क्या संत रविदास के केसरियाकरण की कोशिशें रवां है?

(मंगलवार, 19 फरवरी को हमने रविदास जयंती मनाई। इसी संदर्भ में यह विशेष आलेख)
आज से ठीक नब्बे साल पहले डॉ. अम्बेडकर ने इस आन्दोलन में उठे विद्रोही स्वरों की समीक्षा करते हुए अपनी बेबाक राय दी थी और इस आन्दोलन की सीमाओं को बखूबी रेखांकित किया था। उनके द्वारा संपादित ‘‘बहिष्कृत भारत’ के 1 फरवरी 1929 के अंक में उन्होंने अपनी राय का इजहार किया था:
‘इस चातुर्वर्ण्य के खिलाफ अब तक तमाम बगावतें हुईं, मगर इन बगावतों का संघर्ष अलग किस्म का था। मानवी ब्राह्मण श्रेष्ठ या भक्त श्रेष्ठ ऐसा वह संघर्ष था। ब्राह्मण मानव श्रेष्ठ या शूद्र मानव श्रेष्ठ इस सवाल को सुलझाने के प्रयास में साधु-संत उलझे नहीं। इस विद्रोह में साधु-संतों की जीत हुई और भक्तों का श्रेष्ठत्व ब्राह्मणों को मानना पड़ा मगर, इस बगावत का चातुर्वर्ण्यविध्वंसन के लिए कुछ उपयोग नहीं हुआ।... चातुर्वर्ण्य का दबाव बना रहा। संतों के विद्रोह का एक गलत परिणाम यह निकला कि आप चोखामेला की तरह भक्त बनें, तब हम आप को मानेंगे, ऐसा कहते हुए दलित वर्ग की वंचना का एक नया उपाय ब्राह्मणों के हाथ आया। दलितवर्ग के असन्तुष्ट स्वर इससे खामोश किए जा सकते हैं, ऐसा ब्राह्मणों का अनुभव है और इसी तरीके के सहायता से उन्होंने अस्पृश्य और गैरब्राह्मण हिन्दुओं को गैरबराबरी में जकड़ कर रखा है।’
अगर कालखण्ड के हिसाब से सोचें तो उसी दौर में यूरोप में आकार ले रही आधुनिकता के साथ उसकी तुलना करते हुए यह पूछा जा सकता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि आधुनिकता की विशिष्टताओं - तर्कशीलता, वैज्ञानिक चिन्तन - के बरअक्स इस आन्दोलन ने रहस्यवाद/उलेजपबपेउध् को बढ़ावा दिया। धर्म की चौहद्दी से बाहर रखे गए तबकों को अवर्ण माने जाते रहे समुदायों के उच्च-नीच सोपानक्रम की वरीयता को बनाए रखते हुए उन्हें उसमें समाहित करने का रास्ता सुगम किया। देखें: ‘भक्ति और जन- डॉ. सेवा सिंह, गुरू नानकदेव यूनिवर्सिटी, अमृतसर, 2005.
इसमें कोई दोराय नहीं कि हम मध्ययुग में खड़े हुए भक्ति आन्दोलन की विभिन्न आयामों से चर्चा वक्त़ की मांग है/1/ बहरहाल इस बात से कोई इन्कार नहीं करेगा कि भक्ति आन्दोलन ने पहली बार शूद्र-अतिशूद्र जातियों से संतों को आगे लाने का, जमीनी स्तर पर विभिन्न समुदायों के आपसी साझेपन की बात को रेखांकित किया था। अगर हम इनमें से कई चर्चित संतों के पेशों को देखें तो वह श्रम पर गुजारा करने वाले हैं। अगर कबीर बुनकर समुदाय से थे तो संत सैन ने नाई का पेशा जारी रखा तो नामदेव कपड़े पर छपाई करते थे तो दादू दयाल रूई धुनने के काम को आजीविका के तौर पर करते थे और इन सभी में रैदास का पेशा एकदम जुदा था। वे मोची थे। जूते बनाते थे और उसकी मरम्मत भी करते थे। समाज की भाषा में उनकी जाति कथित ‘चमार’ की थी।
हम उनके दोहों में भी इस बात का प्रतिबिम्बन देख सकते हैं:
‘बाहमन मत पूजिए, जउ होवे गुणहीन, पुजिहिं चरन चंडाल के जउ होवै गुण परवीन’
‘चारिव वेद किया खंडौति, जन रैदास करे दंडौति’
जैसे दोहों से वेदों और ब्राह्मणों को चुनौती देने वाले रैदास, यह कहने में संकोच नहीं करते हैं कि
‘ कहि रैदास खलास चमारा, जो हमसहरी सो मीत हमारा’
या जातिप्रथा के खिलाफ जोरदार ढंग से यह भी कहते हैं:
‘जात पात के फेर मंहि, उरझि रहई सभ लोग
मानुषता कूं खात हइ, ‘रविदास’ जात का रोगा’
ऊंच-नीच सोपानक्रम पर टिकी ब्राह्मणी सामाजिक व्यवस्था को दूर करते हुए ‘बेग़मपुरा अर्थात एक ऐसा राज्य जो दुखों से कष्टों से मुक्त हो’ की स्थापना उन्होंने अपनी रचना में की।
