कश्मीर इंटरनेट मामला: सुप्रीम कोर्ट ने बातें तो अच्छी कहीं, लेकिन फ़ैसला नहीं सुनाया!

पिछले 150 से ज्यादा दिनों से कश्मीर की आवाज बंद है। इंटरनेट बंद होने की वजह से वहां के लोगों की आवाज सामने नहीं आ रही है। अभिव्यक्ति पर लगी इस पाबंदी के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में 'कश्मीर टाइम्स' की कार्यकारी संपादक अनुराधा भसीन, राज्यसभा सांसद गुलाम नबी आजाद और कुछ अन्य लोगों द्वारा याचिका दायर की गयी थी। इनकी याचिकाओं में 5 अगस्त को जम्मू-कश्मीर की विशेष स्थिति के खात्मे के बाद कश्मीर क्षेत्र में इंटरनेट, मीडिया और अन्य प्रतिबंधों को चुनौती दी गई थी।
इस पर सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया है। यह फैसला 130 पन्नों का है। इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सरकार उन सभी सरकारी आदेशों पर पुनर्विचार करे जिनसे जम्मू कश्मीर के मूलभूत अधिकारों पर प्रतिबन्ध लगता है। वाणिज्य और व्यपार के लिए लोगों द्वारा एक जगह से दूसरे जगह जाने की आज़ादी पर प्रतिबन्ध लगा है।
जस्टिस एन वी रमना, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस बीआर गवई की तीन सदस्यीय पीठ ने अपने फैसले में कहा कि हम घोषणा करते हैं कि भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और किसी भी पेशे को करने की स्वतंत्रता संविधान प्रदान करता है। इसमें इंटरनेट के जरिए किसी भी व्यक्ति को किसी भी तरह के व्यापार या व्यवसाय करने की स्वत्नत्रता भी शामिल है। यह सारी बातें संविधान के मौलिक अधिकारों से जुड़ें अनुच्छेद 19 (1) (ए) और अनुच्छेद 19 (1) (जी) में लिखी है। इस तरह के मौलिक अधिकारों पर प्रतिबन्ध भी लग सकता है लेकिन इसके लिए ऐसे कारणों की मौजूदगी जरूरी है जो व्यक्ति की आजादी पर प्रतिबन्ध को सही तरह से परिभाषित कर पाएं। युक्तियुक्त प्रतिबन्ध की तरह हो। प्रतिबन्ध बहुत बड़ा न हो, अगर प्रतिबन्ध की जगह किसी दूसरी तरह से काम हो सकता हो तो उसका इस्तेमाल किया जाए। प्रतिबन्ध मनमाना न हो। प्रतिबंध का मकसद उचित होना चाहिए ऐसा न हो कि प्रतिबन्ध गलत मकसद से लगाया हो। कोर्ट ने कहा नहीं है लेकिन कोर्ट की ऐसी बातों से यह निष्कर्ष तो निकाला ही जा सकता है कि महीनों-महीनों तक इंटरनेट पर प्रतिबन्ध स्टेट के सही मकसद को नहीं दिखाता है।
यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि कोर्ट ने अपने फैसले में केवल अभिव्यक्ति की आजादी से जुड़ी मौलिक अधिकार के सिद्धांत को बताया है। कोर्ट ने जम्मू कश्मीर में इंटरनेट की उपलब्धता से जुड़ी कोई बात नहीं की है। यानी यह तो बताया है कि अभिव्यक्ति की आजादी और व्यापार और वाणिज्य की आजादी के लिए इंटरनेट की उपयोगिता है। लेकिन अपने फैसले में इस सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा कि क्या कश्मीर के लोगों को इंटरनेट मुहैया कराया जाना चाहिए या नहीं।
इसके साथ सुप्रीम कोर्ट अपने फैसले में यह भी कहा कि सरकार जम्मू कश्मीर से जुड़े सरकारी आदेशों पर पुनर्विचार करे। यह भी अजीब है क्योंकि जब सरकार ही जम्मू कश्मीर में इंटरनेट बंदी का आदेश दे रही है तो उससे अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि लोगों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए जरूरी कदम उठाएगी।
