सोनभद्र का अछूतापन

पिछले महीनें के अंतिम पखवाडें में उत्तर प्रदेश के दूसरे सबसे बड़े ज़िले सोनभद्र में पुलिसिया दमन की घटना घटी। इस दमनात्मक घटना पर 'ऑल इंडिया यूनियन ऑफ़ फॉरेस्ट वर्किंग पीपल' द्वारा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को लिखे गए शिकायती पत्र के मुताबिक 18 जून को सोनभद्र जिले के थाना मयूरपुर की पुलिस ने 18 आदिवासी महिलाओं को जंगल से पेड़ काटने के आरोप में गिरफ्तार किया । इनकी गिरफ्तारी के दौरान कोई भी महिला पुलिस ऑफिसर पुलिस टीम में शामिल नहीं थी। 'सिटीजन फॉर जस्टिस एंड पीस' नामक एनजीओ के हस्तक्षेप के बाद गैरकानूनी तरीके से पुलिस हिरासत में रखी गयी आदिवासी महिलाओं को पुलिस ने रिहा किया। कुछ दिन बाद फिर से 21 जून को मयूरपुर थाने के गाँव लिलासी के आदिवासियों के साथ वन विभाग और पुलिस ने दमनात्मक कार्रवाई की। इस हिंसक कार्रवाई में कई महिलाएं और बच्चें बुरी तरह से जख्मी हुए। इस कार्रवाई के लिए भी पुलिस ने आदिवासियों द्वारा जंगलों से पेड़ की कटाई को कारण के रुप में बताया। तकरीबन 24 आदिवासियों पर पुलिस ने झूठे मामलें गढ़ दिए हैं। ये आदिवासी पुलिस के डर से जंगलों में मारे-मारे गुज़र बसर कर रहे हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इसे अपने संज्ञान में ले लिया है और सोनभद्र ज़िला प्रशासन को 4 सप्ताह के भीतर इस मामले की तहकीकात के संबंध में रिपोर्ट प्रस्तुत करने का आदेश दिया है । इस घटना के परिपेक्ष्य में हमें सोनभद्र की अछूती पहचान पर भी एक नज़र फेरनी चाहिए ताकि हम समझ सकें कि ऐसी घटनाएं किसी एक दिन का वाकया नहीं है बल्कि सोनभद्र के आदिवासी ऐसी घटनाओं का लम्बें समय से सामना करते आ रहे हैं।
जब हम आदिवासियों के विषय में बात करते हैं तो हमारा ध्यान भारत के किसी भी राज्य पर जाए लेकिन उत्तर प्रदेश पर नहीं जाता है। हम इस बात से अनभिज्ञ रहते हैं कि उत्तरप्रदेश में भी आदिवासियों की बसावट है। हमारा ध्यान सोनभद्र जिले के वन्य क्षेत्र की तरफ नहीं जाता है, जहां तकरीबन 70 फीसदी आबादी आदिवासियों की है, जहां गोंड,करवार,पन्नीका,भुइयां,बैगा,चेरोन,घासिया,धारकार और धौनर जैसी प्रमुख जनजातियां सदियों से निवास करती आ रही हैं।
इनमें से अधिकांश आदिवासी गाँवों की ज़िंदगी की रोज़ी-रोटी जंगलों के सहारे चलती है। ये लोग जंगलों से तेन्दु पत्ते, शहद, जलावन लकड़ियां, परम्परागत औषधियां इकठ्ठा करते हैं और इसे स्थानीय बाज़ार में बेचकर अपनी रोज़ी रोटी का इंतज़ाम करते हैं। कुछ आदिवासियों के पास ज़मीन के छोटे टुकड़े भी हैं जिनपर धान या सब्ज़ियों की खेती कर उनकी ज़िंदगी गुज़रती है। मौजूदा समय में भी अपनी रोजी रोटी इंतज़ाम करने का बेतरतीब तरीका इनकी ज़िंदगी को समझने के लिए मजबूर करता है.
