भारत में कोविड-19 के दौरान मोदी राज में कैसे विज्ञान की बलि चढ़ी

न्यूयार्क टाइम्स ने करीब दो हफ्ते पहले (14 सितंबर 2021) को एक लेख छापा। यह लेख विस्तार से बताता है कि किस तरह कोविड की दूसरी घातक लहर के दौरान भारत में राजनीतिक तकाजे, विज्ञान पर हावी रहे थे। यह एक युवा वैज्ञानिक डा. अनूप अग्रवाल के संघर्ष पर आधारित है जिन्होंने देश की शीर्षस्थ वैज्ञानिक व स्वास्थ्य एजेंसी, इंडियन काउंसिल ऑफ मैडीकल रिसर्च को दूसरी लहर आने के लक्षणों के बारे में आगाह करने की कोशिश की थी और उसे चेताया था कि तथाकथित सुपर मॉडल पर आधारित नीति, देश के लिए सत्यानाशी साबित होगी। डा. अग्रवाल उस सब के बाद से देश छोडक़र बाहर भी जा चुके हैं।
बहरहाल, दूसरी लहर के खतरे के संबंध में सरकार को आगाह करने वाले डा. अग्रवाल अकेले नहीं थे। दूसरे अनेक वैज्ञानिकों तथा वैज्ञानिक संस्थाओं ने भी चेतावनी दी थी कि दूसरी लहर की बहुत भारी संभावनाएं हैं और सरकार जिस सुपर मॉडल पर भरोसे किए बैठी थी, वह गणितीय दृष्टि से भी और महामारीविज्ञानी दृष्टि से भी बेकार था।
लेकिन, सरकार तो इस तरह की कोई बात सुनना ही नहीं चाहती थी। उसकी नजरें तो बस तमिलनाडु, केरल, असम और बंगाल के चुनावों पर ही लगी हुई थीं। 2021 की जनवरी में डावोस के विश्व आर्थिक मंच के शिखर सम्मेलन में नरेंद्र मोदी कोविड-19 पर ‘जीत’ का एलान कर चुके थे और उसके बाद सरकार को ऐसी कोई बात सुनना मंजूर ही नहीं था, जो जीत के इस एलान के खिलाफ जा रही थी। और जाहिर है कि हरिद्वार में कुंभ मेला होना था जिसके लिए महामारी फैलने के सारे जोखिम के बावजूद इजाजत दे दी गयी थी।
इतना ही नहीं, जब 2021 के अप्रैल में कोविड-19 की दूसरी लहर, बहुत बड़ी संख्या में जानें लील रही थी और अस्पतालों में बैडों से लेकर चिकित्सकीय आक्सीजन तक का भारी अकाल पड़ा हुआ था। मोदी और अमित शाह बंगाल में चुनाव अभियान में ही व्यस्त थे। याद रहे कि कोविड-19 की दूसरी लहर को देखते हुए वामपंथी पार्टियों तथा दूसरी पार्टियों द्वारा भी बंगाल में अपनी जनसभाएं रोके जाने के भी करीब दो हफ्ते बाद ही, मोदी ने अपनी जनसभाएं करना बंद किया था। जाहिर है कि बंगाल में महामारी के फैलने में कुछ मदद चुनाव आयोग के इस राज्य में देश का अब तक का सबसे लंबे अर्से तक चलने वाला चुनाव कराने के फैसले ने भी की। इसी सब का नतीजा था कि दूसरी लहर के दौरान जो निर्णय लिए जा रहे थे उनमें विज्ञान और समझदारी की आवाजों का कोई दखल ही नहीं था।
न्यूयार्क टाइम्स के लेख ने अब उजागर कर दिया है कि किस तरह भारत की प्रमुख वैज्ञानिक संस्थाओं को फौरी राजनीतिक तकाजों की कठपुतली बनाकर रख दिया गया था। इसमें इस संस्था के भीतर की एक शख्शियत की आपबीती के जरिए बताया है कि किस तरह आइसीएमआर द्वारा ‘सरकारी आख्यान’ पर किसी भी तरह से सवाल उठाए जाने को हतोत्साहित किया जा रहा था। इसमें वैज्ञानिकों की आवाज को दबाने के लिए अनुशासनात्मक कार्रवाइयों की धमकियां तक शामिल थीं। इस रिपोर्ट में इसका विवरण भी दिया गया है कि किस तरह ऐसे पेपर प्रकाशित ही नहीं