक्षा और फ़िलहाल मौत भी शामिल है, क्योंकि निजी कंपनियों ने दिवंगत हुए लोगों की याद में विशेष सामग्रियों के उत्पादन और ‘विषय-आधारित’ अंतिम संस्कार सेवाओं की पेशकश की है!

इस लिहाज़ से जब आम लोग सड़कों पर मरते हैं, तो पूंजीवादी व्यवस्था के लिए वैश्विक महामारी मुनाफ़ कमाने का महज़ एक मौक़ा होता है। बड़ी दवा कंपनियों ने पहले से ही वैक्सीन पेटेंट के ख़ात्मे को रोकने के लिए तेज़ी से लामबंद होना शुरू कर दिया है और जिन देशों में निजी वैक्सीन बनाने वाली ये कंपनियां हैं, वे अपने मुनाफ़े के मक़सद से पीड़ितों को शिकार बनाने के लिए कमर कस ली है।

हर दिन भारतीय दवा कंपनियां ख़ुद पर आम लोगों की असहाय निर्भरता को देखते हुए अपने उत्पादों की बढ़ी हुई नयी-नयी दरों के साथ सामने आ रही हैं, और एक सदी में मानव जाति पर प्रहार करने वाली इस बदतरीन महामारी से ज़्यादा से ज़्यादा पैसे बना रही हैं। हैरत है कि इन दवा कंपनियों के वारिस बेहद शानदार जीवन शैली पर पैसे बहाते हुए ख़ौफ़ भी नहीं खाते हैं।

महीने भर पहले सीरम इंस्टीट्यूट इंडिया के मालिक, अदार पूनावाला ने लंदन के मेफ़ेयर में पोलैंड के अरबपति से प्रति सप्ताह 69, 000 डॉलर (51 लाख रुपये) में एक प्रोपर्टी किराये पर ली है। यह सौदा लंदन के मानकों के हिसाब से भी एक रिकॉर्ड बनाने वाला सौदा है और यह हवेली 25, 000 वर्ग फीट के सबसे बड़े आवासों में से एक है, जो औसत आकार के 24 ब्रिटिश घरों के बराबर है! जबकि जिन्हें वह अपने उत्पाद बेचता है और उसकी क्षमता रखता है, वे बेचारे भारतीय लोग अस्पताल के बेड, ऑक्सीजन, और दुर्भाग्य से श्मशान या कब्रिस्तान के लिए छीना-झपटी में लगे हुए हैं। 

सरकार ने 29 अप्रैल को पूनावाला की ज़िंदगी को कहीं ज़्यादा क़ीमती आंका। उन्हें भारत सरकार की तरफ़ से 'वाई' श्रेणी की सुरक्षा दी गयी है। वहीं घातक बीमार से जूझ रहे रिश्तेदारों के लिए ऑक्सीजन सिलेंडर की मांग को लेकर गिड़गिड़ा रहे लोगों को पुलिस पीट रही है। उत्तर प्रदेश सरकार ने तो तमाम हदों को पार कर लिया है और उन लोगों की संपत्ति को ज़ब्त करने का फ़ैसला कर लिया है, जो राज्य के ध्वस्त हो चुके सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा के बुनियादी ढांचे के ख़िलाफ़ शिकायत करने की हिम्मत कर रहे हैं।

अमीर और मुनाफ़ा कमाने के लिए हमेशा लालायित रहने वाली इंडियन प्रीमियर लीग की कोरी असंवेदनशीलता भी ऐसी ही है। जिस समय मनोरंजन ज़रूरी नहीं है, उस समय भारत के सबसे बड़े पूंजीपतियों के पैसों से पोषित मनोरंजन मुहैया कराया जा रहा। इसके अलावे, सबसे तहाश करने वाली बात यह है कि आईपीएल छोड़ने वाले पांच विवेकशील खिलाड़ियों में से महज़ एक खिलाड़ी भारतीय है।

भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (BCCI) दुनिया में अब तक का सबसे अमीर क्रिकेट बोर्ड है, जिसकी कुल संपत्ति 2, 184 करोड़ रुपये की है, जो दूसरे सबसे अमीर अमीर बोर्ड की संपत्ति से तक़रीबन चार गुनी संपत्ति है।इस भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (BCCI) के एक अफ़सर ने इस लीग के चलते रहने का बचाव करते हुए कहा है, ‘‘हमारे चारों तरफ़ जो क़यामत और उदासी का मौहाल पसरा है, उससे ध्यान हटना के लिए आईपीएल एक ज़रूरी परिवेश बनाता है।’’ दरअस्ल, इस सीधे सादे दिखते कथन में पूंजीवाद का असली अर्थ निहित है। मुनाफ़े के मक़सद से मानवीय जीवन के नुकसान को लेकर बरती जाने वाली यह एक ऐसी निरा असंवेदनशीलता है, जिसे किसी भी क़ीमत पर इसलिए बचाने पर ज़ोर दिया जा रहा है, क्योंकि 4, 000-5, 000 करोड़ रुपये के विज्ञापन और स्पॉन्सरशिप के पैसे दांव पर लगे हुए हैं।