भारतीय संस्कृति का इतिहास है कि राज्य ने तो जंगलों का इस्तेमाल संसाधन के तौर पर किया लेकिन यहां के निवासियों की हमेशा उपेक्षा हुई। अंग्रेजी हुकूमत ने तो बकायदे कानून बनाकर आदिवासियों के अधिकार को जंगल से बेदखल कर दिया गया ताकि जंगल के संसाधन का इस्तेमाल अंग्रेज अपने हितों के लिए कर सकें। आजादी के बाद भी जंगल का यह कानून लागू रहा और जंगल के निवासियों को अपने अधिकार के लिए भारतीय राज्य से लगातार लड़ना पड़ा। आदिवासियों और नागरिक समाज के लम्बें संघर्ष के बाद साल 2006 में 'अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) कानून' पारित हुआ।
इस कानून को पारित हुए 11 साल हो गए हैं। लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि भारत के हर वन्य क्षेत्र में अभी भी इस कानून को लागू करने की लड़ाई लड़ी जा रही है। इस कानून के तहत अब भी अधिकांश आदिवासियों को जमीन का मालिकाना हक नहीं मिला है। वे अब भी जमीन के मालिकाना हक के लिए वन विभाग से निवेदन से लेकर विरोध तक की सारी लड़ाईयां लड़ रहे हैं। और सरकारी हुकूमत इसी वनाधिकार कानून के एक प्रावधान, जिसमें आदिवासियों द्वारा जंगलों के पेड़ की कटाई की मनाही है, का फायदा उठाकर उनके साथ जमकर हिंसक कार्रवाई करती रहती है। सरकारें आदिवासी विरोध को कुचलने के लिए झूठे मामले बनाकर आदिवासियों को जेल में डालती रहती हैं। सोनभद्र में होने वाला आदिवासी विरोध भी सरकार की इन कारगुज़ारियों से अछूता नहीं है।
यह सच्चाई है कि विकास की दौड़ में आदिवासी समुदाय सबसे पीछे है। इस सच्चाई के साथ जब राज्य का विकास मॉडल आदिवासी समुदाय के जीवन पर हमला करता है तो आदिवासी समाज की बेहतरी के लिए की जा रही सभी तरह की बातें बेईमानी लगने लगती हैं। सोनभद्र के जन-जीवन के साथ भी इसी तरह की बेईमानी का बरताव बरता जा रहा है। आज़ादी के बाद से ही उत्तर प्रदेश का यह जिला बेतरतीब विकास का शिकार रहा है.
सोनभद्र जिलें में तकरीबन 10 पॉवर प्लांट हैं ,कई सीमेंट और एल्युमीनियम के कारखानें हैं, कई कोयला खनन क्षेत्र हैं। आधुनिक विकास की इन जरूरतों ने मिलकर अपने अपशिष्ट पदार्थ की निकासी से इस पूरे क्षेत्र की जलीय पारितंत्र को तबाह कर दिया है। उत्तर प्रदेश सरकार के आंकड़ों के तहत इस जिलें के 600 गांवों में से तकरीबन 250 से ज्यादा गाँवों के भूमिगत जल में फ्लूराइड की मात्रा बहूत अधिक हो गयी है । इसकी वजह से इनमें से कुछ गाँवों के बच्चों का बचपन जीवनभर परेशान करने वाली बिमारियों का शिकार हो रहा है। यहां के बच्चों में बचपन में ही दाँत घिसने लगते हैं, पैर कमजोर हो जाते हैं और कमर झुक जाती है. यहां के लोगों में फ्लूरोसिस जैसी बीमारी आम हो चली है। शोधकर्ताओं का कहना हैं कि सोनभद्र के कई गाँवों में हवा और जल पूरी तरह से विषैली हो गयी है।
इसके साथ कान्हार नदी पर बाँध बनाने की परियोजना सोनभद्र जिले के आदिवासी गाँवों को कई दशकों से बुरी तरह से प्रभावित कर रही है। छत्तीसगढ़,झारखंड और उत्तरप्रदेश में बहने वाली इस नदी पर बाँध बनाने की परियोजना का शिलान्यास साल 1976 में ही हो चूका था. सिंचाई विभाग के दस्तावेज़ बताते हैं कि तब से लेकर अब तक इस बाँध पर करोड़ों खर्च हो चुके हैं लेकिन बाँध अभी तक बना नहीं है। कई बार काम शुरू करके बीच में ही रोक दिया गया। जिसका सबसे बुरा परिणाम आदिवासी समुदाय ने भुगता है। वह कई दशकों से हर दिन विस्थापन के भय में अपनी जिंदगी जीता आ रहा है। इस बाँध की वजह से तकरीबन तीन राज्य में फैले 80 गांव के लोगों और 2000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र की जैव विविधता को तबाह होने का खतरा है। कान्हार को बचाने के लिए कान्हार बचाओ आंदोलन इस क्षेत्र में सक्रिय है।
इस तरह से सोनभद्र के आदिवासियों का जन-जीवन एक ऐसे क्षेत्र की दास्तान है जिससे हम अपनी आदिवासी निवास स्थान की धारणाओं की वजह से पूरी तरह से अनभिज्ञ रहते हैं।
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