होने दिए जा रहे थे या उन्हें वापस लेने पर मजबूर किया जा रहा था, जो सरकारी आख्यान का समर्थन नहीं करते थे। चूंकि यह विश्व स्तर की खबर है, इसलिए खुद हमारे देश में भी खबर बनी है। लेकिन, सच्चाई यह है कि अनेक वैज्ञानिक तथा स्वास्थ्य विशेषज्ञ, सरकार की नाराजगी मोल लेकर भी, महामारी के पूरे दौर में खुलकर सार्वजनिक रूप से सच बोलते रहे हैं। भारत के समाचार संगठनों ने जिसमें परंपरागत और डिजिटल, दोनों तरह के समाचार मंच शामिल हैं, कोविड-19 की महामारी को संभालने में मोदी सरकार की विफलताओं पर आलोचनात्मक टिप्पणियां प्रस्तुत की हैं और सरकार की नाराजगी के बावजूद इन विचारों को सार्वजनिक किया है। इनमें लोकलहर के स्तंभ ‘समाज और विज्ञान’ की टिप्पणियां भी शामिल हैं। आल इंडिया पीपल्स साइंस नैटवर्क तथा जन स्वास्थ्य अभियान ने इसी दौर में कई वक्तव्य जारी कर उन्हीं चिंताओं को स्वर दिया था, जिन्हें अब न्यूयार्क टाइम्स ने सारी दुनिया को सुना दिया है। इसलिए, हमें यह नहीं लगना चाहिए कि डा. अग्रवाल, भारतीय वैज्ञानिक समुदाय के बीच से उक्त चिंताओं को उठाने वाली इकलौती या अकेली आवाज थे।
आइए, हम पहले सार्वजनिक स्वास्थ्य संस्थाओं तथा वैज्ञानिक संस्थाओं के हस्तक्षेप से ही शुरू करते हैं। तीन प्रमुख स्वास्थ्य संस्थाओं– इंडियन पब्लिक हैल्थ एसोसिएशन (आइपीएचए), इंडियन एसोसिएशन ऑफ प्रिवेंटिव एंड सोशल मैडिसिन (आइएपीएसएम) और इंडियन एसोसिएशन ऑफ इपीडोमोलोजिस्ट्स (आइएई)– ने एक के बाद एक कई बयान जारी कर, महामारी को संभालने में सरकार की विफलताओं को उजागर किया था। सरकार की असली विफलता, एक स्वास्थ्य तथा महामारी के रूप में कोविड-19 की चुनौती से निपटने में उतनी नहीं थी, जितनी ‘प्रशासनिक’ चुनौती के रूप में महामारी से निपटने में थी। इसी नाकामी की अभिव्यक्ति पहली लहर को रोकने में इसके लिए आजमाए गए अतिचारी लॉकडाउन की विफलता के रूप में सामने आयी थी। 25 मई 2020 को इन संगठनों ने लिखा था: ‘भारत का, 25 मार्च 2020 से 31 मई 2020 तक का देशव्यापी ‘‘लॉकडाउन’’ सबसे कड़े लॉकडाउनों में से रहा है; इसके बावजूद इस चरण में कोविड के मामले बेतहाशा तेजी से बढ़े हैं और 25 मार्च के 606 केस से बढक़र, 24 मई को 1,38,945 पर पहुंच गए।’
पुन: उसी बयान में यह भी कहा गया है कि, ‘खासतौर पर राष्ट्रीय स्तर पर, परस्पर-संगतिहीन तथा अक्सर बड़ी-बड़ी जल्दी बदलती रणनीतियां तथा नीतियां, नीति निर्माताओं के स्तर पर बाद में ध्यान आने तथा पीछे से भागकर पकडने की कोशिश की परिघटना को ही ज्यादा प्रतिबिंबित करती हैं, न कि किसी सुचिंतित, सुसंगत रणनीति को जिसके पीछे महामारी वैज्ञानिक आधार हो।’ सीधे-सरल शब्दों में कहें तो महामारी को संभालने के सरकार के प्रयासों में महामारी की वैज्ञानिक समझ का ही अभाव था।
कोविड महामारी को संभालने में दूसरी गड़बड़ी जो कि अब भी चलती ही जा रही है इससे निपटने के लिए इंडियन काउंसिल आफ मैडीकल साइंसेज द्वारा दवाओं के अनुमोदन के मामले हैं। मिसाल के तौर पर हाइड्रोक्लोरोक्वीन तथा आइवरमेक्टिन के विस्तृत परीक्षण यह दिखा चुके हैं कि कोविड-19 के मामले में ये दवाएं बिल्कुल कारगर नहीं हैं। इसके बावजूद, इन दवाओं को प्रमोट किया जा रहा है।