‘बेगमपूर सहर को नाउं, दुख अंदोह नहीं तेहि ठाउं।’
सभी की समता की बात करते हुए वह कहते हैं-
‘ऐसा चाहो राज मैं, जहां मिलै सबन कौ अन्न
छोटं बड़ो सभ सभ बसैं, ‘रविदास’ रहे प्रसन्न’
उनसे जुड़ी कथाओं के अनुसार वाराणसी के ही एक गांव सीर गोवर्धनपुर में एक दलित /चर्मकार/ परिवार में वह जन्मे थे। गुरू नानक द्वारा रचित गुरू ग्रंथसाहब में भी इनकी चालीस साखियां शामिल हैं और पंजाब, उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि महाराष्ट्र में भी इनका नाम चर्चित रहा है। संत रविदास का उपलब्ध साहित्य 18 साखी और 101 पद में ही मिलता है। इस विरोधाभास को कैसे समझा जा सकता है कि संत शिरोमणि कहे जानेवाले रविदास ने क्या महज इतना ही लिखा होगा। ऐसा माने जाने के पर्याप्त कारण हैं कि उनके साहित्य का बड़े पैमाने पर विध्वंस हुआ होगा या उसका दस्तावेजीकरण नहीं हो सका होगा।
रेखांकित करने वाली बात यह है कि जबसे भारतीय सियासत में दक्षिणपंथी हिन्दुत्व की ताकतों का बोलबाला बढ़ा है, विद्रोही संत रविदास को अपने असमावेशी एजेण्डा में शामिल करने की कोशिशें तेज हो चली हैं ताकि इसी बहाने संत रविदास को माननेवाले दलित मतदाताओं को प्रभावित किया जाए। इसे कई स्तरों पर अंजाम दिया जा रहा है। पहला स्तर है उनकी जन्मस्थली पर बने मंदिर को स्वर्णमंदिर जैसा मंदिर बनाया जाए।
ख़बरों के मुताबिक केन्द्र एवं राज्य सरकार के स्तर पर इसकी पूरी कोशिशें तेज हैं:
‘‘सीएम योगी की पहल पर सीर गोवर्धनपुर में अमृतसर के स्वर्ण मंदिर जैसा मंदिर बनाने की तैयारी की जा रही है जिस के लिए 195 करोड़ रुपए की योजना प्रस्तावित की गयी है। ..इसके तहत ऑडिटोरियम, सत्संग हॉल, संत-सेवादारों के लिए आवास, लाइब्रेरी, गोशाला का निर्माण होगा। साथ ही संत रविदास के नाम पर 150 बेड का आधुनिक अस्पताल बनाने की योजना भी है जिस के लिए आसपास के 100 से ज्यादा घरों का अधिग्रहण भी किया जायेगा।
इस एजेण्डा का दूसरा तथा अधिक चिन्ताजनक पहलू उन्हें एक ऐसे संत के रूप में पेश करना जिसे वह ‘हिन्दू धर्म के महान पुरोधा’ के तौर पर और कथित ‘मजहबी कट्टरता’ के खिलाफ खड़े आइकन के तौर पर पेश करें। उन्हें ‘समरसता के संत’ के तौर पर पेश करते हुए हिन्दुत्ववादी संगठनों की तरफ से रैलियां भी निकलती रही हैं। मालूम हो कि जातिप्रथा तथा उससे जुड़ी गैरबराबरियों को बनाए रखते हुए हिन्दू एकता की कोशिशों में मुब्तिला इन संगठनों ने ही समरसता का सिद्धांत गढ़ा है।
कहा जाता है कि इनकी ख्याति सुन कर दिल्ली के सुल्तान सिकन्दर लोदी ने उन्हें दिल्ली बुलाया था।
साझी संस्कति पर यकीन रखने वाले और ब्राह्मणवाद के खिलाफ अपने प्रतिरोध को हर रूप में दर्ज करनेवाले संत रविदास के बिल्कुल अलग किस्म के चरित्र-चित्रण की कोशिशों को हम विजय सोनकर शास्त्राी की किताब ‘हिन्दू चर्मकार जाति’ में भी देखते है। वंचित समुदाय से आनेवाले प्रस्तुत लेखक वाजपेयी सरकार के दिनों में अनुसूचित आयोग के अध्यक्ष रह चुके हैं। रेखांकित करनेवाली बात है कि 2014 में भाजपा के सत्तारोहण के बाद प्रस्तुत लेखक महोदय की तीन किताबों - जो अलग अलग दलित जातियों पर केन्द्रित थीं उनका प्रकाशन हुआ था, अन्य किताबों के नाम थे ‘हिन्दू खटिक जाति’ तथा ‘हिन्दू वाल्मिकी जाति’
संघ के अग्रणी द्वारा प्रस्तावना लिखी इस किताब में मनगढंत तथ्यों के आधार पर यह कहा गया है कि रविदास ने सुल्तान द्वारा दबाव डालने के बावजूद ‘इस्लाम धर्म’ को स्वीकारने से इन्कार किया था।
