“कहां तो तय था चराग़ाँ….” CM योगी के वायदे और प्रति व्यक्ति आय में पिछड़ता यूपी

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों का डंका बज चुका है। दावेदार उसी तरह से खेल रहे हैं जिस तरह से खेलते आए हैं। अब्बा जान जैसे पवित्र शब्द का इस्तेमाल कर सांप्रदायिकता की आग लगाई जा रही है। विश्लेषण करने वाले जातियों का समीकरण देख रहे हैं। ओबीसी की मजबूत जातियां बनाम ओबीसी की कमजोर जातियां। दलित और मुसलमान इधर जाएंगे या उधर जाएंगे। यह सब चुनावी राजनीति के फ्रंट सीट पर बैठे हुए मुद्दे हैं। यही भारतीय राजनीति के विमर्श का दुर्भाग्य है और यही दुर्भाग्य क्रूर हकीकत भी है। तो हकीकत की इस क्रूर दुनिया को छोड़ कर चुनावी राजनीति को उस जगह से आंकने की कोशिश करते हैं, जो अगर विमर्श का केंद्र बन जाए तो सभी दावेदार चाहे जितना भी लड़े अंत में भला आम लोगों का ही होता है।
ऐसे ही एक जरूरी मुद्दे का नाम है कि आखिरकार उत्तर प्रदेश की एक व्यक्ति की कमाई कितनी है। अगर योगी सरकार अपने राजकाज में लोगों की भलाई का दावा कर रही है तो यह परखने का सबसे शानदार तरीका तो यही हो सकता है कि जाना जाए कि क्या वाकई लोगों की आमदनी बढ़ी है या नहीं? यह सवाल भले राजनीति का केंद्र बिंदु ना बनता हो लेकिन यह सवाल आज की दुनिया में हर एक व्यक्ति की पूरी जिंदगी की दशा निर्धारित करता है। इसलिए यही सवाल बहुत अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। अगर जेब में पैसा है तभी रोटी है, कपड़ा है, मकान है। शिक्षा है, स्वास्थ्य है, मानसिक विकास है। बदहाली से दूर जाकर खुशहाली की संभावना है।
देश की केंद्रीय बैंक यानी रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया, हैंड बुक ऑफ स्टेटिस्टिक्स ऑफ इंडियन इकॉनमी नाम से एक सालाना रिपोर्ट जारी करती है। इस साल की यह रिपोर्ट हाल में ही प्रकाशित हुई है। इस रिपोर्ट में भारत के आर्थिक हालात को बताने वाले तरह-तरह के आंकड़े प्रस्तुत किए जाते हैं। जिसमें 'पर कैपिटा नेट डोमेस्टिक प्रोडक्ट' नाम से एक आंकड़ा प्रस्तुत किया जाता है। साधारण शब्दों में कहा जाए तो राज्य में प्रति व्यक्ति कमाई का आंकड़ा।
दुनिया की कई रिसर्च बताती हैं कि प्रति व्यक्ति कमाई और लोकतंत्र के बीच में बहुत गहरा संबंध है। जहां पर प्रति व्यक्ति कमाई का स्तर ऊंचा था वहां पर लोकतंत्र अपने कदम आगे बढ़ा रहा था। जहां पर प्रति व्यक्ति कमाई का स्तर कम था वहां पर लोकतंत्र पीछे कदम बढ़ा रहा था। उत्तर प्रदेश में प्रति व्यक्ति आमदनी साल 2020-21 में महज ₹44,600 रही। जोकि भारत की औसतन प्रति व्यक्ति कमाई (₹95,000) के आधे से भी कम है। तो इस आप यह अनुमान लगा सकते हैं कि उत्तर प्रदेश में लोकतंत्र की हालत क्या होगी? यह किधर जा रहा होगा।
चूँकि उत्तर प्रदेश का भूगोल बहुत बड़ा है। इसकी आबादी तकरीबन 20 करोड़ है। इसलिए भारत में कई राज्यों के मुकाबले उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था बहुत बड़ी है। योगी आदित्यनाथ कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री के पांच ट्रिलियन डॉलर वाली भारत की अर्थव्यवस्था के लक्ष्य में उत्तर प्रदेश की भागीदारी एक ट्रिलियन डॉलर की होगी। उत्तर प्रदेश को एक ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाना है। अपनी समझने वाली भाषा में कहा जाए तो तकरीबन 73 लाख करोड़ की अर्थ व्यवस्था बनाने की बात योगी आदित्यनाथ कह रहे हैं। जबकि हकीकत यह है कि साल 2020-21 में उत्तर प्रदेश की कुल अर्थव्यवस्था महज 17 लाख करोड़ की थी। यानी आप कह सकते हैं कि लक्ष्य और हकीकत के बीच इतना अधिक फासला है कि योगी आदित्यनाथ का वादा जनता के बीच एक नया जुमला फेंकने से ज़्यादा नहीं लगता।