कोविड-19 के लिए आइसीएमआर की 17 मई 2021 की गाइडलाइन्स में जो आइसीएमआर तथा स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा जारी की गयीं अब तक कोविड-19 के उपचार के लिए इन दोनों दवाओं की सिफारिश की जा रही है। न्यूयार्क टाइम्स का कहना है कि यह मोदी पर ट्रम्प-बोल्सेनेरो प्रभाव का मामला है। लेकिन, इसके बजाय यह उस टीकाविरोधी तथा विज्ञानविरोधी अभियान का सामना करने से कतराने का मामला भी हो सकता है जिसने भारत में भी सोशल मीडिया के एक बड़े हिस्से को अपने कब्जे में ले लिया है।
विज्ञान की यह अनदेखी कोविड-19 की महामारी को संभालने की मोदी सरकार की कोशिशों के पूरे दौर में ही बनी रही। लेकिन, पहली और दूसरी लहरों के बीच के दौर में विज्ञान की यह अनदेखी सबसे नंगे रूप में देखने को मिली। इस दौर में मोदी सरकार विज्ञान के साथ जिस तरह का सलूक कर रही थी उसकी दो प्रमुख विशेषताएं थीं। पहली थी– एक बेहद दोषपूर्ण ‘‘सुपर मॉडल’’ के सहारे कोविड-19 पर पूरी तरह से जीत का एलान करना। दूसरी विशेषता थी– इस साल के शुरू में ऐसे तमाम वैज्ञानिक डाटा की पूरी तरह से अनदेखी, जो यह दिखा रहा था कि भारत में, कोविड का एक नया, कहीं ज्यादा संक्रामक वैरिएंट उभर रहा था और इसलिए दूसरी लहर का खतरा सिर पर खड़ा था।
मोदी सरकार ने कुछ ऐसे मॉडलरों को इकट्ठा किया था, जिन्हें महामारी पर जीत का एलाने करने का ही काम दिया गया था। डिपार्टमेंट ऑफ साइंस एंड टैक्रोलॉजी (डीएसटी) के सुपर मॉडल में नेतृत्वकारी भूमिका संभाल रहे तीन लोगों ने एक पेपर लिखा था जो इंडियन जर्नल ऑफ मैडीकल रिसर्च में छापा गया था जिसमें हैरान करने वाले दावे किए गए थे:
- दो प्रकार के लोग हैं, कुछ जो सिम्प्टोमेटिक ही बने रहते हैं और कुछ जो गंभीर रूप से इस संक्रमण से बीमार पड़ते हैं;
- कोविड-19 की महामारी 2020 के उत्तराद्र्घ में उतार पर थी और 2021 की फरवरी तक भारत से गायब हो जाएगी;
- भारत में 38 करोड़ लोग पहले ही इस वाइरस से संक्रमित हो चुके थे और वह झुंड प्रतिरोधकता (हर्ड इम्यूनिटी) की ओर बढ़ रहा हो, यह संभव है।
मॉडलिंग की इस समझदारी की तीखी आलोचना हुई थी। प्रोफेसर गौतम मेनन ने, जो खुद एक मॉडलर तथा महामारीविद हैं, इसकी ओर ध्यान खींचा था कि कोविड-19 महामारी में ऐसा कुछ भी नहीं था जो यह दिखाता हो कि संक्रमण के अलग-अलग स्तरों वाले लोगों में अपने आप में कोई अंतर है। इसके उलट लोगों के वाइरस से एक्सपोजर के और उनकी रोग-प्रतिरोधकता के स्तर जरूर अलग-अलग हो सकते हैं। उन्होंने यह भी बताया था कि किस तरह डीएसटी के सुपर मॉडल में न सिर्फ एक अतिरिक्त पैरामीटर जोड़ा गया था बल्कि उसमें पैरामीटरों को लगातार बदलते रहा जा रहा था और इस तरह 3 पैरामीटरों के मॉडल से शुरू कर यह 24 पैरामीटरों पर आधारित मॉडल बन गया था। इससे उसकी कोई भी विश्वसनीय पूर्वानुमान करने की सामथ्र्य कहो रही थी।