अगर वैश्विक स्तर पर कहा जाये, तो पूंजीवाद के सबसे बड़े क़िले, यानी संयुक्त राज्य अमेरिका में भी पूंजीवादी व्यवस्था की प्राथमिकतायें एकदम साफ़ हैं। पिछले साल फ़ेडरल रिज़र्व ने गिरती हुई अर्थव्यवस्था और लड़खड़ाते पूंजीपतियों को संभालने के लिए बेलआउट कार्यक्रम चलाया था और अमेरिकी कांग्रेस के मूल आवंटन को 10 गुना बढ़ाते हुए ‘ऋण, ऋण गारंटी और अन्य निवेशों’ के लिए 454 बिलियन डॉलर से 4.54 ट्रिलियन डॉलर की सहायता राशि दी गयी थी। तक़रीबन 4.586 ट्रिलियन डॉलर, यानी सीधे-सीधे सार्वजनिक कर-वित्त पोषित CARES अधिनियम के पैसे से हासिल किये जाने वाले कुल 6.286 ट्रिलियन डॉलर की लगभग 75% राशि देश की सबसे बड़ी और सबसे मालदार कंपनियों को 'बचाने' में चली गयी थी।

लेकिन, वहीं बेतरह बढ़ती बेरोज़गारी के चलते लोगों और परिवारों को नक़दी के सीधे भुगतान के लिए महज़ 603 बिलियन डॉलर ही आवंटित किये गये, जबकि बेरोज़गारी बीमा के लिए 260 बिलियन डॉलर, और छात्र ऋणों के लिए सिर्फ़ 43 बिलियन डॉलर का आवंटन किया गया। लंबे समय तक बड़ी पूंजी के पक्ष में बोलते रहे राष्ट्रपति बाइडेन अब भी एकल-भुगतानकर्ता चिकित्सा बीमा बिल पर हस्ताक्षर करने को लेकर हिचकिचा रहे हैं। महामारी के चलते आम अमेरिकी को होने वाले नुकसान के बावजूद, वह अब भी एक ऐसे 'मेडिकेयर-जैसे क़ानून के विकल्प पर विचार कर रहे हैं, जो एक संक्रमणकालीन क़ानून के तौर पर काम करेगा और भविष्य में एक मेडिकेयर- सभी एकल-भुगतान प्रणाली का मार्ग प्रशस्त करेगा।' हक़ीक़त तो यही है कि यह आधा-अधूरा क़ानून एक बार फिर से यथास्थिति में लौटने का रास्ता साफ़ कर देगा, जबकि महामारी थम गयी है और बीमा कंपनियों की तरफ़ से की जा रही लॉबिंग नये सिरे से शुरू हो गयी है। 

इस तरह के समृद्ध देशों की सरकारों ने सब्सिडी (वैश्विक प्रोत्साहन राशि 16 ट्रिलियन डॉलर की है) के साथ क़दम बढ़ाया है, वहां आख़िरकार ग़रीबों को ही कठोर उपायों और कल्याणकारी योजनाओं में कटौती के ज़रिये अपनी क़ीमत चुकानी होगी। ऑक्सफ़ेम की रिपोर्ट के मुताबिक़, इस महामारी के दौरान अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) से मंज़ूर 91 ऋणों में से 76 ऋण की शर्त सार्वजनिक क्षेत्र में कटौती, मज़दूरी नियंत्रण और स्वास्थ्य सेवा की सब्सिडी ख़त्म किये जाने जैसे कठोर उपायों की मांग थी।

भारत में जिस निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र के विकास को लेकर बढ़ा-चढ़ाकर दावे किये जाते रहे हैं, वह भी बहुत ज़्यादा विकास दर दे पाने में विफल रहा है। इसकी नाकामी असल में इसके उचित विकास की रही है, क्योंकि इसका ध्यान महज़ मुनाफ़े पर रहा है और सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर इसकी कोई दीर्घकालिक चिंता नहीं रही है, और न ही वैश्विक महामारी को लेकर कोई चिंता रही है। सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा पर भारत के सकल सकल घरेलू उत्पाद का ख़र्च 1% है और यह 1991 में नव-उदारवादी सुधारों की शुरुआत के समय के अनुपात, यानी जीडीपी के 1.3% से नीचे गिर गयी है। भारत में ठोस सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा की कमी के चलते 80% शहरी और 85.9% ग्रामीण बिना किसी स्वास्थ्य कवरेज के जी रहे हैं।

