खेत मज़दूर का वेतन मोदी शासन में सलाना केवल 3 फीसदी के दर से बढ़ा
2014 में जब से नरेंद्र मोदी सत्ता में आए हैं, तब से आम कृषि श्रमिकों की मजदूरी मौजूदा कीमतों के आधार पर प्रति वर्ष केवल 6 प्रतिशत बढ़ी है। यदि आप मूल्य वृद्धि को इसमें समायोजित करते हैं, तो वास्तविक मजदूरी में वृद्धि पुरुषों के लिए 2.5 प्रतिशत और महिलाओं के लिए 2.7 प्रतिशत प्रति वर्ष बढ़ी है। अक्टूबर 2018 में, पिछले महीने की ग्रामीण मजदूरी दर श्रम ब्यूरो के पास उपलब्ध हैं, पुरुष श्रमिकों की मजदूरी प्रति दिन रु 279 रूपए और महिला श्रमिकों की 218 रूपए है। चार साल पहले अक्टूबर 2014 में, क्रमशः यह 226 रूपए और 175 रूपए थी।
यहां तक कि नाममात्र मुद्रास्फीति को बिना समायोजन किए मौजूदा कीमतों के आधार पर मजदूरी में वृद्धि मामूली है - दोनों पुरुषों और महिलाओं के लिए प्रति वर्ष केवल 6 प्रतिशत के लगभग। लेकिन इन चार वर्षों में, सभी आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में जैसे- भोजन, ईंधन, कपड़े - और शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा जैसी सेवाओं में काफी वृद्धि हुई है। इसीलिए अगर इस महंगाई दर में बढ़ोतरी को इसमें समयोजित नही किया जाता है तो कमाई की बेहतर तस्वीर सामने आती है। यह कृषि मजदूरों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI-AL) का उपयोग करके किया जा सकता है जो कि हर महीने श्रम ब्यूरो द्वारा जारी किया जाता है। वास्तविक मजदूरी की वृद्धि दर पुरुषों के लिए प्रति वर्ष 2.5 प्रतिशत है और महिलाओं के लिए 2.7 प्रतिशत है।
मजदूरी में यह नगण्य वृद्धि नीचे दिए गए चार्ट में देखी जा सकती है, जहां दोनों लाइनें पिछले चार वर्षों में व्यावहारिक रूप से समान हैं।
मोदी के शासन से पहले, कृषि मजदूरी में तेजी से वृद्धि हुई थी - अक्टूबर 2010 और अक्टूबर 2014 के दौरान, नाममात्र मजदूरी लगभग 22 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से बढ़ी जबकि वास्तविक मजदूरी में 8-9 प्रतिशत प्रति वर्ष की वृद्धि हुई। यह उच्च मुद्रास्फीति की अवधि थी, यही कारण है कि नाममात्र और वास्तविक मजदूरी में बड़ा अंतर है । यह वृद्धि मुख्य रूप से ग्रामीण नौकरी की गारंटी योजना - MGNREGS - के कार्यान्वयन द्वारा संचालित की गई थी, जिसने वैकल्पिक रोजगार और बेहतर मजदूरी प्रदान की, जिससे कृषि मजदूरी की सौदेबाजी शक्ति बढ़ गई। हालाँकि, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना या MGNREGS, और उनकी सरकार की विनाशकारी नीतियों के कारण कृषि क्षेत्र के वित्त पोषण पर मोदी के दबाव ने, इस वृद्धि को बेअसर कर दिया है।
भारत में अनुमानित 15 करोड़ कृषि श्रमिक हैं, जो इसे सबसे बड़ा आर्थिक वर्ग बनाता है। वे अर्थव्यवस्था के निचले भाग में भी रहते हैं, लेकिन इन्हें केवल कुछ ही मौसम में काम करना होता है । नतीजतन, ये दैनिक मजदूरी दरें वास्तव में केवल कुछ महीनों के लिए लागू रहती हैं, जब काम पूरे जोरों पर होता है, खासकर फसल के मौसम के दौरान। शेष वर्ष के लिए, कृषि मजदूर MGNREGS सहित अन्य व्यवसायों में काम की तलाश करते हैं। वे कंस्ट्रक्शन लेबर, ईंट भट्ठा मजदूर, नमक के मजदूर आदि के रूप में भी काम करते हैं।
बंद सीजन में, जीवित रहने के लिए, ये मज़दूर अक्सर शहरों और कस्बों में चले जाते हैं, जहां रिक्शा चालक, हेड-लोड वर्कर यानी बोझा ढोने का काम और अन्य शारिरिक मज़दूरी के काम करते हैं। भारत के लगभग आधे कृषि मजदूर दलित और आदिवासी हैं, इस प्रकार जातिगत भेदभाव और हिंसा के रूप में अमानवीय सामंती उत्पीड़न का सामना भी इन्हे करना पड़ रहा है।
मोदी और उसकी टीम की गणना में, अच्छे दिन और सबका साथ, सबका विकास (सभी के लिए विकास) के सभी वादे में, इस विशाल अदृश्य कार्यबल का कोई उल्लेख नही है जो विभिन्न मिश्रित सेवाओं के माध्यम से देश और यहां तक कि शहरी इलाकों में काम करता है । किसानों की आय दोगुनी करने की भव्य योजना बनाते समय, कृषि श्रमिकों की मजदूरी का कोई उल्लेख नहीं है। न तो वे बैंक ऋण या ऋण माफी के लिए उनकी रडार पर हैं। मोदी के भाषणों इन करोड़ों मज़दूरों के मामले में शांत हैं, जैसा कि भाषण भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के अध्यक्ष अमित शाह ने चुनाव जीतने के लिए पार्टी कार्यकर्ताओं को दिया था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जो भाजपा की माँ है, और विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल जैसे विभिन्न सहयोगियों ने कभी भी इन असहाय मजदूरों कोई विचार नहीं किया है, क्योंकि वे तो तथाकथित हिंदू राष्ट्र को स्थापित करने के लिए विभिन्न गौरवशाली कार्यों, जैसे कि मंदिरों का निर्माण, मूर्तियाँ का निर्माण कर दुनिया का विश्वं गुरु बनने का सपना देख रहे हैं।
जबकि भाजपा/आरएसएस को कुछ महीनों में एक कड़ी चुनावी लड़ाई की तैयारी में उतरना है, तब भी सत्ताधारी पार्टी और उसके नेतृत्व कृषि श्रमिकों की दुर्दशा के बारे में अनभिज्ञ बना हुआ हैं - और 'जुमला सरकार' (खोखली सरकार) के खिलाफ उनके गुस्से से भी पूरी तरह अनभिज्ञ है।
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