साल 2018 से लेकर 2020 तक योगी आदित्यनाथ के 3 साल के राज में उत्तर प्रदेश में प्रति व्यक्ति आमदनी बढ़ने की दर महज 2.9 फ़ीसदी थी। जबकि इसी दौर में देशभर में औसतन प्रति व्यक्ति आमदनी बढ़ोतरी की दर 4.6 फ़ीसदी रही। यानी उत्तर प्रदेश में कमाई की हालत पूरे देश भर में कमाई की हालत से काफ़ी कमजोर रही। अगर समाजवादी पार्टी के 2013 से लेकर 2017 तक के शासनकाल से तुलना करके देखें तो वैसी स्थिति में भी योगी आदित्यनाथ की सरकार का परफॉर्मेंस कमजोर दिखता है। समाजवादी पार्टी के 5 सालों के दौर में प्रति व्यक्ति आमदनी में बढ़ोतरी की दर तकरीबन 5 फ़ीसदी थी।
अगर उत्तर प्रदेश की प्रति व्यक्ति आमदनी को परखने के लिहाज से कोरोना के दौर को भी जोड़ लिया जाए तब तो स्थिति और भी अधिक बुरी दिखाई देने लगती है। पिछले 4 साल में प्रति व्यक्ति आमदनी में बढ़ोतरी की दर महज 0.1 फ़ीसदी बन रही है। योगी आदित्यनाथ ने एक बार कहा था कि अगले 5 सालों में उत्तर प्रदेश में प्रति व्यक्ति आमदनी, पूरे भारत में प्रति व्यक्ति आमदनी से आगे निकल जाएगी। इंडियन एक्सप्रेस के वरिष्ठ पत्रकार उदित मिश्रा का कहना है कि इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए उत्तर प्रदेश में प्रति व्यक्ति आमदनी में 22 फ़ीसदी सलाना की दर से बढ़ोतरी की जरूरत है। यह इतना अधिक है जैसे जमीन और आसमान का अंतर होता है।
उत्तर प्रदेश में प्रति व्यक्ति आमदनी की हालत जानकर कई भले लोग यह कह सकते हैं कि बहुत अधिक आबादी होने की वजह से उत्तर प्रदेश की प्रति व्यक्ति आमदनी कम है। इस भलमनसाहत को हथियार बनाने की कोशिश जनसंख्या नियंत्रण कानून की चर्चा कर योगी सरकार ने भी की। जिस पर पहले ही बहुत कुछ लिखा जा चुका है। जिसका निचोड़ यह था कि लोगों के मन में बैठे आबादी को एक बोझ की तरह समझने की धारणा का इस्तेमाल कर चुनावी राजनीति का खेल खेला जाए। जबकि हकीकत यह है कि इंसानों की आबादी अर्थव्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण कारक मानव संसाधन को निर्मित करती है। यह मानव संसाधन कितना उत्पादक होगा, यह राज्य और सरकार जैसी संस्था पर निर्भर करता है। इसलिए प्रति व्यक्ति आमदनी से जुड़े सारे आंकड़े बता रहे हैं उत्तर प्रदेश सरकार की अपने राज्य के नागरिको की प्रगति के लिए बनाई गई सभी नीतियां प्रति व्यक्ति आमदनी के लिहाज से असफल रही हैं।
अतीत से लेकर अब तक देखा जाए तो इसके तमाम कारण हो सकते हैं। उत्तर प्रदेश में भूमि सुधार नहीं हुआ। जातियों का सशक्तीकरण बहुत बाद में हुआ। जिस तरह से दक्षिण भारत में राजनीति हुई। नेताओं ने अपने समुदाय को आगे बढ़ाने का काम किया वैसा काम उत्तर भारत के उत्तर प्रदेश में नहीं हुआ। इस तरह के तमाम कारणों को उत्तर भारत की बदहाली के लिए दोष कहा जा सकता है। कहा ये भी जा सकता है कि भारत में प्रति व्यक्ति आमदनी से तकरीबन आधी कम आमदनी उत्तर प्रदेश में है, इसके लिए केवल योगी सरकार जिम्मेदार नहीं है। यह बात भी एक हद तक ठीक होगी। लेकिन क्या सब कुछ अतीत ही होता है? क्या अतीत को दोष देकर वर्तमान से आंख बंद किया जा सकता है? वर्तमान क्या है? वर्तमान यह है कि किसान आंदोलन कर रहे हैं लेकिन फिर भी उन्हें एमएसपी की लीगल गारंटी नहीं दी जा रही है। पूरे पूर्वी उत्तर प्रदेश का एक तबका प्रवासी में तब्दील हो चुका है, लेकिन इसके लिए कुछ नहीं किया जाता है। कॉलेज और विश्वविद्यालय में जाकर बेहतरीन मानव संसाधन तैयार होना चाहिए था। लेकिन शिक्षण संस्थानों की हालत जर्जर हो चुकी है। जो पढ़ाई और रोजगार का केंद्र हुआ करता था वह दयनीय हालत में पहुंच चुका है। अजीज प्रेमजी यूनिवर्सिटी के विकास कुमार अपने रिसर्च पेपर में बताते हैं कि वही कानपुर जो आईआईटी कानपुर के नाम से भी जाना जाता है। वहां पढ़ने वाले कितने स्टूडेंट उत्तर प्रदेश में रहकर काम करते हैं? मानव संसाधन कहां चला जाता है। कानपुर जैसा शहर बजबजाती हुई नालियों में तब्दील हो चुका है। जबकि एक जमाने में यह उत्तर प्रदेश का औद्योगिक नगर हुआ करता था।
इन सब के लिए किसे दोष दिया जाएगा? क्या इनके लिए अब्बा जान को दोष दिया जाएगा या मौजूदा वक्त की योगी सरकार को दोष दिया जाएगा जिसने चौक चौराहे सबको सांप्रदायिक बनाने के सिवाय उत्तर प्रदेश में कोई और कारगर काम नहीं किया है।
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