शीर्ष वैज्ञानिक प्रकाशन साइंस के साथ बातचीत में टी जैकब जॉन ने जो क्रिश्चियन मैडीकल कॉलेज में वाइरॉलाजी विभाग के प्रमुख रहे थे, इस पर रौशनी डाली कि क्यों एक राष्ट्रीय महामारी के मॉडलों ने काम ही नहीं किया। ‘राष्ट्रीय महामारी तो ‘‘एक सांख्यिकीय संकल्पना मात्र है’’। इसके बजाए अलग-अलग राज्यों तथा शहरों में 100 या उससे भी ज्यादा छोटी-छोटी महामारियां हैं जो अलग-अलग वक्त पर बढ़ तथा घट रही हैं।’ इस तरह, खुद सरकारी एजेंसियों में और उनके बाहर भी ऐसी पर्याप्त वैज्ञानिक आवाजें थीं जो आगही कर रही थीं कि सरकार जो सुनना चाहती थी, उसे ही प्रचारित करने भर के लिए ऐसे तथाकथित सुपर मॉडल को सिर पर बैठाने के नतीजे खतरनाक हो सकते हैं।
इसी प्रकार सार्स कोव-2 के कहीं ज्यादा संक्रामण वैरिएंट के उभार के संबंध में जिसे अब डेल्टा वैरिएंट के नाम से जाना जाता है, मोदी सरकार को पहले से 2021 के मार्च आरंभ में ही चेतावनी मिल गयी थी। समाचार एजेंसी रायटर्स ने 1 मई 2021 को खबर दी थी कि भारतीय सार्स कोव-2 जैनेटिक कंसोर्शियम या आइएनएसएसीओजी ने, मार्च के शुरू में ही एक नये और कहीं ज्यादा संक्रामक वैरिएंट के संबंध में चेतावनी दे दी थी। यह बात एक शीर्ष अधिकारी को बता दी गयी थी, जो सीधे प्रधानमंत्री को रिपोर्ट करता था यानी या तो आइसीएमआर के प्रमुख को या प्रधानमंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार को। लेकिन इसके बावजूद भी क्यों सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था को मजबूत करने के लिए और चिकित्सकीय आक्सीजन की आपूर्ति बढ़ाने के लिए (जो कि कोविड-19 के गंभीर मामलों के लिए सबसे महत्वपूर्ण ‘‘दवा’’ थी) कोई कदम नहीं उठाए गए? इसके बजाए, इस दौरान बड़ी-बड़ी जन सभाएं की गयीं, चुनाव की प्रक्रिया को लंबे से लंबा खींचा गया ताकि भाजपा के राष्ट्रीय नेता ज्यादा से ज्यादा राज्यों के दौरे कर सकें और वहां ज्यादा से ज्यादा रैलियां कर सकें और इन रैलियों के मंचों पर और सभाओं में पूरी तरह से कोविड-अनुपयुक्त आचरण का प्रदर्शन कर सकें।
न्यूयार्क टाइम्स की रिपोर्ट मौजूदा सरकार द्वारा विज्ञान की सरासर उपेक्षा किए जाने की ही पुष्टि करती है, जिसके बारे में भारत में हम पहले से बखूबी जानते थे। इस टिप्पणी को मैं रायटर्स से बातचीत में देश की दो प्रमुख वैज्ञानिक हस्तियों ने जो कुछ कहा था, उस से ही खत्म करना चाहूंगा। आइएनएसएसीओजी के वैज्ञानिक सलाहकार ग्रुप के अध्यक्ष शाहिद जमील ने कहा था: ‘मुझे फिक्र है कि नीति को संचालित करने के लिए, विज्ञान को हिसाब में नहीं लिया गया।’ आइएनएसएसीओजी में ही शामिल, सेंटर फॉर सेलुलर एंड मॉलीक्यूलर बॉयलाजी के निदेशक राकेश मिश्रा खिन्न थे। ‘हम बेहतर कर सकते थे। हमारे विज्ञान को और ज्यादा महत्व दिया जा सकता था...विनम्र पैमाने पर हमारा जितना भी प्रेक्षण था, उसका बेहतर उपयोग किया जाना चाहिए था।’ कोविड-19 से निपटने में मोदी सरकार विफलताओं ने जो अनेक बलियां ले लीं, उनमें एक बलि विज्ञान की भी थी।
अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें
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