सुप्रीम कोर्ट ने यहां तक कहा कि मौजूदा समय में हमारे जीवन में टेक्नोलॉजी की भूमिका बढ़ती जा रही है और अक्सर कानून टेक्नोलॉजी के पीछे रह जाता है। जस्टिस रमना द्वारा लिखे गए फैसले में टिप्पणी की गई, "कानून की परिधि में प्रौद्योगिकी को मान्यता न देना केवल अपारिहार्यता की क्षति है। इंटरनेट के महत्व को कम करके नहीं आंका जा सकता है। हम 24 घंटे साइबर स्पेस में ही डूबे रहते हैं। हमारी बुनियादी गतिविधियां भी इंटरनेट के जरिए ही संचालित हो रही हैं। (पैरा 24) "
भारतीय अर्थव्यवस्था के वैश्वीकरण और सूचना और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में तेजी से हुई प्रगति ने विशाल व्यापारिक रास्ते खोल दिए हैं और भारत को एक वैश्विक आईटी हब के रूप में बदल दिया है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि कुछ ऐसे ट्रेड हैं जो पूरी तरह से इंटरनेट पर निर्भर हैं। इंटरनेट के माध्यम से व्यापार का ऐसा अधिकार उपभोक्तावाद और विकल्प की उपलब्धता को भी बढ़ावा देता है। इसलिए, इंटरनेट के माध्यम से व्यापार और वाणिज्य की स्वतंत्रता भी संवैधानिक रूप से अनुच्छेद 19 (1) (जी) के तहत संरक्षित है और अनुच्छेद 19 (6 के तहत दिए प्रतिबंधों के अधीन है) ) (पैरा 27) "।
यह सारे सिंद्धात गिनाने के बाद भी सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि किसी भी पक्ष के वकील ने इंटरनेट की उपलब्धता मुहैया कराने के लिए वाद नहीं किया। इसलिए हम इस सम्बन्ध में कोई राय नहीं देंगे। हमारा कहना सिर्फ इतना है कि इंटरनेट के जरिये अभिव्यक्ति की आजादी को संवैधानिक संरक्षण मिला हुआ है।
धारा 144 के सम्बन्ध में कोर्ट ने कुछ बात कही है। भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता में धारा 144 की प्रावधान है। इसके तहत मजिस्ट्रेट के आदेश पर शांति व्यवस्था बरकरार रखने के लिए पांच या पांच से अधिक व्यक्तियों को एक जगह पर इकठ्ठा होने से प्रतिबंधित किया जाता है। इसके समबन्ध में मजिस्ट्रट को शक्ति है कि वह इसे दो महीने तक लगा सकता है, राज्य सरकार इसे छह महीने तक लगा सकती है।
धारा 144 के सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इसका उपयोग तर्कसंगत राय को दबाने के लिए नहीं किया जा सकता है, लोगों के लोकतान्त्रिक अधिकार को छीनने के लिए धारा 144 का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है ,असहमति को दबाने के लिए नहीं किया जा सकता है। मजिस्ट्रेट को धारा 144 का आदेश जारी करते समय यह लिखना होगा कि उसे किन वजहों से धारा 144 का इस्तेमाल करना पड़ा है। ये आधार तर्कसंगत होने चाहिए, मनमाने नहीं होने चाहिए। सुप्रीम कोर्ट में इस पर जमकर इसलिए भी बोला क्योंकि हालिया समय में बहुत सारे मजिस्ट्रियल आदेश मनमाने तरीके से दिए जा रहे हैं और सुप्रीम कोर्ट ने जब आदेश के आधार मांगे तब सरकार का पक्ष इसे मुहैया नहीं करवा पाया।