आम भारतीय इस टूटे हुए ढांचे के भार के नीचे दबे हुए हैं, जबकि महामारी ने पूरी ताक़त के साथ उन पर चोट की है। उन्हें बेरहमी के साथ निजी अस्पतालों में बेहद ऊंची दरों पर इलाज कराने को लेकर मजबूर किया जा रहा है। किसी कोविड-19 मरीज़ के प्राथमिक उपचार पर औसतन 20, 000-30, 000 रुपये (वेंटिलेशन सपोर्ट के बिना) प्रति दिन की रक़म ख़र्च होता है। और ऐसा तब है, जब प्रति व्यक्ति शुद्ध राष्ट्रीय आय (NNI) 1, 26, 000 रुपये है। दूसरे शब्दों में कहा जाये, तो निजी अस्पताल में 14 दिन बिताने से एक आम भारतीय को अपनी पूरी की पूरी वार्षिक आय को लुटाना पड़ सकता है और वह क़र्ज़े के बोझ के हवाले हो सकता है।

निजी अस्पतालों पर निर्भर रहने की अपरिहार्यता इसलिए है, क्योंकि भारत में कुल 43, 486 निजी अस्पताल, 10 लाख 80 हज़ार बेड, 59, 264 आईसीयू और 29, 631 वेंटिलेटर हैं, जबकि महज़ 25, 778 सार्वजनिक अस्पताल, 713, 986 बेड, 35, 700 आईसीयू और 17, 850 वेंटिलेटर मौजूद हैं (ये 2020 पर आधारित अनुमान हैं)। कुल मिलाकर भारत का 62% स्वास्थ्य ढांचा निजी हाथों में है, और इनके मालिक अच्छे-ख़ासे पैसे बना रहे हैं।

इस अभूतपूर्व स्वास्थ्य संकट को देखते हुए न तो राज्य सरकारें और न ही केंद्र सरकार निजी अस्पतालों को अपने हाथ में लेने की योजना बना रही हैं और निजी ख़ज़ाने में सार्वजनिक धन के एक बड़ा हिस्से को जाने से नहीं रोक रही है। छत्तीसगढ़ जैसे कुछ राज्यों ने पूर्ण अधिग्रहण का आदेश दे तो दिया था, लेकिन एक दिन के भीतर ही उसने अपना फ़ैसला वापस ले लिया। पिछले साल स्पेन ने सभी निजी स्वास्थ्य सेवा इकाइयों का राष्ट्रीयकरण कर दिया था, जब सक्रिय कोविड-19 मामलों की कुल संख्या 10, 000 से भी कम थी।

कोविड-19 ने पूंजीवाद के चेहरे से नक़ाब को उतार दिया है और भारत में भी उसका असली चेहरा उजागर हो गया है। जो वर्ग विभाजन छुपा हुआ था, वह इस हद तक बेपर्दा हो गया है कि प्रगतिशील ताक़तें इस समय अगर इस पर चोट करने का फ़ैसला कर लेती हैं, तो उत्पीड़न की इस निर्मम और हृदयहीन व्यवस्था का भारी नुकसान हो सकता है।

अगर कुछ और नहीं, तो कम से कम सार्वभौमिक स्वास्थ्य सेवा की बहस को धरातल पर लाया ही जाना चाहिए। सरकार को इंग्लैंड की तर्ज पर नेशनल हेल्थ सर्विस स्कीम को लागू करने के लिए मजबूर किया जाना चाहिए। वह नेशनल हेल्थ सर्विस स्कीम ब्रिटेन में युद्ध के बाद पैदा होने वाली परिस्थितियों का नतीजा थी। ब्रिटिश श्रमिक वर्ग से समर्थित श्रमिक नेता और स्वास्थ्य मंत्री, एन्यूरिन बेवन ने उस नेशनल हेल्थ सर्विस (NHS) की शुरुआत की थी, जिसके ज़रिये सरकार ने सभी चिकित्सा सेवाओं की ज़िम्मेदारी ली थी और जिसमें ब्रिटेन के सभी लोगों के लिए रोग-परीक्षण और इलाज मुफ़्त थे।

दुर्भाग्य से भारत के स्वास्थ्य मंत्री कोई बेवन तो हैं नहीं और भाजपा कामगार ग़रीबों की पार्टी भी नहीं है। यह सरकार इस तरह का कोई भी क़ानून कभी पारित नहीं करेगी। महामारी के थमने के बाद, यह भाजपा बड़ी पूंजी का समर्थन करने के अपने सामान्य सरोकार पर फिर वापस आ जायेगी और लोगों को धार्मिक आधार पर विभाजित करेगी।इसे रोका जा सकता है, लेकिन इसके लिए भारत के लोगों को एक साथ आना होगा और आमूल-चूल परिवर्तन की मांग करना होगा। तभी इस ‘सिस्टम’ को चोट पहुंचायी जा सकती है। 

(लेखक कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के वर्ल्ड हिस्ट्री डिपार्टमेंट में एक रिसर्च स्कॉलर हैं। इनके विचार निजी हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

The Real ‘System’ Behind India’s COVID-19 Crisis: Capitalism

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