‘हिंदू चमार जाति की राजवंशीय एवं गौरवशाली क्षत्रिय वंश परंपरा में संत शिरोमणि गुरू रैदासजी का आविर्भाव इस जाति के लिए सम्मानपूर्वक रहा। वह चंवर वंश के क्षत्रिय और पिप्पल गोत्रा के कुलीन कुटुंब में जन्म लिए थे।..हिंदू चमार कुलोत्पन्न संत रैदास पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने मत्यु की चिंता किए बिना इस्लाम को अस्वीकार कर दिया था, तत्पश्चात वे विदेशी शासक सिंकदर लोदी द्वारा जेल में बंद करके उत्पीड़ित किए गए थे। इस्लामिक शासन ने उनको चर्म-कर्म में लगाकर ‘चमार’ शब्द से संबोधित किया। संत रैदास ने अपने स्वभाव के अनुसार पूरा धैर्य धारण करते हुए सारे अपमान एवं अपवित्रा कर्म का बोझ सहन किया, परंतु किसी भी दशा में इस्लाम स्वीकार न करते हुए उसे ठुकरा दिया।’ /पेज 228/
सिकन्दर लोदी द्वारा इन्हें सम्मानित करने के बजाय उनके उत्पीड़ित किए जाने और धर्मपरिवर्तन कराने की कहानी जिस तरह गढ़ी गयी है, वह चिन्तनीय मसला है।
निजी जीवन में जातिप्रथा का दंश भोगने वाले और उसके खिलाफ अपने स्तर पर विद्रोह करनेवाले सन्त रविदास के बारे में यह कहने में भी लेखक ने संकोच नहीं किया कि वह ‘अपने संपूर्ण जीवन-काल में हिंदू संस्कति के नैतिक एवं धार्मिक पक्ष से जुड़े रहे। ..वह भक्तिमार्ग पर अग्रसर होकर हिन्दू धर्म के प्रमुख तत्व अहिंसा के माध्यम से बिना किसी रक्तपात के हिंदू संस्कति के इस्लामीकरण को अपनी संत प्रकति के बल पर रोकने में सफल रहे।’/पेज 229/
दलितों एवं मुसलमानों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करने की रणनीति के तहत किताब बताती है: /पेज 235/
“चमड़े से बनी वस्तुएं हिंदू कभी स्वीकार नहीं करते थे, बल्कि उसका उपयोग केवल मुस्लिम वर्ग ही करता था, इसलिए उस चर्म-कर्म का प्रारम्भ सर्वप्रथम मुसलमानों ने ही किया। चमड़ा अधिक होने और कर्मी कम होने के कारण बाद में बलपूर्वक क्षत्रिय वर्ग के स्वाभिमानी युद्धबद्धियों को भी लगाया गया जिन्होंने इस्लाम अस्वीकार कर दिया था। यह काम सर्वप्रथम संत रैदास को दिया गया और उनको ही चमार संबोधित किया गया। उसी के बाद से चर्म कर्म में लगे हिंदू ‘चमार’ कहे गए जो पेशा के आधार पर पहचान बदली तो क्षत्रिय से चमार जाति के हो गए अथवा माने गए।”
तय बात है कि न लेखक महोदय को और न ही संघ परिवारी जमातों को इस बात पर ध्यान रखने की जरूरत पड़ती है कि किस तरह रविदास के भक्तिभाव में हम जाति और जेण्डरगत सामाजिक विभाजनों को समतल बनाने की कोशिश देखते हैं, जो एकतामूलक भी है क्योंकि वह उच्च आध्यात्मिक एकता के नाम पर संकीर्ण विभाजनों को लांघती दिखती है। हिन्दू मुसलमान के आपसी सम्बन्धों पर या मंदिर-मस्जिद के नाम चलनेवाले झगड़ों पर भी वह टिप्पणी करते हैं।
मंदिर मसजिद दोउ एकं है, इन मंह अंतर नांहि।
‘रविदास’ राम रहमान का, झगडउ कोउ नांहि ।।
- रविदास दर्शन, दोहा 144
या
मसजिद सों कुछ घिन नहीं, मंदिर सो नहीं पिआर ।
दोउ महं अल्लाह राम नहीं, कह ‘रविदास’ चमार ।।
- रविदास दर्शन, दोहा 146
उनका एक और महत्वपूर्ण दोहा है जिसमें वह हिंदू और मुसलमान, दोनों को संबोधित करते हुए कहते हैं कि दोनों में एक ही ज्योति का प्रकाश है, एक ही आत्मा विराजमान है:
मुसलमान सो दोसती, हिंदुअन सों कर प्रीत।
‘रविदास’ जोति सभ राम की, सभ हैं अपने मीत।।
जब जब सभ करि दोउ हाथ पग, दोउ नैन दोउ कान।
रविदास प्रथक कैसे भये, हिंदू मुसलमान।।
शायद ऐसी ताकतें इस भ्रम में दिखती हैं कि असहमति रखनेवाली हर आवाज़ को खामोश किए जाने के आज के दौर में आखिर सच्चाई को कौन सामने ला सकता है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं।)
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