इस मामलें पर क़ानूनी जानकार फैज़ान मुस्तफा अपने यू ट्यूब चैनल पर कहते हैं कि कोर्ट का काम सिद्धांतों को सुझाना है उन सिद्धांतों को व्यवहार में लागू करना स्टेट का काम होता है। अक्सरहा स्टेट इन सिद्धांतों को सही तरह से लागू नहीं करवा पाती है। जैसे निजता के अधिकार पर कोर्ट ने सही सिद्धांत सुझाए लेकिन 'आधार' वाले मामले पर सरकार का रवैया निजता के अधिकार में सुझाये गए सिद्धांतों की तरह नहीं है। इसी तरह इस मामले में भी कोर्ट ने बहुत सारी अच्छी सिद्धातों की व्याख्या की और बढ़िया बातें की लेकिन कोर्ट ने सरकारी आदेशों पर पुनर्विचार करने के लिए जिस तरह कमिटी बनाई हैं उसमें केवल सरकारी अधिकारी हैं और मैं नहीं समझता कि यह सरकरी अधिकारी सरकार के राजनीतिक फैसलों के खिलाफ जाएंगे। बेहतर यह होता कि इसमें सिविल सोसाइटी के लोग भी शामिल होते।
क़ानूनी जानकर गौतम भाटिया ने न्यूज़क्लिक से बात करते हुए कहा कि हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने बहुत सारे बढ़िया बातें की हैं लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कोर्ट ने फैसला नहीं सुनाया है। ऐसे मामले पर आतंकवादी गतिविधियों के आधार को मानकर अगर सुप्रीम कोर्ट फैसला नहीं सुनाएगी तो कौन सुनाएगा? क्या न्यायालय स्टेट के इस चाहत को स्वीकार कर रहा है कि राष्ट्रीय सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए कश्मीर में आपातकाल जैसी व्यवस्था को नार्मल मान लिया जाए? क्या राष्ट्रीय सुरक्षा की आड़ में लोगों के संवैधानिक अधिकार को पूरी तरह से हमेशा के लिए ख़ारिज किया जा सकता है? अगर कोर्ट ने संवैधानिक अधिकारों के संरक्षण की बात कही है तो कोर्ट को इंटरनेट शटडाउन को गैरक़ानूनी भी घोषित कर देना चाहिए था। इंटरनेट चालू कर देने के आदेश भी दे देना चाहिए था।
इस मसले से जुड़ी याचिकाकर्ता अनुराधा भसीन का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट ने सही मंशा से बाते की हैं लेकिन इंटरनेट शटडाउन की वैधनिकता और अवैधानिकता पर कुछ नहीं कहा है। केवल सरकार को आदेश दिया है कि वह अपने आदेशों पर पुनर्विचार करे। कहने का मतलब यह है कि अब गेंद पूरी तरह से सरकार के पाले में है। अब देखने वाली बात यह है कि इंटरनेट शटडाउन के जरिये कश्मीर को चला रही सरकार का कश्मीर पर फैसला क्या होता है?
दिल्ली विश्वविद्यालय में क़ानून दर्शन की पढ़ाई कर रहे पीएचडी स्कॉलर पवन कुमार कहते हैं कि यह बात सही है कि न्यायालय और सरकार का काम अलग-अलग है। एक स्वस्थ लोकतंत्र में न्यायपालिका को सरकार के अधिकार क्षेत्र में नहीं घुसना चाहिए। न्याय का सिद्धांत भी यही बात कहता है। लेकिन किसी भी तरह के न्याय का सिद्धांत जड़वत किस्म का नहीं होता है कि जैसा कह दिया गया वैसा ही होगा। यह सिद्धांत हमेशा समाज के सापेक्ष काम करते हैं और समाज से ही बनते हैं। जब असलियत यह कि कश्मीर में अभिव्यक्ति की आजादी पर पाबंदी सरकार लगा रही है, इंटरनेट शट डाउन सरकार कर रही है और इसके खिलाफ लोग न्यायालय गए हैं तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले में केवल मौजूदा कानूनों की फिर से व्यख्या कर देना न्याय नहीं है। न्याय यह है कि सुप्रीम कोर्ट जनता के अधिकारों की रक्षा के लिए कानून को सरकार पर लागू करे। सरकार को आदेश दे कि वह अपनी मनमार्जियां बंद करे। इस तरह से सुप्रीम कोर्ट के फैसले में बातें तो सुंदर कही गयी हैं लेकिन हकीकत में जम्मू कश्मीर की स्थिति को सुधारने के लिए न्याय नहीं किया गया है।
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।